बाल अधिकार – बच्चों के अधिकार

Bal Adhikar
बच्चों के अधिकार (Rights of Children)

भारत में बालक का अधिकार

Right of child in India

भारत सरकार ने बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता का समय-समय पर परिचय दिया है। संविधान के अनुच्छेद 39 तथा 24, इस विषय में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसके अतिरिक्त नीति निर्देशक तत्त्व भी इसमें महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसका विवरण निम्नलिखित है:-

राज्य, विशेष रूप से, अपनी नीति को इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये निर्देशित करेगा– यह कि श्रमिकों, पुरुषों और महिलाओं तथा सुकुमार उम्र के बच्चों के स्वास्थ्य तथा शक्ति के साथ दुर्व्यवहार नहीं हो तथा आवश्यकता के कारण नागरिकों द्वारा बालकों को ऐसे व्यवसाय करने को बाध्य नहीं किया जाय जो उनकी आयु तथा शक्ति के अनुकूल नहीं है।

यह कि बालकों को स्वस्थ रूप से स्वाधीनता तथा गरिमापूर्ण परिस्थितियों में विकास करने के अवसर दिये जायें और बचपन तथा यौवन को संरक्षण मिले, जिससे उनका शोषण एवं नैतिक तथा भौतिक परित्याग न होने पाये।

उपरोक्त उद्धरण भारत के संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों से लिये गये हैं।

यहाँ संविधान के अनुच्छेद 24 के प्रावधानों का भी उल्लेख अनुचित नहीं होगा। अनुच्छेद 24 के प्रावधान कहते हैं कि- “चौदह वर्ष की कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिये नियोजित नहीं किया जायेगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जायेगा।

उपरोक्त के अतिरिक्त भारत के संविधान का अनुच्छेद 45 भी भारत सरकार पर यह बाध्यता आरोपित करता है कि वह 14 वर्ष तक के बालकों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करे।

बाल अधिकारों का अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है, भारत सरकार उसका पक्षकार है तथा बाल अधिकारों के संरक्षण के लिये जो प्रावधान उसमें किये गये हैं, उनके प्रति भी भारत सरकार वचनबद्ध है।

भारत सरकार ने सांविधानिक वचनबद्धता के अनुसरण में बच्चों के कल्याण के लिये एक राष्ट्रीय बाल नीति संकल्प संख्या 1-14/74 सी.डी.डी. दिनांक 22 अगस्त, 1974 बनायी। इस राष्ट्रीय बाल नीति की प्रस्तावना में कहा गया कि,

बालक राष्ट्र की एक सर्वोच्च तथा महत्त्वपूर्ण सम्पति हैं। उनकी देखभाल और चिन्ता करना हमारा उत्तरदायित्व है। मानव संसाधन विकास के लिये हमारी राष्ट्रीय योजनाओं में बालकों के कार्यक्रमों को प्रमुख स्थान मिलना चाहिये जिससे हमारे शिशु अथवा बालक पुष्ट नागरिक बनें, तथा शारीरिक रूप से सक्षम, मानसिक रूप से सजग एवं नैतिक रूप से स्वस्थ बनें।

इस सम्बन्ध में भारत सरकार ने कुछ नीतियाँ निर्मित की हैं जिनका विवरण निम्नलिखित है:-

नीति (Policy)

बालकों का पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास सुनिश्चित करने के लिये, उन्हें जन्म से पूर्व और इसके उपरान्त तथा बढ़त की पूरी उम्र में पर्याप्त सेवाएँ प्रदान करना राज्य की नीति होगी। राज्य ऐसी सेवाओं का कार्यक्षेत्र निरन्तर बढ़ायेगा ताकि समुचित अवधि में सभी बच्चों को उनके सन्तुलित विकास के लिये सर्वोत्तम परिस्थितियाँ प्राप्त हों।

उपाय (Measures)

नीतिगत उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये विभिन्न प्रकार के उपाय किये जायेंगे जिनमें सम्मिलित हैं-

