मनोविज्ञान (Psychology) किसे कहते हैं? बाल मनोविज्ञान के बारे में बताइए

Manovigyan

मनोविज्ञान

मनोविज्ञान (Psychology) वह शैक्षिक व अनुप्रयोगात्मक विद्या है जो प्राणी (मनुष्य, पशु आदि) के मानसिक प्रक्रियाओं (mental processes), अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दाेनाें प्रकार के व्यवहाराें का एक क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन करती है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो क्रमबद्ध रूप से (systematically) प्रेक्षणीय व्यवहार (observable behaviour) का अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं जैसे – चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है।

इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है। ‘व्यवहार’ में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं के अन्तर्गत संवेदन (Sensation), अवधान (attention), प्रत्यक्षण (Perception), सीखना (अधिगम), स्मृति, चिन्तन आदि आते हैं।

मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करनेवाले नियमों का पता लगाना है।

Bal Manovigyan

बाल मनोविज्ञान (Child Psychology)

बालमनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें गर्भावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के मनुष्य के मानसिक विकास का अध्ययन किया जाता है। सामान्य मनोविज्ञान प्रौढ़ व्यक्तियों की मानसिक क्रियाओं का वर्णन करता है तथा उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करता है, वहीं बालमनोविज्ञान बच्चों की मानसिक क्रियाओं का वर्णन करता है और उन्हें समझाने का प्रयास करता है।

जन्मोपरान्त बालक इस संसार के अदभुत् स्वरूप को बड़े आनन्द तथा आश्चर्य के साथ निहारता है एवं अन्तःसुख प्राप्त करता है। माता की गोद उसे स्वर्ग का सा आनन्द देती है। इन सभी का अनुभव वह मौन अभिव्यक्ति के द्वारा स्वीकार करता है। उसके पास उच्चारण होता है, संकेत होते हैं, भाव होते हैं किन्तु शब्दपूर्ण भाषा तथा वाक्य नहीं होते।

धीरे-धीरे अपने अभ्यास तथा परिवार एवं माता के प्रयत्न द्वारा समायोजन तथा अभिव्यक्तिकरण के सूक्ष्म उपाय द्वारा विविध प्रकार से सीखने का प्रयास करता है। इस प्रकार शनैः शनै: सीखने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। वह सुखद तथा दुःखद अपनी विरोधी कठिनाइयों तथा जंटिलताओं को भाव-भंगिमाओं द्वारा व्यक्त भी करता है, यही उसकी संकेतक भाषा होती है।

परिवार, पास-पड़ोस तथा माता के सहयोग से अपनी बुद्धि-क्षमतानुसार प्रयास और त्रुटि द्वारा नवीन ज्ञान सीखकर आयु में वृद्धि करते हुए बालक विद्यालय जाने योग्य बन जाता है। शिशु मन्दिर या प्राथमिक विद्यालय में जाकर उसकी अनुभूति एवं जिज्ञासा का अनुभव बालक व्यक्त नहीं करता अपितु अपने भाव-संकेतों को टूटी-फूटी अपनी भाषा में अभिव्यक्त करता है।

विद्यालय जाने की चाह तथा न जाने की इच्छा उसका अन्त: निर्णय होता है, जो उसके आत्मविश्वास तथा अविश्वास को निर्धारित करता है। बस यहीं से बालक के मनोविज्ञान को समझने की आवश्यकता शिक्षा तथा मनोविज्ञान तथा शिक्षक के लिये अनिवार्य हो जाती है।

बाल विकास और सीखने की प्रक्रिया दोनों में अटूट सम्बन्ध रखते हैं। अतः शिक्षक को बालक का सहपाठी तथा अभिन्न विश्वसनीय मित्र बनकर खेल-खेल में शिक्षा का सम्प्रेषण करना चाहिये। यह अनुभव बालक को न हो कि उसे कुछ सिखाया जा रहा है अपितु खेल-खेल में वह सभी कुछ प्राप्त करता रहे, जो उसे दिया जा रहा है तथा जिसका वह उस आयु में हकदार या उत्तराधिकारी है।

बाल मन्दिर के अधिष्ठाता, बाल प्रेमी, शिक्षाशास्त्री गिजूभाई तो बालक को देवता मानते हैं- ‘बाल देवो भवः’।

आज का बालक कल का सबल भारतीय नागरिक होगा। बालकों के सर्वांगीण विकास में शिक्षा, शिक्षक एवं विद्यालय का योगदान सर्वोपरि है। इस कारण शिक्षक को बाल विकास तथा सीखने के मनोवैज्ञानिक आधारों तथा समस्त बिन्दुओं का ज्ञान होना परमावश्यक है। अतः आगे क्रमबद्ध रूप से समस्त बाल मनोविज्ञान के चैप्टर दिए गए हैं:

सम्पूर्ण बाल मनोविज्ञान

  1. बाल विकास (Child Development)
  2. वैयक्तिक विभिन्नताएँ, कल्पना, चिन्तन और तर्क विकास
  3. बाल विकास के आधार एवं उनको प्रभावित करने वाले कारक
  4. अधिगम (सीखना) का अर्थ तथा सिद्धान्त
  5. अधिगम के वक्र, अधिगम पठार एवं अधिगम का स्थानान्तरण
  6. अभिप्रेरण (Motivation)
  7. सांख्यिकी (Statistics)

मनोविज्ञान की परिभाषा

Manovigyan Ki Paribhasha

आगे मनोविज्ञान की परिभाषाएं दीं जा रहीं हैं-

  1. वाटसन के अनुसार, “मनोविज्ञान, व्यवहार का निश्चित या शुद्ध विज्ञान है।”
  2. मैक्डूगल के अनुसार, “मनोविज्ञान, आचरण एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है।”
  3. वुडवर्थ के अनुसार, “मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान है।”
  4. क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, “मनोविज्ञान मानव–व्यवहार और मानव सम्बन्धों का अध्ययन है।”
  5. बोरिंग के अनुसार, “मनोविज्ञान मानव प्रकृति का अध्ययन है।”
  6. स्किनर के अनुसार, “मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।”
  7. मन के अनुसार, “आधुनिक मनोविज्ञान का सम्बन्ध व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।”
  8. गैरिसन व अन्य के अनुसार, “मनोविज्ञान का सम्बन्ध प्रत्यक्ष मानव – व्यवहार से है।”
  9. गार्डनर मर्फी के अनुसार, “मनोविज्ञान वह विज्ञान है, जो जीवित व्यक्तियों का उनके वातावरण के प्रति अनुक्रियाओं का अध्ययन करता है।”

शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषाएं-

  1. स्टीफन के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षणिक विकास का क्रमिक अध्ययन है।”
  2. ब्राउन के अनुसार, “शिक्षा के द्वारा मानव व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है तथा मानव व्यवहार का अध्ययन ही मनोविज्ञान कहलाता है। “
  3. क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक के अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।”
  4. स्किनर के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत शिक्षा से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व आ जाता है।”
  5. कॉलसनिक के अनुसार, “मनोविज्ञान के सिद्धान्तों व परिणामों का शिक्षा के क्षेत्र में अनुप्रयोग ही शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।”
  6. सारे व टेलफोर्ड के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान का मुख्य सम्बन्ध सीखने से है। यह मनोविज्ञान का वह अंग है जो शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पहलुओं की वैज्ञानिक खोज से विशेष रूप से सम्बन्धित है।”
  7. जे.एम. स्टीफन के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक विकास का क्रमिक अध्ययन है।”
  8. ट्रो के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों के मनोविज्ञान पक्षों का अध्ययन है। “
  9. बी एन झा के अनुसार, “शिक्षा की प्रकिया पूर्णतया मनोविज्ञान की कृपा पर निर्भर है। “
  10. एस एस चौहान के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिवेश में व्यक्ति के विकास का व्यवस्थित अध्ययन है।”
  11. पेस्टोलोजी के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की क्षमताओं का स्वाभाविक, प्रगतिशील तथा विरोधहीन विकास है।”
  12. जॉन डीवी के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की क्षमताओं का विकास है, जिनकी सहायता से वह अपने वातावरण पर नियंत्रण करता हुआ अपनी संभावित उन्नति को प्राप्त करता है।”
  13. जॉन एफ.ट्रेवर्स के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान वह विज्ञान है, जिसमें छात्र , शिक्षण तथा अध्यापन का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है।”
  14. स्किनर के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान का उद्देश्य शैक्षिक परिस्थति के मूल्य एवं कुशलता में योगदान देना है।”

बाल मनोविज्ञान की परिभाषाएं-

  1. गिलफोर्ड के अनुसार, “बालक के विकास का अध्ययन हमें यह जानने योग्य बनाता है कि क्या पढ़ायें और कैसे पढाये।”
  2. स्किनर के अनुसार, “मानव व्यवहार एवं अनुभव से सम्बंधित निष्कर्षो का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है। “

बालमनोविज्ञान और मनोविज्ञान की एक एकीकृत शाखा है, जिसका अधिक विकास 20वीं शताब्दी में हुआ। इसका महत्व बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा, और मनोविकास में है। 19वीं शताब्दी में ही इसकी आवश्यकता को समझा गया था, लेकिन इसका अधिक ध्यान 20वीं शताब्दी में हुआ। बालमनोविज्ञान ने बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास को वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया है।

फ्रांस में इसका प्रारंभिक अध्ययन हुआ, और जर्मनी और यूरोप में भी इस पर काम किया गया। अमरीका में भी बहुत से विद्वानों ने इस पर अनुसंधान किया है। विद्वानों ने बच्चों के सीखने की प्रक्रियाओं को समझने के लिए विभिन्न प्रयोग किए हैं, और बालमन और पशुमन के बीच समानता भी देखी गई है। इसके अतिरिक्त, विद्वानों ने बच्चों के विशेष विकास और उनकी उचित शिक्षा के लिए सिद्धांत तय किए हैं।

मनोविज्ञान का इतिहास

प्राक्-वैज्ञानिक काल में मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र (Philosophy) की एक शाखा थी। जब विलियम वुण्ट ने 1879 में मनोविज्ञान की पहला प्रयोगशाला खोली, तब मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र के चंगुल से निकलकर एक स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा पा सकने में समर्थ हो सका।

आधुनिक मनोविज्ञान का इतिहास दो प्रमुख धाराओं से मिलकर बना है: वैज्ञानिक मनोविज्ञान और दर्शन मनोविज्ञान।

Manovigyan Ka Itihas

1. वैज्ञानिक मनोविज्ञान:

