Shiksha Shastra (शिक्षा शास्त्र or शिक्षण शास्त्र), Pedagogy – Education Science

Shiksha Shastra or Shikshan Shastra

शिक्षक द्वारा अध्यापन या शिक्षण कार्य छात्र को नवीन ज्ञान सिखाने (अधिगम) के लिये किया जाता है। यह नवीन ज्ञान सीखकर छात्र अपने जीवन की मूलभूत समस्याओं को हल करता है तथा सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख होता है। शिक्षा, शिक्षक, छात्र, शिक्षण तथा सीखना परस्पर एक-दूसरे के साथ व्यवस्थित रूप से जुड़े हुए हैं।

एक दक्ष शिक्षक का दायित्व है कि वह छात्र को सिखाने के लिये अपनी समस्त आत्मिक ऊर्जा का उपयोग करके शिक्षण अधिगम वातावरण का सृजन करने का सम्पूर्ण प्रयत्न करे। ऐसा करने से शिक्षक का स्थान ‘टीचर‘ से हटकर गुरु से सम्बोधित हो जाता है। यही सम्माननीय पद उसे सम्पूर्ण समाज में पूज्य रूप में गौरवान्वित करता है।

वेबसाईट पेज के इस भाग में शिक्षक, छात्र, शिक्षा, ज्ञान तथा शिक्षण-अधिगम की मूलभूत व्याख्यात्मक रूप में रुचिपूर्ण ढंग से चर्चा की गयी है। पाठ्यक्रम तथा विषय वस्तु सन्तुलन का पूर्ण ध्यान रखा गया है तथा मुख्य रूप से निम्नलिखित पाठ्यक्रम बिन्दुओं की विश्लेषणात्मक रूप से समझने योग्य चर्चा की गयी है:-

  1. शिक्षण का अर्थ, प्रकृति, विशेषताएँ, सोपान तथा उद्देश्य
  2. सम्प्रेषण या संचार की अवधारणा, अर्थ, महत्त्व, घटक, प्रकार तथा सम्प्रेषण की विधियाँ
  3. शिक्षण के सिद्धान्त
  4. शिक्षण के सूत्र
  5. शिक्षण की युक्तियाँ तथा प्रविधियाँ
  6. शिक्षण के नवीन उपागम (विधाएँ)
  7. शिक्षण के आधारभूत कौशल
  8. अपेक्षित अधिगम स्तर एवं अधिगम (सीखने) के नियम एवं सिद्धान्त
  9. शिक्षण अधिगम सामग्री का अर्थ, आवश्यकता, महत्त्व, प्रकार, वर्गीकरण, विशेषताएँ तथा रखरखाव
  10. शिक्षण अधिगम के प्रमुख अभिकरण
  11. बाल अधिकार

सतत् प्रयास तथा परिश्रम करने वाले शिक्षक के लिये शिक्षण अधिगम आनन्द से भरा हुआ एक सुलभ, सरल तथा सरस खेल है। मन तथा आत्मा द्वारा किये गये शिक्षण की जिज्ञासा भरी पूर्णता उसे गुरु जैसे परम् पद को प्राप्त कराती है। इस प्रकार शिक्षक एक ओर छात्र का सहयोगी होता है वहीं दूसरी ओर पथ प्रदर्शक भी होता है।

क्या है शिक्षा? शिक्षा शास्त्र

शिक्षा एक सजीव गतिशील प्रक्रिया है। इसमें अध्यापक और शिक्षार्थी के मध्य अन्त:क्रिया होती रहती है और सम्पूर्ण अन्त:क्रिया किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होती है। शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षाशास्त्र के आधार पर एक दूसरे के व्यक्तित्व से लाभान्वित और प्रभावित होते रहते हैं और यह प्रभाव किसी विशिष्‍ट दिशा की और स्पष्ट रूप से अभिमुख होता है।

बदलते समय के साथ सम्पूर्ण शिक्षा-चक्र गतिशील है। उसकी गति किस दिशा में हो रही है? कौन प्रभावित हो रहा है? इस दिशा का लक्ष्य निर्धारण शिक्षाशास्त्र करता है।

शिक्षण-कार्य की प्रक्रिया का विधिवत अध्ययन शिक्षाशास्त्र या शिक्षणशास्त्र (Pedagogy) कहलाता है। इसमें अध्यापन की शैली या नीतियों का अध्ययन किया जाता है। शिक्षक अध्यापन कार्य करता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि अधिगमकर्ता को अधिक से अधिक समझ में आवे।

सम्प्रेषण (Communication)