  1. सभी बालकों को एक व्यापक स्वास्थ्य क्रम की सीमा में ले आना,
  2. बालकों के भोजन में विसंगतियों को दूर करने हेतु पोषण सेवाएँ उपलब्ध कराना,
  3. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार,
  4. 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को निःशुल्क विशेष सहायता और अनिवार्य शिक्षा औपचारिक स्कूली शिक्षा का पूर्ण लाभ न उठा पाने की स्थिति में आवश्यकता अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करना,
  5. स्कूलों, सामुदायिक केन्द्रों आदि में स्वास्थ्य शिक्षा, खेल, मनोरंजन तथा सांस्कृतिक और वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देना,
  6. अवसरों की समानता सुनिश्चित करना और इस हेतु कमजोर वर्ग के बच्चों को शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास दिलाना,
  7. बच्चों का पुनर्वास और देखभाल करना,
  8. क्रूरता और शोषण से उन्हें बचाना,
  9. चौदह वर्ष के कम उम्र के बच्चे को जोखिम वाले कामों में न लगाना,
  10. संवेगात्मक रूप से उद्वेलित और मन्दबुद्धि बच्चों का विशेष उपचार,
  11. शारीरिक रूप से विकलांग, शिक्षा राष्ट्रीय आपदाओं में राहत कार्य में बच्चों को प्राथमिकता देना,
  12. अत्यन्त प्रतिभाशाली बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिये विशेष कार्यक्रम चलाना,
  13. सभी कानूनी विवादों में बच्चों के हितों पर सर्वाधिक ध्यान देना तथा बच्चों के विभिन्न सेवाओं के आयोजन में पारिवारिक सम्बन्धों को मजबूत बनाने की दिशा में प्रयास करना आदि।

राष्ट्रीय नीति तथा बाल चार्टर (National Policy and Child Charter)

इसमें एक राष्ट्रीय नीति और बच्चों के लिये चार्टर (National Policy and Charter for Children 2001) के प्रारूप का वर्णन है।

इससे विभिन्न प्रकार के बाल अधिकारों; जैसे– उत्तरजीवन का अधिकार, बचपन में प्रारम्भिक देखभाल का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, आर्थिक शोषण से मुक्ति का अधिकार, संरक्षण का अधिकार, बालिकाओं के संरक्षण का अधिकार, किशोर शिक्षा और कौशल विकास का अधिकार, समानता का अधिकार, नाम और राष्ट्रीयता का अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार, सूचना माँगने और प्राप्त करने की स्वतन्त्रता का अधिकार, संगम और शान्तिपूर्ण सम्मेलन की स्वतन्त्रता का अधिकार और परिवार का अधिकार आदि सम्मिलित हैं।

इसके अतिरिक्त शरणार्थी बालक, विकलांग बालक, हाशिये पर और असुविधाग्रस्त समुदायों के बालकों के अधिकार, पीड़ित बच्चों के अधिकार आदि भी इसमें सम्मिलित हैं।

राष्ट्रीय बाल बोर्ड का गठन (Formation of National Child Board)

बालकों के स्वास्थ्य पोषण, शिक्षा और उनके कल्याण की गतिविधियों को संचालित करने के लिये एक ऐसा केन्द्र बिन्दु और मंच होना आवश्यक है जिसके माध्यम से बालकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में विभिन्न सेवाओं का नियोजन, समीक्षा और समन्वय हो सके।

ऐसा ही केन्द्र बिन्दु उपलब्ध कराने तथा विभिन्न स्तरों पर सभी आवश्यक सेवाओं का निरन्तर नियोजन और समन्वय सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रीय बाल बोर्ड के गठन की चर्चा बालनीति में की गयी है।

जैसा कि हम जानते हैं कि इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय बाल आयोग बिल, 2001 का प्रारूप निर्मित है। इस प्रारूप में आठ अध्याय हैं जो न मात्र राष्ट्रीय बाल आयोग के गठन की चर्चा करते हैं, अपितु राज्य बाल आयोगों के गठन की भी व्यवस्था करते हैं।