वैज्ञानिक मनोविज्ञान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में फेक्नर, हेल्मोल्ट्स और वुंट जैसे वैज्ञानिकों के कार्यों से शुरू हुआ। इन वैज्ञानिकों ने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए प्रयोगात्मक तरीकों का इस्तेमाल किया।

  • वुंट: मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला (1879) की स्थापना, मनोविज्ञान को एक विज्ञान के रूप में परिभाषित किया।
  • फेक्नर: मनोदैहिकी के जनक, मनोवैज्ञानिक समस्याओं का वैज्ञानिक अध्ययन।
  • हेल्मोल्त्स: दृष्टि और श्रवण पर महत्वपूर्ण प्रयोगात्मक अनुसंधान।

2. दर्शन मनोविज्ञान:

दर्शन मनोविज्ञान पहले से मौजूद था और डेकार्ट, लॉक, ह्यूम और कांट जैसे दार्शनिकों के विचारों पर आधारित था। इन दार्शनिकों ने मन और चेतना की प्रकृति के बारे में सवालों पर विचार किया।

  • डेकार्ट: आत्मा और शरीर के बीच द्वैतवाद, जन्मजात विचारों की अवधारणा।
  • लायबनीत्स: चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित किया।
  • लॉक: विचारों के स्रोत और परस्पर संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया।
  • ह्यूम: अनुमानों की भूमिका पर बल दिया, कार्य-कारण सिद्धांत को समझाया।

मनोविज्ञान पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव

मनोविज्ञान पर वैज्ञानिक प्रवृत्ति के साथ-साथ दर्शनशास्त्र का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वास्तव में वैज्ञानिक परंपरा बाद में आरंभ हुई। पहले तो प्रयोग या पर्यवेक्षण के स्थान पर विचारविनिमय तथा चिंतन समस्याओं को सुलझाने की सर्वमान्य विधियाँ थीं। मनोवैज्ञानिक समस्याओं को दर्शन के परिवेश में प्रतिपादित करनेवाले विद्वानों में से कुछ के नाम उल्लेखनीय हैं।

डेकार्ट (1596 – 1650) ने मनुष्य तथा पशुओं में भेद करते हुए बताया कि मनुष्यों में आत्मा होती है जबकि पशु केवल मशीन की भाँति काम करते हैं। आत्मा के कारण मनुष्य में इच्छाशक्ति होती है। पिट्यूटरी ग्रंथि पर शरीर तथा आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। डेकार्ट के मतानुसार मनुष्य के कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हे जन्मजात कहा जा सकता है। उनका अनुभव से कोई संबंध नहीं होता।

लायबनीत्स (1646 – 1716) के मतानुसार संपूर्ण पदार्थ “मोनैड” इकाई से मिलकर बना है। उन्होंने चेतनावस्था को विभिन्न मात्राओं में विभाजित करके लगभग दो सौ वर्ष बाद आनेवाले फ्रायड के विचारों के लिये एक बुनियाद तैयार की।

लॉक (1632-1704) का अनुमान था कि मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिये विचारों के स्रोत के विषय में जानना आवश्यक है। उन्होंने विचारों के परस्पर संबंध विषयक सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए बताया कि विचार एक तत्व की तरह होते हैं और मस्तिष्क उनका विश्लेषण करता है। उनका कहना था कि प्रत्येक वस्तु में प्राथमिक गुण स्वयं वस्तु में निहित होते हैं। गौण गुण वस्तु में निहित नहीं होते वरन् वस्तु विशेष के द्वारा उनका बोध अवश्य होता है।

बर्कले (1685-1753) ने कहा कि वास्तविकता की अनुभूति पदार्थ के रूप में नहीं वरन् प्रत्यय के रूप में होती है। उन्होंने दूरी की संवेदनाके विषय में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अभिबिंदुता धुँधलेपन तथा स्वत: समायोजन की सहायता से हमें दूरी की संवेदना होती है। मस्तिष्क और पदार्थ के परस्पर संबंध के विषय में लॉक का कथन था कि पदार्थ द्वारा मस्तिष्क का बोध होता है।

ह्यूम (1711-1776) ने मुख्य रूप से “विचार” तथा “अनुमान” में भेद करते हुए कहा कि विचारों की तुलना में अनुमान अधिक उत्तेजनापूर्ण तथा प्रभावशाली होते हैं। विचारों को अनुमान की प्रतिलिपि माना जा सकता है। ह्यूम ने कार्य-कारण-सिद्धांत के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए आधुनिक मनोविज्ञान को वैज्ञानिक पद्धति के निकट पहुँचाने में उल्लेखनीय सहायता प्रदान की।

हार्टले (1705-1757) का नाम दैहिक मनोवैज्ञानिक दार्शनिकों में रखा जा सकता है। उनके अनुसार स्नायु-तंतुओं में हुए कंपन के आधार पर संवेदना होती है। इस विचार की पृष्ठभूमि में न्यूटन के द्वारा प्रतिपादित तथ्य थे जिनमें कहा गया था कि उत्तेजक के हटा लेने के बाद भी संवेदना होती रहती है। हार्टले ने साहचर्य विषयक नियम बताते हुए सान्निध्य के सिद्धांत पर अधिक जोर दिया।

हार्टले के बाद लगभग 70 वर्ष तक साहचर्यवाद के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ।

रीड (1710-1796) स्काटलैंड, ने वस्तुओं के प्रत्यक्षीकरण का वर्णन करते हुए बताया कि प्रत्यक्षीकरण तथा संवेदना में भेद करना आवश्यक है। किसी वस्तु विशेष के गुणों की संवेदना होती है जबकि उस संपूर्ण वस्तु का प्रत्यक्षीकरण होता है। संवेदना केवल किसी वस्तु के गुणों तक ही सीमित रहती है, किंतु प्रत्यक्षीकरण द्वारा हमें उस पूरी वस्तु का ज्ञान होता है।

कांडिलैक (1715-1780) फ्रांस, ने अनुभववाद तथा ला मेट्री ने भौतिकवाद की प्रवृत्तियों की बुनियाद डाली। कांडिलैंक का कहना था कि संवेदन ही संपूर्ण ज्ञान का “मूल स्त्रोत” है। उन्होंने लॉक द्वारा बताए गए विचारों अथवा अनुभवों को बिल्कुल आवश्यक नहीं समझा।

ला मेट्री (1709-1751) ने कहा कि विचार की उत्पत्ति मस्तिष्क तथा स्नायुमंडल के परस्पर प्रभाव के फलस्वरूप होती है। डेकार्ट की ही भाँति उन्होंने भी मनुष्य को एक मशीन की तरह माना। उनका कहना था कि शरीर तथा मस्तिष्क की भाँति आत्मा भी नाशवान् है। आधुनिक मनोविज्ञान में प्रेरकों की बुनियाद डालते हुए ला मेट्री ने बताया कि सुखप्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है।

जेम्स मिल (1773-1836) तथा बाद में उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल (1806-1873) ने मानसिक रसायनी का विकास किया। इन दोनों विद्वानों ने साहचर्यवाद की प्रवृत्ति को औपचारिक रूप प्रदान किया और वुंट के लिये उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार की।

बेन (1818-1903) के बारे में यही बात लागू होती है। कांट ने समस्याओं के समाधान में व्यक्तिनिष्ठावाद की विधि अपनाई कि बाह्य जगत् के प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत में जन्मजातवाद का समर्थन किया।

हरबार्ट (1776-1841) ने मनोविज्ञान को एक स्वरूप प्रदान करने में महत्वपूण्र योगदान किया। उनके मतानुसार मनोविज्ञान अनुभववाद पर आधारित एक तात्विक, मात्रात्मक तथा विश्लेषात्मक विज्ञान है। उन्होंने मनोविज्ञान को तात्विक के स्थान पर भौतिक आधार प्रदान किया और

लॉत्से (1817-1881) ने इसी दिशा में ओर आगे प्रगति की।

अवश्य पढ़ें : मनोविज्ञान के सिद्धांत और उनके प्रतिपादक या जनक

आधुनिक मनोविज्ञान

आधुनिक मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इसके दो सुनिश्चित रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक तो वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा आविष्कारों द्वारा प्रभावित वैज्ञानिक मनोविज्ञान तथा दूसरा दर्शनशास्त्र द्वारा प्रभावित दर्शन मनोविज्ञान। वैज्ञानिक मनोविज्ञान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से आरंभ हुआ है।

सन् 1860 ई में फेक्नर (1801-1887) ने जर्मन भाषा में एलिमेंट्स आव साइकोफ़िज़िक्स” (इसका अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है) नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें कि उन्होंने मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक पद्धति के परिवेश में अध्ययन करने की तीन विशेष प्रणालियों का विधिवत् वर्णन किया : मध्य त्रुटि विधि, न्यूनतम परिवर्तन विधि तथा स्थिर उत्तेजक भेद विधि। आज भी मनोवैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इन्हीं प्रणालियों के आधार पर अनेक महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जाते हैं।

वैज्ञानिक मनोविज्ञान में फेक्नर के बाद दो अन्य महत्वपूर्ण नाम है : हेल्मोलत्स (1821-1894) तथा विल्हेम वुण्ट (1832-1920)

हेल्मोलत्स ने अनेक प्रयोगों द्वारा दृष्टीर्द्रिय विषयक महत्वपूर्ण नियमों का प्रतिपादन किया। इस संदर्भ में उन्होंने प्रत्यक्षीकरण पर अनुसंधान कार्य द्वारा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक अस्तित्व ऊपर उठाया।

वुंट का नाम मनोविज्ञान में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने सन् 1879 ई में लिपज़िग विश्वविद्यालय (जर्मनी) में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला स्थापित की। मनोविज्ञान का औपचारिक रूप परिभाषित किया। लाइपज़िग की प्रयोगशाला में वुंट तथा उनके सहयोगियों ने मनोविज्ञान की विभिन्न समस्याओं पर उल्लेखनीय प्रयोग किए, जिसमें समय-अभिक्रिया विषयक प्रयोग विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

क्रियाविज्ञान के विद्वान् हेरिंग (1834-1918), भौतिकी के विद्वान् मैख (1838-1916) तथा जी ई म्यूलर (1850 से 1934) के नाम भी उल्लेखनीय हैं। हेरिंग घटना-क्रिया-विज्ञान के प्रमुख प्रवर्तकों में से थे और इस प्रवृत्ति का मनोविज्ञान पर प्रभाव डालने का काफी श्रेय उन्हें दिया जा सकता है। मैख ने शारीरिक परिभ्रमण के प्रत्यक्षीकरण पर अत्यंत प्रभावशाली प्रयोगात्मक अनुसंधान किए। उन्होंने साथ ही साथ आधुनिक प्रत्यक्षवाद की बुनियाद भी डाली।