सम्प्रेषण शिक्षा की रीढ़ की हड्डी’ है। बिना सम्प्रेषण के अधिगम और शिक्षण नहीं हो सकता है। ‘सम्प्रेषण’ दो शब्दों से मिलकर बना है – सम + प्रेषण, अर्थात् समान रूप से भेजा गया। सम्प्रेषण को अंग्रेजी में कम्यूनीकेशन (Communication) कहते हैं। कम्यूनीकेशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कम्यूनिस’ (Communis) शब्द से मानी जाती है, जिसका अर्थ होता है – सामान्य बनाना (To make common)। अतः सम्प्रेषण का अर्थ है परस्पर सूचनाओं तथा विचारों का आदान-प्रदान करना।

शिक्षण के सिद्धान्त

प्रत्येक अध्यापक की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका शिक्षण प्रभावपूर्ण हो। इसके लिये अध्यापक को कई बातों को जानकर उन्हे व्यवहार में लाना पड़ता है, यथा – पाठ्यवस्तु का आरम्भ कहां से किया जाय, किस प्रकार किया जाय, छात्र इसमें रुचि कैसे लेते रहें, अर्जित ज्ञान को बालकों के लिये उपयोगी कैसे बनाया जाय, आदि। शिक्षाशात्रियों ने अध्यापकों के लिये इन आवश्यक बातों पर विचार करके अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त

बालक स्वभावतः ही क्रियाशील होते हैं। निष्क्रिय बैठे रहना उनकी प्रकृति के विपरीत है। उन्हे अपने हाथ, पैर व अन्य इन्द्रियों को प्रयोग में लाने में अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वयं करने की क्रिया द्वारा बालक सीखता है। इस प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अथवा अनुभव उसके व्यक्तित्व का स्थाई अंग बन कर रह जाता है। अतः अध्यापक का अध्यापन इस प्रकार होना चाहिए जिससे बालक को ‘स्वयं करने द्वार सीखने’ के अधिकाधिक अवसर मिलें।

2. जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त

अपने जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना बालकों की स्वाभाविक रुचि होती है। अतः पाठ्यवस्तु में जीवन से सम्बन्धित तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये अर्थात् वास्तविक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से लिये गये तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये। यदि अध्यापक काल्पनिक अथवा जीवन से असम्बन्धित तथ्यों को ही पढ़ाना चाहेगा तो छात्रों की रुचि उससे हट जायेगी।

3. हेतु प्रयोजन का सिद्धान्त

जब तक बालकों को पाठ का हेतु अथवा उद्देश्य पूर्णतया ज्ञात नहीं होता है, वे उसमे, पूर्ण ध्यान नहीं दे सकते। केवल पाठ का उद्देश्य जान लेने से भी काम नहीं चलता। यदि पाठ का उद्देश्य बालकों की रुचि को प्रेरणा देने वाला हुआ तो उनका पूरा ध्यान उस पाठ को सीखने में लगता है।

4. चुनाव का सिद्धान्त

मनुष्य का जीवनकाल अत्यन्त कम है और् ज्ञान का विस्तार असीम है। अतः पाठ्य सामग्री में संसार की अपार ज्ञानराशि में से अत्यन्त उपयोगी वस्तुओं को चुनकर रखा जाना चाहिये।

5. विभाजन का सिद्धान्त

सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु बालक के सम्मुख एकसाथ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। उसे उचित खण्डों, अन्वितियों अथवा इकाइयों में विभक्त किया जाना चाहिये। अन्वितियां ऐसी हों जैसी कि सीढ़ियां होती हैं। इन्हें जैसे-जैसे बाल पार करता जाये, वह उन्नति करता जाये।

6. पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

बालक किसी पाठ्यवस्तु अथवा ज्ञान को अपने मस्तिष्क में ठोस प्रकार से तभी जमा कर सकता है जब बार-बार उसकी आवृत्ति करायी जाय।

शिक्षण-सूत्र

शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए जिन जिन सूत्रों को ध्यान में रखा जाना चाहिए, वे निम्नलिखित प्रकार हैं:-

1. ज्ञात से अज्ञात की ओर चलो

बालक के पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करते हुए यदि नया ज्ञान प्रदान किया जाता है तो बालक को उसे सीखने में रुचि व प्रेरणा प्राप्त होती है। मनुष्य सामान्यतया इसी क्रम से सीखता है। इसलिये अध्यापक को अपनी पाठ्य सामग्री इस क्रम में प्रस्तुत करना चाहिये।