जी ई म्यूलर वास्तव में दर्शन तथा इतिहास के विद्यार्थी थे किंतु फेक्नर के साथ पत्रव्यवहार के फलस्वरूप उनका ध्यान मनोदैहिक समस्याओं की ओर गया। उन्होंने स्मृति तथा दृष्टींद्रिय के क्षेत्र में मनोदैहिकी विधियों द्वारा अनुसंधान कार्य किया। इसी संदर्भ में उन्होंने “जास्ट नियम” का भी पता लगाया अर्थात् अगर समान शक्ति के दो साहचर्य हों तो दुहराने के फलस्वरूप पुराना साहचर्य नए की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो जाएगा (“जास्ट नियम” म्यूलर के एक विद्यार्थी एडाल्फ जास्ट के नाम पर है)।

मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का आरम्भ

मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन् 1834 में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया। सन् 1831 में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा विद्युत् के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे।

कुछ वर्षों बाद सन् 1847 में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने रखा। इसके बाद सन् 1856 ई, 1860 ई तथा 1866 ईदृ में उन्होंने “आप्टिक” नामक पुस्तक तीन भागों में प्रकाशित की। सन् 1851 ई तथा सन् 1860 ई में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ (ज़ेंड आवेस्टा तथा एलिमेंटे डेयर साईकोफ़िजिक प्रकाशित किए।

सन् 1858 ई में वुंट हाइडलवर्ग विश्वविद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डाक्टर की उपधि प्राप्त कर चुके थे और सहकारी पद पर क्रियाविज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रहे थे। उसी वर्ष वहाँ बॉन से हेल्मोल्त्स भी आ गए। वुंट के लिये यह संपर्क अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी के बाद उन्होंने क्रियाविज्ञान छोड़कर मनोविज्ञान को अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

वुंट ने अनगिनत वैज्ञानिक लेख तथा अनेक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करके मनोविज्ञान को एक धुँधले एवं अस्पष्ट दार्शनिक वातावरण से बाहर निकाला। उसने केवल मनोवैज्ञानिक समस्याओं को वैज्ञानिक परिवेश में रखा और उनपर नए दृष्टिकोण से विचार एवं प्रयोग करने की प्रवृत्ति का श्रीगणेश किया। उसके बाद से मनोविज्ञान को एक विज्ञान माना जाने लगा। तदनंतर जैसे-जैसे मरीज वैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर प्रयोग किए गए वैसे-वैसे नई नई समस्याएँ सामने आईं।

मनोविज्ञान की सम्प्रदाय एवं शाखाएँ

व्यवहार विषयक नियमों की खोज ही मनोविज्ञान का मुख्य ध्येय था। सैद्धांतिक स्तर पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए। मनोविज्ञान के क्षेत्र में सन् 1912 के आसपास संरचनावाद, क्रियावाद, व्यवहारवाद, गेस्टाल्टवाद तथा मनोविश्लेषण आदि मुख्य मुख्य शाखाओं का विकास हुआ। इन सभी वादों के प्रवर्तक इस विषय में एकमत थे कि मनुष्य के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन ही मनोविज्ञान का उद्देश्य है। उनमें परस्पर मतभेद का विषय था कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने का सबसे अच्छा ढंग कौन सा है।

सरंचनावाद के अनुयायियों का मत था कि व्यवहार की व्याख्या के लिये उन शारीरिक संरचनाओं को समझना आवश्यक है जिनके द्वारा व्यवहार संभव होता है। क्रियावाद के माननेवालों का कहना था कि शारीरिक संरचना के स्थान पर प्रेक्षण योग्य तथा दृश्यमान व्यवहार पर अधिक जोर होना चाहिए।

इसी आधार पर बाद में वाटसन ने व्यवहारवाद की स्थापना की। गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षीकरण को व्यवहारविषयक समस्याओं का मूल आधार माना। व्यवहार में सुसंगठित रूप से व्यवस्था प्राप्त करने की प्रवृत्ति मुख्य है, ऐसा उनका मत था। फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद की स्थापना द्वारा यह बताने का प्रयास किया कि हमारे व्यवहार के अधिकांश कारण अचेतन प्रक्रियाओं द्वारा निर्धारित होते हैं।

Manovigyan Ke Sampraday Vad

मनोविज्ञान के सम्प्रदाय-

  1. 1879, प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, संरचनावाद – डब्ल्यू वुन्ट
  2. 1896, मनोविश्लेषण – सिग्मण्ड फ्रॉयड
  3. 1913, व्यवहारवाद – जॉन ब्रोडस वाट्सन
  4. 1954, रेशनल इमोटिव बिहेविअरल थिरैपी – अल्बर्ट एलिस
  5. 1960, संज्ञानात्मक चिकित्सा – आरोन टी बैक
  6. 1967, संज्ञानात्मक मनोविज्ञान – उल्रिक नाइजर
  7. 1962, मानववादी मनोविज्ञान – अमेरिकन एसोशिएशन ऑफ ह्युमनिस्टिक साइकोलॉजी
  8. 1940, गेस्ताल्तवाद – फ्रिट्ज पर्ल्स

आधुनिक मनोविज्ञान में इन सभी “वादों” का अब एकमात्र ऐतिहासिक महत्व रह गया है। इनके स्थान पर मनोविज्ञान में अध्ययन की सुविधा के लिये विभिन्न शाखाओं का विभाजन हो गया है।

प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्हीं समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाने लगा जिन्हें दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचारविमर्श द्वारा सुलझाते थे। अर्थात् संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन भी होने लगा। प्रयोगात्मक मनोविज्ञान, आधुनिक मनोविज्ञान की प्राचीनतम शाखा है।

मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में रखा जा सकता है, साथ ही साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भाँति जटिल नहीं होती। पशुओं पर प्रयोग करके व्यवहार संबंधी नियमों का ज्ञान सुगमता से हो सकता है।

सन् 1912 ई के लगभग थॉर्नडाइक ने पशुओं पर प्रयोग करके तुलनात्मक अथवा पशु मनोविज्ञान का विकास किया। किंतु पशुओं पर प्राप्त किए गए परिणाम कहाँ तक मनुष्यों के विषय में लागू हो सकते हैं, यह जानने के लिये विकासात्मक क्रम का ज्ञान भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त व्यवहार के नियमों का प्रतिपादन उसी दशा में संभव हो सकता है जब कि मनुष्य अथवा पशुओं के विकास का पूर्ण एवं उचित ज्ञान हो। इस संदर्भ को ध्यान में रखते हुए विकासात्मक मनोविज्ञान का जन्म हुआ।

सन् 1912 ई के कुछ ही बाद मैक्डूगल (1871-1938) के प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज मनोविज्ञान की स्थापना हुई, यद्यपि इसकी बुनियाद समाज वैज्ञानिक हरबर्ट स्पेंसर (1820-1903) द्वारा बहुत पहले रखी जा चुकी थी।

धीरे-धीरे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं पर मनोविज्ञान का प्रभाव अनुभव किया जाने लगा। आशा व्यक्त की गई कि मनोविज्ञान अन्य विषयों की समस्याएँ सुलझाने में उपयोगी हो सकता है। साथ ही साथ, अध्ययन की जानेवाली समस्याओं के विभिन्न पक्ष सामने आए।

परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की नई-नई शाखाओं का विकास होता गया। इनमें से कुछ ने अभी हाल में ही जन्म लिया है, जिनमें प्रेरक मनोविज्ञान, सत्तात्मक मनोविज्ञान, गणितीय मनोविज्ञान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

मनोविज्ञान की मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त – दोनों प्रकार की शाखाएं हैं।

इसकी महत्वपूर्ण शाखाएं सामाजिक एवं पर्यावरण मनोविज्ञान, संगठनात्मक व्यवहार/मनोविज्ञान, क्लीनिकल (निदानात्मक) मनोविज्ञान, मार्गदर्शन एवं परामर्श, औद्योगिक मनोविज्ञान, विकासात्मक, आपराधिक, प्रायोगिक परामर्श, पशु मनोविज्ञान आदि है। अलग-अलग होने के बावजूद ये शाखाएं परस्पर संबद्ध हैं।

1. नैदानिक मनोविज्ञान

न्यूरोटिसिज्म, साइकोन्यूरोसिस, साइकोसिस जैसी क्लीनिकल समस्याओं एवं शिजोफ्रेनिया, हिस्टीरिया, ऑब्सेसिव-कंपलसिव विकार जैसी समस्याओं के कारण क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। ऐसे मनोवज्ञानिक का प्रमुख कार्य रोगों का पता लगाना और निदानात्मक तथा विभिन्न उपचारात्मक तकनीकों का इस्तेमाल करना है।

2. विकास मनोविज्ञान

विकास मनोविज्ञान में जीवन भर घटित होनेवाले मनोवैज्ञानिक संज्ञानात्मक तथा सामाजिक घटनाक्रम शामिल हैं। इसमें शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान व्यवहार या वयस्क से वृद्धावस्था तक होने वाले परिवर्तन का अध्ययन होता है। पहले इसे बाल मनोविज्ञान” भी कहते थे।

3. आपराधिक मनोविज्ञान

चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है, जहां अपराधियों के व्यवहार विशेष के संबंध में कार्य किया जाता है। अपराध शास्त्र, मनोविज्ञान आपराधिक विज्ञान की शाखा है, जो अपराध तथा संबंधित तथ्यों की तहकीकात से जुड़ी है।

पशु मनोविज्ञान एक अद्भुत शाखा है।

मनोविज्ञान की प्रमुख शाखाएँ हैं –

  • असामान्य मनोविज्ञान (Abnormal psychology)
  • जीववैज्ञानिक मनोविज्ञान (Biological psychology)
  • नैदानिक मनोविज्ञान (Clinical psychology)
  • संज्ञानात्मक मनोविज्ञान (Cognitive psychology)
  • सामुदायिक मनोविज्ञान (Community Psychology)
  • तुलनात्मक मनोविज्ञान (Comparative psychology)
  • परामर्श मनोविज्ञान (Counseling psychology)
  • आलोचनात्मक मनोविज्ञान (Critical psychology)
  • विकासात्मक मनोविज्ञान (Developmental psychology)
  • शैक्षिक मनोविज्ञान (Educational psychology)
  • विकासात्मक मनोविज्ञान (Evolutionary psychology)
  • आपराधिक मनोविज्ञान (Forensic psychology)
  • वैश्विक मनोविज्ञान (Global psychology)
  • स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Health psychology)
  • औद्योगिक एवं संगठनात्मक मनोविज्ञान (Industrial and organizational psychology (I/O)
  • विधिक मनोविज्ञान (Legal psychology)
  • व्यावसायिक स्वास्थ्य मनोविज्ञान (Occupational health psychology (OHP)
  • व्यक्तित्व मनोविज्ञान (Personality psychology)
  • संख्यात्मक मनोविज्ञान (Quantitative psychology)
  • मनोमिति (Psychometrics)
  • गणितीय मनोविज्ञान (Mathematical psychology)
  • सामाजिक मनोविज्ञान (Social psychology)
  • विद्यालयीन मनोविज्ञान (School psychology)
  • पर्यावरणीय मनोविज्ञान (Environmental psychology)
  • योग मनोविज्ञान (Yoga Psychology)
  • मनोविज्ञान का स्वरूप एवं कार्यक्षेत्र (Nature and Scope of Psychology)

मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र (scope) को सही ढंग से समझने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण श्रेणी वह श्रेणी है जिससे यह पता चलता है कि मनोविज्ञानी क्या चाहते हैं ?

किये गये कार्य के आधार पर मनोविज्ञानियों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:-

  1. पहली श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को रखा जाता है जो शिक्षण कार्य में व्यस्त हैं,
  2. दूसरी श्रेणी में उन मनोवैज्ञानियों को रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक समस्याओं पर शोध करते हैं तथा
  3. तीसरी श्रेणी में उन मनोविज्ञानियों को रखा जाता है जो मनोविज्ञानिक अध्ययनों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर कौशलों एवं तकनीक का उपयोग वास्तविक परिस्थिति में करते हैं।

इस तरह से मनोविज्ञानियों का तीन प्रमुख कार्यक्षेत्र है:-

  1. शिक्षण (teaching)
  2. शोध (research)
  3. उपयोग (application)

इन तीनों कार्यक्षेत्रों से सम्बन्धित मुख्य तथ्यों का वर्णन निम्नांकित है-

शैक्षिक क्षेत्र (Academic areas)

शिक्षण तथा शोध मनोविज्ञान का एक प्रमुख कार्य क्षेत्र है। इस दृष्टिकोण से इस क्षेत्र के तहत निम्नांकित शाखाओं में मनोविज्ञानी अपनी अभिरुचि दिखाते हैं-

  1. जीवन-अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान (Life-span development Psychology)
  2. मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Human experimental Psychology)
  3. पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान (Animal experimental Psychology)
  4. दैहिक मनोविज्ञान (Psychological Psychology)
  5. परिणात्मक मनोविज्ञान (Quantitative Psychology)
  6. व्यक्तित्व मनोविज्ञान (Personality Psychology)
  7. समाज मनोविज्ञान (Social Psychology)
  8. शिक्षा मनोविज्ञान (Educational Psychology)
  9. संज्ञात्मक मनोविज्ञान (Cognitive Psychology)
  10. असामान्य मनोविज्ञान (Abnormal Psychology)

जीवन-अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान

बाल मनोविज्ञान का प्रारंभिक संबंध मात्र बाल विकास के अध्ययन से था परंतु हाल के वर्षों में विकासात्मक मनोविज्ञान में किशोरावस्था, वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था के अध्ययन पर भी बल डाला गया है। यही कारण है कि इसे ‘जीवन अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान‘ कहा जाता है।

विकासात्मक मनोविज्ञान में मनोविज्ञान मानव के लगभग प्रत्येक क्षेत्र जैसे- बुद्धि, पेशीय विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, खेल, भाषा विकास का अध्ययन विकासात्मक दृष्टिकोण से करते हैं। इसमें कुछ विशेष कारक जैसे- आनुवांशिकता, परिपक्वता, पारिवारिक पर्यावरण, सामाजिक-आर्थिक अन्तर का व्यवहार के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है।

कुल मनोविज्ञानियों का 5% मनोवैज्ञानिक विकासात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत हैं।

मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान

मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ मानव के उन सभी व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है जिस पर प्रयोग करना सम्भव है। सैद्धान्तिक रूप से ऐसे तो मानव व्यवहार के किसी भी पहलू पर प्रयोग किया जा सकता है परंतु मनोविज्ञानी उसी पहलू पर प्रयोग करने की कोशिश करते हैं जिसे पृथक किया जा सके तथा जिसके अध्ययन की प्रक्रिया सरल हो। इस तरह से दृष्टि, श्रवण, चिन्तन, सीखना आदि जैसे व्यवहारों का प्रयोगात्मक अध्ययन काफी अधिक किया गया है।

मानव प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में उन मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी अभिरुचि दिखलाया है जिन्हें प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का संस्थापक कहा जाता है। इनमें विलियम वुण्ट, टिचेनर तथा वाटसन आदि के नाम अधिक मशहूर हैं।

पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान

मनोविज्ञान का यह क्षेत्र मानव प्रयोगात्मक विज्ञान (Human experimental Psychology) के समान है। सिर्फ अन्तर इतना ही है कि यहाँ प्रयोग पशुओं जैसे- चूहों, बिल्लियों, कुत्तों, बन्दरों, वनमानुषों आदि पर किया जाता है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में अधिकतर शोध सीखने की प्रक्रिया तथा व्यवहार के जैविक पहलुओं के अध्ययन में किया गया है। पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में स्कीनर, गथरी, पैवलव, टॉलमैन आदि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है।

सच्चाई यह है कि सीखने के आधुनिक सिद्घान्त तथा मानव व्यवहार के जैविक पहलू के बारे में हम आज जो कुछ भी जानते हैं, उसका आधार पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान ही है। इस मनोविज्ञान में पशुओं के व्यवहारों को समझने की कोशिश की जाती है।

कुछ लोगों का मत है कि यदि मनोविज्ञान का मुख्य संबंध मानव व्यवहार के अध्ययन से है तो पशुओं के व्यवहारों का अध्ययन करना कोई अधिक तर्कसंगत बात नहीं दिखता।

परंतु मनोविज्ञानियों के पास कुछ ऐसी बाध्यताएँ हैं जिनके कारण वे पशुओं के व्यवहार में अभिरुचि दिखलाते हैं। जैसे पशु व्यवहार का अध्ययन कम खर्चीला होता है। फिर कुछ ऐसे प्रयोग हैं जो मनुष्यों पर नैतिक दृष्टिकोण से करना संभव नहीं है तथा पशुओं का जीवन अवधि (life span) का लघु होना प्रमुख ऐसे कारण हैं।

मानव एवं पशु प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में कुछ मनोविज्ञानियों की संख्या का करीब 14% मनोविज्ञानी कार्यरत है।

दैहिक मनोविज्ञान

दैहिक मनोविज्ञान में मनोविज्ञानियों का कार्यक्षेत्र प्राणी के व्यवहारों के दैहिक निर्धारकों (Physical determinants) तथा उनके प्रभावों का अध्ययन करना है। इस तरह के दैहिक मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो जैविक विज्ञान (biological science) से काफी जुड़ा हुआ है। इसे मनोजीवविज्ञान (Psycho-biology) भी कहा जाता है।

आजकल मस्तिष्कीय कार्य (brain functioning) तथा व्यवहार के संबंधों के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों की रुचि अधिक हो गयी है। इससे एक नयी अन्तरविषयक विशिष्टता (interdisciplinary specialty) का जन्म हुआ है जिसे ‘न्यूरोविज्ञान’ (neuroscience) कहा जाता है। इसी तरह के दैहिक मनोविज्ञान हारमोन्स (hormones) का व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन में भी अभिरुचि रखते हैं।

आजकल विभिन्न तरह के औषध (drug) तथा उनका व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभावों का भी अध्ययन दैहिक मनोविज्ञान में किया जा रहा है। इससे भी एक नयी विशिष्टता (new specialty) का जन्म हुआ है जिसे मनोफर्माकोलॉजी (Psychopharmacology) कहा जाता है तथा जिसमें विभिन्न औषधों के व्यवहारात्मक प्रभाव (behavioural effects) से लेकर तंत्रीय तथा चयापचय (metabolic) प्रक्रियाओं में होने वाले आणविक शोध (molecular research) तक का अध्ययन किया जाता है।

शैक्षिक मनोविज्ञान

शैक्षिक मनोविज्ञान वह शाखा है जिसमें मानव शैक्षिक वातावरण में सीखने के तरीके और शैक्षणिक क्रियाकलापों को बेहतर बनाने का अध्ययन किया जाता है। ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ दो शब्दों का संयोजन है – ‘शिक्षा’ और ‘मनोविज्ञान’। इसका शाब्दिक अर्थ है – शिक्षा से संबंधित मनोविज्ञान। यह मनोविज्ञान का व्यावहारिक रूप है और शिक्षा की प्रक्रिया में मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। इसके माध्यम से शैक्षिक समस्याओं का वैज्ञानिक और संगठित समाधान किया जाता है। शिक्षा के सभी पहलुओं जैसे शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन, अनुशासन आदि पर मनोविज्ञान का प्रभाव होता है।

शैक्षिक मनोविज्ञान का मुख्य उद्देश्य शिक्षा और सीखने की प्रक्रिया को सुधारने में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का उपयोग करना है। यह शाखा शिक्षा और सीखने के अभियान्त्रिकीकरण को बढ़ावा देने का प्रयास करती है और व्यक्ति की क्षमताओं और पसंदों का मूल्यांकन करती है। इस प्रकार, शैक्षिक मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है और शिक्षा और सीखने की प्रक्रिया को सुधारने में सहायक होता है।

Shiksha Manovigyan

शिक्षा मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो शिक्षा की समस्याओं का विवेचन, विश्लेषण एवं समाधान करता है। शिक्षा, मनोविज्ञान से कभी पृथक नहीं रही है। मनोविज्ञान चाहे दर्शन के रूप में रहा हो, उसने शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का विकास करने में सहायता की है।

  1. स्किनर के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान, शैक्षणिक परिस्थितियों में मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता है। शिक्षा मनोविज्ञान अपना अर्थ शिक्षा से, जो सामाजिक प्रक्रिया है और मनोविज्ञान से, जो व्यवहार संबंधी विज्ञान है, ग्रहण करता है।
  2. क्रो एवं क्रो के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक सीखने सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।
  3. जेम्स ड्रेवर के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान व्यावहारिक मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतो तथा खोजों के प्रयोग के साथ ही शिक्षा की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक अध्यन से सम्बंधित है।
  4. ऐलिस क्रो के अनुसार : शैक्षिक मनोविज्ञान मानव प्रतिक्रियाओं के शिक्षण और सीखने को प्रभावित वैज्ञानिक दृष्टि से व्युत्पन्न सिद्धांतों के अनुप्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत में में शिक्षा का अर्थ ज्ञान से लगाया जाता है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा के समुचित विकास से है।

शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए स्किनर ने अधोलिखित तथ्यों की ओर संकेत किया हैः-

  1. शिक्षा मनोविज्ञान का केन्द्र, मानव व्यवहार है।
  2. शिक्षा मनोविज्ञान खोज और निरीक्षण से प्राप्त किए गए तथ्यों का संग्रह है।
  3. शिक्षा मनोविज्ञान में संग्रहीत ज्ञान को सिद्धांतों का रूप प्रदान किया जा सकता है।
  4. शिक्षा मनोविज्ञान ने शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए अपनी स्वयं की पद्धतियों का प्रतिपादन किया है।
  5. शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धांत और पद्धतियां शैक्षिक सिद्धांतों और प्रयोगों को आधार प्रदान करते है।

शिक्षा मनोविज्ञान की आवश्यकता

कैली ने शिक्षा मनोविज्ञान की आवश्यकता को निम्नानुसार बताया हैः-

  1. बालक के स्वभाव का ज्ञान प्रदान करने हेतु,
  2. बालक को अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने के लिए,
  3. शिक्षा के स्वरूप, उद्देश्यों और प्रयोजनों से परिचित करना,
  4. सीखने और सिखाने के सिद्धांतों और विधियों से अवगत कराना,
  5. संवेगों के नियंत्रण और शैक्षिक महत्व का अध्ययन,
  6. चरित्र निर्माण की विधियों और सिद्धांतों से अवगत कराना,
  7. विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों में छात्र की योग्यताओं का माप करने की विधियों में प्रशिक्षण देना,
  8. शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों और सिद्धांतों की जानकारी के लिए प्रयोग की जाने वाली वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान प्रदान करना।

प्रमुख शिक्षा-मनोवैज्ञानिक

  1. विलियम जेम्स (1800–1899)
  2. इवान पावलाव (1849-1936)
  3. जॉन डीवी (1859-1952)
  4. मारिया मान्टेसर (1870-1952)
  5. ऐडवर्ड थॉर्नडाइक (1874-1940)
  6. जॉन बी वाट्सन (1878-1958)
  7. कुर्त लेविन (1890-1947)
  8. जीन पियाजे (Jean Piaget / 1896-1980)
  9. लिव वाइगोत्सकी (1896-1934)
  10. कार्ल रैंसम रोजर्स (Carl Ransom Rogers, 1902-1987)
  11. बी एफ स्किनर (B. F. Skinner, 1904-1990)
  12. अब्राहम मासलो (Abraham Maslow, 1908-1970)
  13. बेंजामिन ब्लूम (Benjamin Samuel Bloom, 1913-1999)
  14. नोआम चाम्सकी (Noam Chomsky, 1928 से अब तक)

शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र

शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में स्किनर ने लिखा है कि शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वह सभी ज्ञान तथा प्रविधियाँ (तक्नीकें) से सम्बंधित है जो सीखने की प्रक्रिया को अच्छी प्रकार से समझाने तथा अधिक निपुणता से निर्धारित करने से सम्बंधित हैं। आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञानिकों के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र निम्न प्रकार है-

  1. वंशानुक्रम (Heredity)
  2. विकास (Development)
  3. व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences)
  4. व्यक्तित्व (Personality)
  5. विशिष्ट बालक (Exceptional Child)
  6. अधिगम प्रक्रिया (Learning Process)
  7. पाठ्यक्रम निर्माण (Curriculum Development)
  8. मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health)
  9. शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
  10. निर्देशन एवं परामर्श (Guidance and Counseling)
  11. व्यक्तित्व मापन एवं मूल्यांकन (Measurement and Evaluation)
  12. समूह गतिशीलता (Group Dynamics)
  13. अनुसन्धान (Research)
  14. किशोरावस्था (Adolescence)

शिक्षा में मनोविज्ञान का महत्व

शिक्षा की महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान में मनोविज्ञान सहायक होता है और यही सब समस्याएं व उनका समाधान शिक्षा मनोविज्ञान का कार्यक्षेत्र बनते हैं –

  • शिक्षा कौन दे, अर्थात् शिक्षक कैसा हो? मनोविज्ञान शिक्षक को अपने छात्रों को समझने में सहायता प्रदान करता है साथ ही यह भी बताता है कि शिक्षक को छात्रों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। शिक्षक का व्यवहार पक्षपात रहित हो। उसमें सहनशीलता, धैर्य व अर्जनात्मक शक्ति होनी चाहिए।
  • विकास की विशेषताएं समझने में सहायता देता है। प्रत्येक छात्र विकास की कुछ निश्चित अवस्थाओं से गुजरता है जैसे शैशवास्था (0-2 वर्ष) बाल्यावस्था (3-12 वर्ष) किशोरावस्था (13-18 वर्ष) प्रौढ़ावस्था (18-21 वर्ष)। विकास की दृष्टि से इन अवस्थाओं की विशिष्ट विशेषताएं होती हैं। यदि शिक्षक इन विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताओं से परिचित होता है वह अपने छात्रों को भली प्रकार समझ सकता है और छात्रों को उसी प्रकार निर्देशन देकर उनको लक्ष्य प्राप्ति में सहायता कर सकता है।
  • शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान शिक्षक को सीखने की प्रक्रिया से परिचित कराता है। ऐसा देखा जाता है कि कुछ शिक्षक कक्षा में पढ़ाते समय अधिक सफल साबित होते हैं तथा कुछ अपने विषय पर अच्छा ज्ञान होने पर भी कक्षा शिक्षण में असफल होते हैं। प्रभावपूर्ण ढंग से शिक्षण करने के लिए शिक्षक को सीखने के विभिन्न सिद्धान्तों का ज्ञान, सीखने की समस्याओं एवं सीखने को प्रभावित करने वाले कारणों और उनको दूर करने के उपायों की जानकारी होनी चाहिए। तभी वह छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित कर सकता है।
  • शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान कराता है। संसार के कोई भी दो व्यक्ति बिल्कुल एक से नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति अपने में विशिष्ट व्यक्ति है। एक कक्षा में शिक्षक को 30 से लेकर 50 छात्रों को पढ़ाना होता है जिनमें अत्यधिक व्यक्तिगत भिन्नता होती है। यदि शिक्षक को इस बात का ज्ञान हो जाए तो वह अपना शिक्षण सम्पूर्ण छात्रों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला बना सकता है।
  • व्यक्ति के विकास पर वंशानुक्रम एवं वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है, यह मनोविज्ञान बताता है। वंशानुक्रम किसी भी गुण की सीमा निर्धारित करता है और वातावरण उस गुण का विकास उसी सीमा तक करता है। अच्छा वातावरण भी गुण को उस सीमा के आगे विकसित नहीं कर सकता।
  • पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता – विभिन्न स्तरों के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त सहायता पहुंचाते हैं। छात्रों की आवश्यकताओं, उनके विकास की विशेषताओं, सीखने के तरीके व समाज की आवश्यकताएं – यह सब पाठ्यक्रम में परिलक्षित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में व्यक्ति व समाज दोनों की आवश्यकताओं को सम्मिश्रित रूप में रखना चाहिए।
  • मनोविज्ञान विशिष्ट बालकों की समस्याओं एवं आवश्यकताओं का ज्ञान शिक्षक को देता है जिससे शिक्षक इन बच्चों को अपनी कक्षा में पहचान सकें। उनको आवश्यकतानुसार मदद कर सकें। उनके लिए विशेष कक्षाओं का आयोजन कर सकें व परामर्श दे सकें।
  • मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान भी शिक्षक के लिए लाभकारी होता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षणों को पहचानना तथा ऐसा प्रयास करना कि उनकी इस स्वस्थता को बनाए रखा जा सके।
  • मापन व मूल्यांकन के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का ज्ञान भी मनोविज्ञान से मिलता है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली से उत्पन्न छात्रों में डर, चिन्ता, नकारात्मक प्रवृत्ति जैसे आत्महत्या करने से छात्रों के व्यक्तित्व का विघटन साथ ही समाज का भी विघटन होता है। अतः सीखने के परिणामों का उचित मूल्यांकन करना तथा उपचारात्मक शिक्षण देना शिक्षक का ध्येय होना चाहिए।
  • शिक्षा मनोविज्ञान समूह गतिकी (ग्रुप डायनेमिक्स) का ज्ञान कराता है। वास्तव में शिक्षक एक अच्छा पथ-प्रदर्शक, निर्देशक व कुशल नेता होता है। समूह गतिकी के ज्ञान से वह कक्षा रूपी समूह को भली प्रकार संचालित कर सकता है और छात्रों के सर्वांगीण विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकता है।
  • शिक्षा मनोविज्ञान बच्चों को शिक्षित करने सम्बन्धी विभिन्न विधियों के बारे में अध्ययन करता है और खोज करता है कि विभिन्न विषयों जैसे गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भाषा, साहित्य को सीखने से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्त क्या हैं।
  • शिक्षा मनोविज्ञान विभिन्न प्रकार के रूचिकर प्रश्नों – जैसे, बच्चे भाषा का प्रयोग करना कैसे सीखते हैं या बच्चों द्वारा बनायी गयी ड्राइंग का शैक्षिक महत्व क्या होता है- पर भी विचार करता है।

केली (Kelly) ने शिक्षा मनोविज्ञान के कार्यो का निम्न प्रकार विश्लेषण किया है –

  1. बच्चें की प्रकृति के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
  2. शिक्षा की प्रकृति एवं उद्देश्यों को समझने में सहायता प्रदान करता है।
  3. ऐसे वैज्ञानिक विधियों व प्रक्रियाओं को समझाता है जिनका शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों एवं सिद्धान्तों को निकालने में उपयोग किया जाता है।
  4. शिक्षण एवं अधिगम के सिद्धान्तों एवं तकनीकों को प्रस्तुत करता है।
  5. विद्यालयी विषयों में उपलब्धि एवं छात्रों की योग्यताओं को मापने की विधियों में प्रशिक्षण देता है।
  6. बच्चों के वृद्धि एवं विकास के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
  7. बच्चों के अच्छे समायोजन में सहायता प्रदान करता है और कुसमायोजन से बचाता है।

शिक्षा और मनोविज्ञान का संबंध

शिक्षा मनोविज्ञान का सम्बन्ध सीखने एवं सीखाने की विधियों अर्थात पढ़ाने से है। शिक्षा तथा मनोविज्ञान ज्ञान की दो स्पष्ट शाखाएं है, परंतु इन दोनो का परस्पर घनिष्ठ संबंध हैं आधुनिक शिक्षा का आधार मनोविज्ञान है। बच्चे को उसकी रूचियों, रूझानों, सम्भावनाओं तथा व्यक्तित्व का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके शिक्षा दी जाती है। आज शिक्षा तथा मनोविज्ञान एक दूसरे के पूरक है।

स्किनर का मत है कि “शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा का एक आवश्यकतत्व है। इसकी सहायता के बिना शिक्षा की गुत्थी सुलझाई नहीं जा सकती। शिक्षा तथा मनोविज्ञान दोनों का संबंध व्यवहार के साथ है। मनोविज्ञान की खोजों की शिक्षा के दूसरे पहलुओं पर गहरी छाप है।”

शिक्षा तथा मनोविज्ञान सिद्धांत तथा व्यवहार का समन्वय है, शिक्षा तथा मनोविज्ञान का पारस्परिक संबंध का ज्ञान मानव के समन्वित संतुलित विकास के लिये आवश्यक है। शिक्षा के समान कार्य, मनोविज्ञान क सिद्धांतों पर आधारित है।

क्रो एण्ड क्रो के अनुसार “मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान हैं।” मनोविज्ञान सीखने से संबंधित मानव विकास की व्याख्या करता है। शिक्षा, सीखने की प्रक्रिया को करने की चेष्टा प्रदान करती है।

शिक्षा मनोविज्ञान सीखने से क्यों और कब से संबंधित है?