2. सरल से कठिन की ओर चलो

पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्त्तुत करना चाहिये कि उसके सरल भागों का ज्ञान पहले करवाया जाय तथा धीरे-धीरे कठिन भागों को प्रस्तुत किया जाय।

3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलो

सूक्ष्म तथा अमूर्त विचारों को सिखाते समय उनका प्रारम्भ आसपास की स्थूल वस्तुओं तथा स्थूल विचारों से करना चाहिये। बालक की शिक्षा सदैव स्थूल वस्तुओं तथा तथ्यों से होनी चाहिये; शब्दों, परिभाषाओं तथा नियमों से नहीं।

4. विशेष से सामान्य की ओर चलो

किसी सिद्धान्त की विशेष बातों को पहले रखे, फिर उनका सामान्यीकरण करना चाहिये। गणित, विज्ञान, व्याकरण्, छन्द व अलंकारशास्त्र की शिक्षा देते समय इसी क्रम को अपनाना चाहिये। आगमन प्रणाली में भी इसी का उपयोग होता है।

6. अनुभव से तर्क की ओर चलो

ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बालक यह तो जान लेता है कि अमुक वस्तु कैसी है किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह ऐसी क्यों है। बार-बार निरीक्षण व परीक्षण से वह इन कारणों को भी जान जाता है। अर्थात् वह अनुभव से तर्क की ओर बढ़ता है। बालक के अनुभूत तथ्यों को आधार बनाकर धीरे-धीरे निरीक्षण व परीक्षण द्वारा उनकी तर्कशक्ति का विकास करने का प्रयत्न करना चाहिये।

7. पूर्ण से अंश की ओर चलो

बालक के सम्मुख उसकी समझ में आने योग्यपूर्ण वस्तु या तथ्य को रखना चाहिये। इसके बाद उसके विभिन्न अंशों के विस्तृत ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिये। यदि एक पेड़ का ज्ञान प्रदान करना है तो पहले उसका सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत किया जायेगा तथा बाद में उसकी जड़ों, पत्तियों, फलों आदि का परिचय अलग अलग करवाया जायेगा।

8. अनिश्चित से निश्चित की ओर चलो

इस सूत्र के अन्तर्गत अस्पष्ट एवं अनियमित ज्ञान को स्पष्ट एवं नियमित करना होता है। छात्र अपनी सम्वेदनाओं द्वारा अनेक अस्पष्ट एवं अनियमित वस्तुओं की जानकारी करता है परन्तु शिक्षक को चाहिये कि वह उसे स्पष्ट एवं नियमित जानकारी प्रदान करे, गलत तथ्यों को सुस्पष्ट कर सही रूप में बताये तथा उनके विचारों में यथार्थता एवं निश्चितता लाने हेतु प्रयत्नशील रहे।

9. तर्क पूर्ण विधि का त्याग व मनोवैज्ञानिक विधि का अनुसरण करो

वर्तमान समय में मनोविज्ञान के प्रचार के कारण इस बात पर जोर दिया जाता है कि शिक्षण विधि व क्रम में बालकों की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं, रुचियों, जिज्ञासा और ग्रहण शक्ति को ध्यान में रखा जाय।

10. प्रकृति का आधार

बालक को शिक्षा इस प्रकार मिलनी चाहिये कि वह उसके प्राकृतिक विकास में बाधा न बने बल्कि सहायक हो।

शिक्षण युक्तियां (Teaching Devices)

जिस प्रकार शिक्षण की विभिन्न प्रविधियों; जैसे-प्रश्नोत्तर प्रविधि, उदाहरण प्रविधि, व्याख्या प्रविधि एवं स्पष्टीकरण प्रविधि आदि सभी किसी न किसी शिक्षण-प्रविधि के सहायक हैं, उसी प्रकार शिक्षण की विभिन्न युक्तियाँ भी किसी न किसी प्रकार शिक्षण प्रविधियों की सहायक हैं। अन्य शब्दों में, “शिक्षण युक्तियाँ मौलिक रूप में अधिगम संरचना की आधारशिला हैं।”

शिक्षण प्रविधि (Teaching Technique)

शिक्षण नीति अथवा शिक्षण प्रविधि शिक्षक द्वारा शिक्षण के सतत् अभ्यास द्वारा विकसित वह अधिकतम अच्छाइयों वाला मार्ग है, जिस पर चलकर शिक्षण के उद्देश्य और लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। शिक्षण प्रविधि का विकास एक-दो प्रयासों से नहीं हो जाता। यह एक विशेष दिशा में किये गये निरन्तर प्रयत्नों का परिणाम है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि कोई प्रविधि स्वयं में पूर्णतया निर्दोष है। प्रत्येक प्रविधि में कुछ अच्छे पक्ष होते हैं, जो उस प्रविधि की विशेषताएँ, लाभ अथवा धनात्मक बिन्दुओं के रूप में माने जाते हैं।