शिक्षा और मनोविज्ञान को जोड़ने वाली कड़ी है “मानव व्यवहार“। इस संबंध में दो विद्वानों के विचार दृष्टव्य है-

  1. ब्राउन– “शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है।”
  2. पिल्सबरी– “मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है।”

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षा और मनोविज्ञान दोनों का संबंध मानव व्यवहार से है। शिक्षा मानव व्यवहार में परिवर्तन करके उसे उत्तम बनाती है। मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। इस प्रकार शिक्षा और मनोविज्ञान के संबंध होना स्वाभाविक है पर इस संबंध में मनोविज्ञान को आधार प्रदान करता है। शिक्षा को अपने प्रत्येक कार्य के लिए मनोविज्ञान की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती है।

बी.एन. झा ने ठीक ही लिखा है- “शिक्षा जो कुछ करती है और जिस प्रकार वह किया जाता है उसके लिये इसे मनोवैज्ञानिक खोजों पर निर्भर होना पड़ता है।”

मनोविज्ञान को यह स्थान इसलिए प्राप्त हुआ है क्योंकि उसने शिक्षा के सब क्षेत्रों को प्रभावित करके उनमें क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है।

इस संदर्भ में रायन के ये सारगर्भित वाक्य उल्लेखनीय है-

आधुनिक समय के अनेक विद्यालयों में हम भिन्नता और संघर्ष का वातावरण पाते है। अब इनमें परम्परागत, औपचारिकता, मजबूर, मौन, तनाव और दण्ड की अधिकता दर्शित नहीं होती है। यह सब शिक्षा मनोविज्ञान के उपयोग के कारण संभव हुआ है।

मनोविज्ञान का शिक्षा के साथ संबंध

  1. मनोविज्ञान तथा शिक्षा के उद्देश्य – मनोविज्ञान के द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है अथवा नहीं। शिक्षक ने अपने उद्देश्य में कितनी सफलता प्राप्त की है यह भी मनोविज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है।
  2. मनोविज्ञान तथा पाठ्यक्रम – मनोविज्ञान ने बालक के सर्वागींण विकास में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को महत्वपूर्ण बनाया है। इसीलिये विद्यालयों में खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की विषेष रूप से व्यवस्था की जाती है।
  3. मनोविज्ञान तथा पाठ्य पुस्तकें – पाठ्य पुस्तकों का निर्माण बालक की आयु, रूचियों और मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिये।
  4. मनोविज्ञान तथा समय सारणी – शिक्षा में मनोविज्ञान द्वारा दिया जाने वाला मुख्य सिद्धान्त है कि नवीन ज्ञान का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिये।
  5. मनोविज्ञान तथा शिक्षा विधियां – मनोविज्ञान के द्वारा शिक्षण विधियों में बालक के स्वयं सीखने पर बल दिया गया। इस उद्देश्य से ‘करके सीखना’, खेल द्वारा सीखना, रेड़ियो पर्यटन, चलचित्र आदि को शिक्षण विधियों में स्थान दिया गया।
  6. मनोविज्ञान तथा अनुशासन – मनोविज्ञान द्वारा प्रेम, प्रशंसा और सहानुभूति को अनुशासन के लिये एक अच्छा आधार माना है।
  7. मनोविज्ञान तथा अनुसंधान – मनोविज्ञान ने सीखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में खोज करके अनेक अच्छे नियम बनायें हैं। इनका प्रयोग करने से बालक कम समय में और अधिक अच्छी प्रकार से सीख सकता है।
  8. मनोविज्ञान तथा परीक्षायें – मनोविज्ञान द्वारा बुद्धि परीक्षा, व्यक्तित्व परीक्षा तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षा जैसी नई विधियों को मूल्यांकन के लिये चयनित किया गया है।
  9. मनोविज्ञान तथा अध्यापक – शिक्षा में तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं – बालक तथा शिक्षक का सम्बन्ध, बालक और समाज का सम्बन्ध तथा बालक और विषय का सम्बन्ध। शिक्षा में सफलता तभी मिल सकती है जब इन तीनों का सम्बन्ध उचित हो।

मनोविज्ञान का शिक्षा में योगदान

संक्षेप में मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित योगदान किया है-

  1. बालक का महत्व
  2. बालकों की विभिन्न अवस्थाओं का महत्व
  3. बालकों की रूचियों व मूल प्रवृत्तियों का महत्व
  4. बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का महत्व
  5. पाठ्यक्रम में सुधार
  6. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं पर बल
  7. सीखने की प्रक्रिया में उन्नति
  8. मूल्यांकन की नई विधियां
  9. शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति व सफलता
  10. नये ज्ञान का आधारपूर्ण ज्ञान

शिक्षा की समस्याएं उसके उद्देश्यों, विषय वस्तु, साधनों एवं विधियों से सम्बन्धित है। मनोविज्ञान इन चारों क्षेत्रों में समस्याओं को सुलझाने में सहायता प्रदान करता है-

1. शिक्षा मनोविज्ञान के उद्देश्य

शिक्षा मनोविज्ञान का उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करना है। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का अधिकतम संभव, सहज, स्वभाविक तथा सर्वांगीण विकास करके उसे समाज का एक उपयोगी नागरिक बनाना है। मनोविज्ञान शिक्षा के उद्देश्यों को अच्छी तरह से समझने में निम्न प्रकार सहायता प्रदान करता है।

  1. उद्देश्यों को परिभाषित करके – उदाहरणार्थ जैसे कि शिक्षा का एक उद्देश्य है अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करना। इसमें अच्छे नागरिक से क्या तात्पर्य है। अतः अच्छे नागरिक को व्यवहारिक रूप में परिभाषित करना चाहिए।
  2. उद्देश्यों को स्पष्ट करके – उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार व्यक्ति के कौन से व्यवहार अथवा लक्षण अच्छे नागरिक में होने चाहिए। अर्थात् ऐसे कौन से व्यवहार हैं या लक्षण हैं जो अच्छे नागरिक में नहीं पाए जाते और इसके विपरीत जिनकों हम अच्छा नागरिक कहते हैं उनमें वे व्यवहार पाए जाते हैं।
  3. उद्देश्य प्राप्ति की सीमा निर्धारित करके – वर्तमान परिस्थिति में शिक्षा देते समय एक कक्षा के शत प्रतिशत विद्यार्थियों को शत प्रतिशत अच्छे नागरिक बनाना असंभव हो जाता है। अतः इसकी सीमा निर्धारित करना जैसे 80 प्रतिशत विद्यार्थियों के 80 प्रतिशत व्यवहार अच्छे नागरिक को परिलक्षित करेंगे।
  4. उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्या करना है अथवा क्या नही – प्राथमिक स्तर पर अच्छे नागरिक के गुणों को विकास करने के लिए शिक्षक को भिन्न व्यवहार करना होगा और उच्च स्तर पर इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भिन्न व्यवहार करना होगा।
  5. नए पेहलुओं पर सुझाव देना – उदाहरणार्थ, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन में सभी छात्रों को एक समान परीक्षण क्यों दिया जाए जब एक ही कक्षा में भिन्न योग्यता और क्षमता वाले छात्रों को प्रवेश दिया जाता है।

2. शिक्षा की विषयवस्तु

शिक्षा की विषयवस्तु को समझने व उसका निर्धारण छात्र के विकास के अनुरूप करने में मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। किस कक्षा के छात्रों के लिए विषयवस्तु क्या हो? अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम (विद्यालय का सामान्य वातावरण) किस प्रकार का हो जिससे छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े आदि महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान मनोविज्ञान करता है। मनोविज्ञान की सहायता से मानवजाति को विश्व के कल्याण हेतु प्रयुक्त कर सकते है।

3. शिक्षा के साधन

मनोविज्ञान शिक्षा के साधनों को समझने में सहयोग प्रदान करता है, क्योंकि-

  1. अभिभावको, शिक्षकों एवं मित्रों की बुद्धि एवं चरित्र उनको शिक्षित करने का महत्वपूर्ण साधन होती है।
  2. शिक्षा के अन्य साधनों जैसे पुस्तक, मानचित्र, उपकरणों का प्रयोग तभी सफल होता है जब जिनके लिए इनका प्रयोग किया जाता है, उनकी प्रकृति समझ में आए।

4. शिक्षा की विधियाँ

मनोविज्ञान शिक्षण की विधियों के बारे में ज्ञान तीन प्रकार से देता है-

  1. मानव प्रकृति के नियमों के आधार पर शिक्षण विधि निर्धारित करना, जैसे-
    • स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
    • ज्ञात से अज्ञात की ओर,
    • सरल से जटिल की ओर,
    • करके सीखना
  2. स्वयं के शिक्षण अनुभव के आधार पर विधि का चयन करना-
    • शिक्षक-छात्र अनुपात 1 अनुपात 5 या 1 अनुपात 60 की तुलना में 1 अनुपात 25 ज्यादा उपयुक्त होता है।
    • छात्र के चरित्र निर्माण में विधयालय वातावरण से ज्यादा पारिवारिक जीवन का प्रभाव पड़ता है।
    • विदेशी भाषा को हू-ब-हू की तुलना में वार्तालाप से ज्यादा अच्छा सीखा जा सकता है।
  3. छात्र के ज्ञान व कौशल को मापने के तरीके इस प्रकार बताता है-
    • किस विधि से किस विषयवस्तु के अर्जन को मूल्यांकित करना है जैसे गध (संज्ञानात्मक) एवं पध (भावात्मक)।
    • मूल्यांकन का उद्देश्य छात्र को सिर्फ सही अथवा गलत प्रतिक्रिया बताना नही है वरन् उसकी प्रतिक्रियाओं का निदान करना व उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना है।

डेविस (Davis) ने शिक्षा मनोविज्ञान के महत्व की इस प्रकार विवेचना की है –

मनोविज्ञान ने छात्रों की अभिक्षमताओं एवं उनमें पाए जाने वाले विभिन्नताओं का विश्लेषण करके शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने विद्यालयी वर्षो में छात्र की वृद्धि एवं विकास के ढंग के बारे में ज्ञान प्रदान करके भी योगदान दिया है।

ब्लेयर (Blair) ने शिक्षा मनोविज्ञान के महत्व को निम्न शब्दों में बताया है –

वर्तमान समय में यदि शिक्षक को अपने कार्य में सफल होना है तो उसे बाल मनोविज्ञान का ज्ञान जैसे उनकी वृद्धि, विकास, सीखने की प्रक्रिया व समायोजन की योग्यता के बारे में समझ होनी चाहिए। वह छात्रों की शिक्षा सम्बन्धी विशिष्ट कठिनाईयों को पहचान सके तथा उपचारात्मक शिक्षण देने की कुशलता रखता हो। उसको आवश्यक शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देशन देना आना चाहिए। इस प्रकार कोई भी व्यक्ति यदि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों व विधियों के बारे में शिक्षित नही है तो वह शिक्षक के दायित्व को भली भांति नहीं निभा सकता।

शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र

विभिन्न लेखकों ने शिक्षा मनोविज्ञान की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा मनोवैज्ञानिक एक नया तथा पनपता विज्ञान है। इसके क्षेत्र अनिश्चित है और धारणाएं गुप्त है। इसके क्षेत्रों में अभी बहुत सी खोज हो रही है और संभव है कि शिक्षा मनोविज्ञान की नई धारणाएं, नियम और सिद्धांत प्राप्त हो जाये।

इसका भाव यह है कि शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र और समस्याएं अनिश्चित तथा परिवर्तनशील है। चाहे कुछ भी हो निम्नलिखित क्षेत्र या समस्याओं को शिक्षा मनोविज्ञान के कार्य क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है। क्रो एण्ड क्रो- “शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री का संबंध सीखने को प्रभावित करने वाली दशाओं से है।”

शिक्षा मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र-

  1. व्यवहार की समस्या
  2. व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समस्या
  3. विकास की अवस्थाएं
  4. बच्चों का अध्ययन
  5. सीखने की क्रियाओं का अध्ययन
  6. व्यक्तित्व तथा बुद्धि
  7. नाप तथा मूल्यांकन
  8. निर्देश तथा परामर्श

Shiksha Manovigyan Ki Vidhiyan

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ

शिक्षा मनोविज्ञान को व्यवहारिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाने लगा है। विज्ञान होने के कारण इसके अध्ययन में भी अनेक विधियों का विकास हुआ। ये विधियां वैज्ञानिक हैं। जार्ज ए लुण्डबर्ग के शब्दों में –

सामाजिक वैज्ञानिकों में यह विश्वास पूर्ण हो गया है कि उनके सामने जो समस्याऐं है उनको हल करने के लिए सामाजिक घटनाओं के निष्पक्ष एवं व्यवस्थित निरीक्षण, सत्यापन, वर्गीकरण तथा विश्लेषण का प्रयोग करना होगा। ठोस एवं सफल होने का कारण ऐसे दृष्टिकोण को वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।

शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन और अनुसंधान के लिए सामान्य रूप से जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनको दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. आत्मनिष्ठ विधियाँ (Subjective Methods)

  1. आत्मनिरीक्षण विधि
  2. गाथा वर्णन विधि

2. वस्तुनिष्ठ विधियाँ (Objective Methods)

  1. प्रयोगात्मक विधि
  2. निरीक्षण विधि
  3. जीवन इतिहास विधि
  4. उपचारात्मक विधि
  5. विकासात्मक विधि
  6. मनोविश्लेषण विधि
  7. तुलनात्मक विधि
  8. सांख्यिकी विधि
  9. परीक्षण विधि
  10. साक्षात्कार विधि
  11. प्रश्नावली विधि
  12. विभेदात्मक विधि
  13. मनोभौतिकी विधि

इनमें से कुछ प्रमुख विधियों का निम्नानुसार वर्णन किया गया है-

आत्म निरीक्षण विधि (अर्न्तदर्शन विधि)

आत्म निरीक्षण विधि को अर्न्तदर्शन, अन्तर्निरीक्षण विधि (Introspection) भी कहते है। स्टाउट के अनुसार- “अपना मानसिक क्रियाओं का क्रमबद्ध अध्ययन ही अन्तर्निरीक्षण कहलाता है।” वुडवर्थ ने इस विधि को आत्मनिरीक्षण कहा है। इस विधि में व्यक्ति की मानसिक क्रियाएं आत्मगत होती हे। आत्मगत होने के कारण आत्मनिरीक्षण या अन्तर्दर्शन विधि अधिक उपयोगी होती हे। लॉक के अनुसार – मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण।

परिचय :

पूर्वकाल के मनोवैज्ञानिक अपनी मस्तिष्क क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिये इसी विधि पर निर्भर थे। वे इसका प्रयोग अपने अनुभवों का पुनः स्मरण और भावनाओं का मूल्यांकन करने के लिये करते थे। वे सुख, दुख, क्रोध और शान्ति, घृणा और प्रेम के समय अपनी भावनाओं और मानसिक दशाओं का निरीक्षण करके उनका वर्णन करते थे।

अर्थ :

अन्तर्दर्शन का अर्थ है- ‘‘अपने आप में देखना।’’ इसकी व्याख्या करते हुए बी.एन. झा ने लिखा है ‘‘आत्मनिरीक्षण अपने स्वयं के मन का निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का आत्मनिरीक्षण है जिसमें हम किसी मानसिक क्रिया के समय अपने मन में उत्पन्न होने वाली स्वयं की भावनाओं और सब प्रकार की प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण, विश्लेषण और वर्णन करते हैं।’’

गुण :

  1. मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि : डगलस व हालैण्ड के अनुसार – “मनोविज्ञान ने इस विधि का प्रयोग करके हमारे मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि की है।”
  2. अन्य विधियों में सहायक : डगलस व हालैण्ड के अनुसार “यह विधि अन्य विधियों द्वारा प्राप्त किये गये तथ्यों नियमों और सिद्धांन्तों की व्याख्या करने में सहायता देती है।”
  3. यंत्र व सामग्री की आवश्यकता : रॉस के अनुसार “यह विधि खर्चीली नहीं है क्योंकि इसमें किसी विशेष यंत्र या सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है।”
  4. प्रयोगशाला की आवश्यकता : यह विधि बहुत सरल है। क्योंकि इसमें किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। रॉस के शब्दों में “मनोवैज्ञानिकों का स्वयं का मस्तिष्क प्रयोगशाला होता है और क्योंकि वह सदैव उसके साथ रहता है इसलिए वह अपनी इच्छानुसार कभी भी निरीक्षण कर सकता है।”

जीवन इतिहास विधि या व्यक्ति अध्ययन विधि

व्यक्ति अध्ययन विधि का प्रयोग मनोवैज्ञानिकों द्वारा मानसिक रोगियों, अपराधियों एवं समाज विरोधी कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिये किया जाता है। बहुधा मनोवैज्ञानिक का अनेक प्रकार के व्यक्तियों से पाला पड़ता है। इनमें कोई अपराधी, कोई मानसिक रोगी, कोई झगडालू, कोई समाज विरोधी कार्य करने वाला और कोई समस्या बालक होता है।

मनोवैज्ञानिक के विचार से व्यक्ति का भौतिक, पारिवारिक व सामाजिक वातावरण उसमें मानसिक असंतुलन उत्पन्न कर देता है। जिसके फलस्वरूप वह अवांछनीय व्यवहार करने लगता है। इसका वास्तविक कारण जानने के लिए वह व्यक्ति के पूर्व इतिहास की कड़ियों को जोड़ता है। इस उद्देश्य से वह व्यक्ति उसके माता पिता, शिक्षकों, संबंधियों, पड़ोसियों, मित्रों आदि से भेंट करके पूछताछ करता है।

इस प्रकार वह व्यक्ति के वंशानुक्रम, पारिवारिक और सामाजिक वातावरण, रूचियों, क्रियाओं, शारीरिक स्वास्थ्य, शैक्षिक और संवेगात्मक विकास के संबंध में तथ्य एकत्र करता है जिनके फलस्वरूप व्यक्ति मनोविकारों का शिकार बनकर अनुचित आचरण करने लगता है। इस प्रकार इस विधि का उद्देश्य व्यक्ति के किसी विशिष्ट व्यवहार के कारण की खोज करना है।

क्रो व क्रो ने लिखा है- “जीवन इतिहास विधि का मुख्य उद्देश्य किसी कारण का निदान करना है।”

बहिर्दर्शन या अवलोकन विधि

बहिर्दर्शन विधि (Extrospection) को अवलोकन या निरीक्षण विधि (observational method) भी कहा जाता है। अवलोकन या निरीक्षण का सामान्य अर्थ है- ध्यानपूर्वक देखना। हम किसी के व्यवहार,आचरण एवं क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं आदि को बाहर से ध्यानपूर्वक देखकर उसकी आंतरिक मनःस्थिति का अनुमान लगा सकते है। उदाहरणार्थः- यदि कोई व्यक्ति जोर-जोर से बोल रहा है और उसके नेत्र लाल है तो हम जान सकते है कि वह क्रोध मे है। किसी व्यक्ति को हंसता हुआ देखकर उसके खुश होने का अनुमान लगा सकते हैं।

निरीक्षण विधि में निरीक्षणकर्ता, अध्ययन किये जाने वाले व्यवहार का निरीक्षण करता है और उसी के आधार पर वह विषय के बारे में अपनी धारणा बनाता है। व्यवहारवादियों ने इस विधि को विशेष महत्व दिया है।