शिक्षण कौशल (Teaching Skills)

कक्षा में शिक्षक जो कुछ पढ़ाता है या जो कुछ बताता है या जिस प्रकार का व्यवहार करता है उसी को शिक्षण कौशल कहते हैं अर्थात् शिक्षण कौशल समान व्यवहारों का एक समूह है जो शिक्षण प्रक्रिया का निर्माण करते हैं। गणित की भाषा में बात करें तो “शिक्षण कौशल शिक्षक से सम्बन्धित व्यवहारों का समूह है जो वह कक्षा में करता है तथा जिसके द्वारा छात्र के अधिगम में सहायता करता है।”

अधिगम (Learning)

अधिगम का अर्थ है-सीखना अथवा व्यवहार में परिवर्तन। यह परिवर्तन अनुभव के द्वारा होता है। जीवन की विभिन्न क्रियाओं को किस प्रकार किया जाये यह सीखना है? संकुचित अर्थ में सीखना केवल ज्ञान प्राप्ति की क्रिया है और व्यापक अर्थ में सीखना घर पर भी होता है और बाहर भी। यह एक मानसिक क्रिया है, जिसे व्यक्ति जान-बूझकर अपनाता है, जिससे वह अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त सके।

शिक्षण अधिगम सामग्री (Teaching Learning Material)

जो सामग्री पाठ को रोचक तथा सुबोध बनाने और किसी संकल्प अथवा प्रत्यय विशेष के अर्थ को सुनिश्चित रूप से अधिक स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध होती है, उसे शैक्षणिक सहायक सामग्री (Teaching aid) कहा जाता है। पाठ्यवस्तु सामग्री को सजीव तथा सरल बनाने में सहायता देने के कारण ही उसे सहायक सामग्री/शैक्षणिक सहायक सामग्री कहते हैं।

शैक्षणिक सहायक सामग्री में सामान्यत: कक्षाध्यापन के समय प्रयोग में लाये जाने वाले सभी दृश्य-श्रव्य उपकरण/उपादान अथवा पदार्थ आदि की गणना की जा सकती है, परन्तु झाड़न (Duster), खड़िया (Chalk), संकेतक (Pointer), खड़ियापट्ट/श्यामपट्ट (Black-board) और पाठ्य-पुस्तक (Text-book) आज के युग में अध्यापन की एक प्रकार से अनिवार्य सामग्री हैं।

शिक्षण अधिगम के प्रमुख अभिकरण

  1. जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान (डाइट)
  2. यशपाल समिति – 1990
  3. शिक्षक-अभिवावक संघ
  4. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना – 1986

बाल अधिकार

भारत में बाल अधिकार (Right of child in India) – भारत सरकार ने बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता का समय-समय पर परिचय दिया है। संविधान के अनुच्छेद 39 तथा 24, इस विषय में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसके अतिरिक्त नीति निर्देशक तत्त्व भी इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसका विवरण निम्नलिखित है-

राज्य, विशेष रूप से, अपनी नीति को इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये निर्देशित करेगा – यह कि श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं तथा सुकुमार उम्र के बच्चों के स्वास्थ्य तथा शक्ति के साथ दुर्व्यवहार नहीं हो तथा आवश्यकता के कारण नागरिकों द्वारा बालकों को ऐसे व्यवसाय करने को बाध्य नहीं किया जाय जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल नहीं है।

यह कि बालकों को स्वस्थ रूप से स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने के अवसर दिये जायें और बचपन तथा यौवन को संरक्षण मिले, जिससे उनका शोषण एवं नैतिक तथा भौतिक परित्याग न होने पाये।

उपरोक्त उद्धरण भारत के संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों से लिये गये हैं। यहाँ संविधान के अनुच्छेद 24 के प्रावधानों का भी उल्लेख अनुचित नहीं होगा।

अनुच्छेद 24 के प्रावधान कहते हैं कि – “चौदह वर्ष की कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजित नहीं किया जायेगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जायेगा।”

उपरोक्त के अतिरिक्त भारत के संविधान का अनुच्छेद 45 भी भारत सरकार पर यह बाध्यता आरोपित करता है कि वह 14 वर्ष तक के बालकों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करे।

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