कोलेसनिक के अनुसार निरीक्षण दो प्रकार का होता है-

  1. औपचारिक
  2. अनौपचारिक

औपचारिक निरीक्षण नियंत्रित दशाओं में और अनौपचारिक निरीक्षण अनियंत्रित दशाओं में किया जाता है। इनमें से अनौपचारिक निरीक्षण, शिक्षक के लिये अधिक उपयोगी है। उसे कक्षा और कक्षा के बाहर अपने छात्रों के व्यवहार का निरीक्षण करने के लिए अनेक अवसर प्राप्त होते है। वह इस निरीक्षण के आधार पर उनके व्यवहार के प्रतिमानो का ज्ञान प्राप्त करके उनको उपयुक्त निर्देशन दे सकता है

प्रश्नावली

गुड तथा हैट (Good & Hatt) के अनुसार – “सामान्यतः प्रश्नावली शाब्दिक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की विधि है, जिसमें व्यक्ति को स्वयं ही प्रारूप में भरकर देने होते हैं। इस विधि में प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके समस्या संबंधी तथ्य एकत्र करना मुख्य होता है। प्रश्नावली एक प्रकार से लिखित प्रश्नों की योजनाबद्ध सूची होती है। इसमें सम्भावित उत्तरों के लिए या तो स्थान रखा जाता है या सम्भावित उत्तर लिखे रहते हैं।”

साक्षात्कार

इस विधि में व्यक्तियों से भेंट कर के समस्या संबंधी तथ्य एकत्रित करना मुख्य होता है। इस विधि के द्वारा व्यक्ति की समस्याओं तथा गुणों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसमें दो व्यक्तियों में आमने-सामने मौखिक वार्तालाप होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति की समस्याओं का समाधान खोजने तथा शारीरिक और मानसिक दशाओं का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।

गुड एवं हैट के शब्दों में – किसी उद्देश्य से किया गया गम्भीर वार्तालाप ही साक्षात्कार है।

प्रयोग विधि

प्रयोग विधि में प्रयोगकर्ता स्वयं अपने द्वारा निर्धारित की हुई परिस्थितियों या वातावरण में किसी व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है या किसी समस्या के संबंध में तथ्य एकत्र करता है। इसीलिए प्रयोगात्मक विधि के विषय में कहा गया है-

प्रयोग विधि “पूर्व निर्धारित दशाओं में मानव व्यवहार का अध्ययन” है।

मनोचिकित्सीय विधि

व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके उपचार करना। इस विधि के द्वारा व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके, उसकी अतृप्त इच्छाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। तदुपरांत उन इच्छाओं का परिष्कार या मार्गान्तीकरण करके व्यक्ति का उपचार किया जाता है और इस प्रकार इसके व्यवहार को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाता है।

बालमनोविज्ञान की विधियाँ

बालमनोविज्ञान में, सामान्य मनोविज्ञान की विधियों का उपयोग होता है। यहाँ, बालकों के व्यवहार का निरीक्षण विशेष महत्वपूर्ण है, जो उनके नियमों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर किया जाता है।

बालमनोविज्ञान में, बच्चों के विकास के आँकड़े प्राप्त करने के लिए कई उपाय होते हैं, जैसे कि वैज्ञानिक निरीक्षण, प्रयोग, जीवनियों का अध्ययन, डायरी लेखन, प्रश्नावली, अंतर्दर्शन, और मनोविश्लेषण। इन उपायों के उपयोग से माता-पिता और शिक्षक बच्चों के व्यवहार और उनके विकास के बारे में सामग्री प्राप्त कर सकते हैं।

बालमनोविज्ञान के विशेषज्ञ अपने बच्चों के व्यवहार को निरंतर लिखते रहते हैं और उनकी डायरियों में संग्रहित जानकारी उपयोगी होती है। इसके अलावा, बालकों के विकास की प्रक्रिया के लिए विशेष प्रयोगों का भी उपयोग किया जाता है।

बालमनोविज्ञान के निर्माण में, शिक्षकों, डाक्टरों, और समाजशास्त्रियों की सहायता की आवश्यकता होती है, जो बच्चों के संपूर्ण विकास की बातचीत करते हैं।

विकासात्मक मनोविज्ञान

विकासात्मक मनोविज्ञान के अंतर्गत, मानव विकास की आरंभिक प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है। इस विषय में, जी. स्टेनली हॉल, जॉन पियाज, और अन्ना फ्रेड जैसे बालमनोविज्ञानिकों का मानना है कि बच्चों के मानसिक अवस्था पर परिवेश का गहरा प्रभाव होता है। उनका कहना है कि बच्चे अपने विचारों से ज्यादा अपने आचारिक परिवेश से प्रभावित होते हैं, जो भौतिक समीक्षा के माध्यम से उनकी मानसिक स्थिति पर प्रभाव डालता है।

बाल मनोविज्ञान की आवश्यकता

बाल मनोविज्ञान के माध्यम से, बच्चों के स्वभाव और विकास को समझने के बाद, उनकी शिक्षा की प्रक्रिया सरल हो जाती है। यह विज्ञान बच्चों के व्यक्तित्व-विकास को समझने में सहायक होता है।

बच्चों को समय-समय पर निर्देशन की आवश्यकता होती है। इस निर्देशन के द्वारा ही बच्चों में उनकी रुचियों के अनुरूप विभिन्न कौशलों का विकास किया जा सकता है। बाल मनोविज्ञान की सहायता के बिना बच्चों का निर्देशन संभव नहीं है।

बाल मनोविज्ञान के माध्यम से, बच्चे के व्यक्तित्व का अध्ययन करके उसके भविष्य के बारे में जानकारी दी जा सकती है, और जरूरत पड़ने पर उसे बेहतर भविष्य के लिए सलाह दी जा सकती है। बाल मनोविज्ञान का अध्ययन प्राथमिक शिक्षकों के लिए अत्यंत आवश्यक है, ताकि वे बच्चों को सही तरीके से पढ़ा सकें।

मनोविज्ञान के विकास का महत्वपूर्ण घटनाक्रम

  • 1879: विलहम वुण्ट ने जर्मनी के लिपशिग में प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला को स्थापित किया।
  • 1890: विलियम जेम्स ने ‘प्रिंसिपल ऑफ साइकोलॉजी’ प्रकाशित की।
  • 1895: मनोविज्ञान की एक व्यवस्था के रूप में प्रकार्यवाद की स्थापना।
  • 1900: सिगमंड फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद का विकास किया।
  • 1904: इवान पावलव को पाचन व्यवस्था के कार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला जिससे अनुक्रियाओं के विकास के सिद्धांत को समझा जा सका।
  • 1905: बीने एवं साइमन द्वारा बुद्धि परीक्षण का विकास।
  • 1916: कलकत्ता विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान का प्रथम विभाग खुला।
  • 1920: जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का उदय हुआ।
  • 1922: मनोविज्ञान को इण्डियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन में सम्मिलित किया गया।
  • 1924: भारतीय मनोवैज्ञानिक संघ की स्थापना हुई।
  • 1924: जॉन बी. वाट्सन ने व्यवहारवाद पुस्तक लिखी जिससे व्यवहारवाद की नींव पड़ी।
  • 1928: नरेन्द्रनाथ सेनगुप्त एवं राधाकमल मुकर्जी ने सामाजिक मनोविज्ञान की प्रथम पुस्तक लिखी (लंदन : एलन और अनविन)।
  • 1949: ‘डिफेंस साइंस आर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया’ में मनोवैज्ञानिक शोध खण्ड की स्थापना।
  • 1951: मानववादी मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स ने रोगी-केंद्रित चिकित्सा प्रकाशित की।
  • 1953: बी.एफ. स्किनर ने ‘साइंस एंड ह्यूमन बिहेविअर’ प्रकाशित की जिससे व्यवहारवाद को मनोविज्ञान के एक प्रमुख उपागम के रूप में बढ़ावा मिला।
  • 1954: मानववादी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो ने ‘मोटिवेशन एंड पर्सनॉलटी’ प्रकाशित की।
  • 1954: इलाहाबाद में मनोविज्ञानशाला की स्थापना।
  • 1955: बंगलौर में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस की स्थापना।
  • 1962: रांची में ‘हॉस्पिटल फॉर मेंटल डिशीशिज’ की स्थापना।
  • 1973: कोनराड लारेंश तथा निको टिनबर्गेन को उनके कार्य पशु व्यवहार की उपजाति विशिष्टता की अंतर्निर्मित शैली जो बिना किसी पूर्व अनुभव अथवा अधिगम के होती है, पर नोबल पुरस्कार मिला।
  • 1978: निर्णयन पर किए गए कार्य के लिए हर्बर्ट साइमन को नोबल पुरस्कार प्राप्त।
  • 1981: डेविड ह्यूबल एवं टार्स्टेन वीसल को मस्तिष्क की दृष्टि कोशिकाओं पर शोध के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त।
  • 1981: रोजर स्पेरी को मस्तिष्क विच्छेद अनुसंधान के लिए नोबल पुरस्कार प्राप्त।
  • 1989: ‘नेशनल अकेडमी ऑफ साइकोलॉजी इंडिया’ की स्थापना।
  • 1997: गुड़गाँव, हरियाणा में नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर की स्थापना।
  • 2002: अनिश्चितता में मानव निर्णयन के अनुसंधान पर डेनियल कहनेमन को नोबल पुरस्कार मिला।
  • 2005: आर्थिक व्यवहार में सहयोग एवं द्वंद्व की समझ में खेल सिद्धांत के अनुप्रयोग के लिए थामस शेलिंग को नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

भारत में मनोविज्ञान

भारत में मनोविज्ञान की वर्तमान स्थिति पूर्व के समय की तुलना में विशेष रूप से संतोषजनक है। भारतीय विश्वविद्यालयों में मनोविज्ञान शिक्षा परंपरागत रूप से दर्शन और शिक्षा विज्ञान के प्रोफेसरों द्वारा प्रदान की जाती रही थी। इसके परिणामस्वरूप, दर्शनिक दृष्टिकोण को प्रयोगशाला विधि में समाहित करने में काफी कठिनाई होती थी, और शिक्षा मनोविज्ञान का प्रभाव मौलिक मनोविज्ञान अनुसंधान की ओर ध्यान को खींचता था।

लेकिन आज, अधिकांश विश्वविद्यालयों में मनोविज्ञान में प्रशिक्षित अध्यापक हैं जो मनोविज्ञानिक प्रयोगशालाओं में काम कर रहे हैं। भारत में मनोविज्ञान की एकाडेमिक विभाग की शुरुआत की गई, जिसका उद्घाटन नरेंद्रनाथ सेनगुप्ता द्वारा कोलकाता विश्वविद्यालय में 1916 में किया गया था। भारत की प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला की स्थापना भी उन्हीं द्वारा की गई थी।