बालकों के विधिक अधिकार

Legal Rights of Children

भारत सरकार द्वारा जो अधिकार बालकों को प्रदान किये गये हैं उन्हें हम दो शीर्षकों में विभक्त कर सकते हैं:-

A. कामगारों की विधियाँ (Methods of Children Workers)

  1. बालक (श्रमगिरवीकरण) अधिनियम [The Children (Pledging of Labour) Act. 1993]
  2. कारखाना अधिनियम (Factories Act 1948)
  3. खान अधिनियम (Mine Act. 1952)
  4. मोटर परिवहन कर्मकार अधिनियम (Moter Transport Workes, Act 1961)
  5. बाल श्रम (प्रतिषेध तथा विनिमय) (Child Labour (Protbition and Regulation) Act. 1986)

उपरोक्त शीर्षकों का विवरण निम्नलिखित है:-

1. बालकों के लिये श्रमगिरवीकरण अधिनियम [The Children (Pledging of Labour)Act 1993]

उपरोक्त अधिनियम बालकों के श्रम को गिरवी करने के लिये करार करने का तथा उन बालकों के जिनका श्रम गिरवी किया गया है, नियोजन का प्रतिषेध करने के लिये अधिनियमित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार बालक के श्रम को गिरवी करने का करार शून्य होगा।

इस अधिनियम प्रयोजनों के लिये ‘बालक’ से अभिप्राय 15 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति है। बालकों के श्रम को गिरवी करने का करार से ऐसा लिखित या मौखिक, अभिव्यक्त या विवक्षित करार अभिप्रेत है जिसके द्वारा बालक का माता-पिता संरक्षण अपने द्वारा प्राप्त किया गया, प्राप्त किये जाने वाले किसी सन्दाय प्रसुविधा के बदले में इस बात का वचन देता है कि वह बालक की सेवाओं का उपयोग किसी नियोजन में किया जाना पारित अनुज्ञात करेगा।

यहाँ अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिये, दण्ड की भी व्यवस्था है।

2. कारखाना अधिनियम (Factories Act 1948)

बालकों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने वाला एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम, कारखाना अधिनियम, 1948 है। इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार बालकों से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसने 15 वर्ष की आयु प्राप्त कर
ली हो किन्तु 18 वर्ष की आयु प्राप्त न कर ली हो, वह ‘किशोर’ है। बालकों के कार्य की शर्तों से सम्बन्धित प्रावधान मुख्यतया अध्याय VII धाराएँ 67-77 में पाये जा सकते हैं।

यहाँ अधिनियम की कतिपय अन्य धाराएँ 23,27,98 और 104 भी बाल समस्याओं से सम्बन्धित प्रावधानों की विवेचना करती हैं। कोई बालक धारा 67 के अनुसार जिसने 14 वर्ष की आयु न प्राप्त कर ली हो, किसी कारखाने में नियोजित नहीं किया जायेगा।

इस प्रकार 14 वर्ष से कम आयु के बालकों का कारखाने में नियोजन प्रतिबन्धित है, अर्थात् प्रतिषेध पूर्ण है। 14 वर्ष के ऊपर के बालकों को कतिपय शर्तों के साथ नियोजित किया जा सकता है।

3. खान अधिनियम (Mines Act 1952)

बाल श्रम को ‘खान अधिनियम’ खान में अथवा किसी भूमिगत खान में बालक की उपस्थिति या खुली खदानों में जहाँ खुदाई सम्बन्धी क्रिया चल रही हो प्रतिबन्धित करता है। यहाँ मूलरूप में बालक से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति जिसने 15 वर्ष की आयु न प्राप्त कर ली हो, से है। किन्तु अब यह उम्र 14 वर्ष कर दी गयी है। अन्य अधिनियमों की भाँति यह भी कार्य के घण्टों, साप्ताहिक आराम आदि के लिये प्रावधान करता है।

4. मोटर परिवहन कर्मकार अधिनियम (Motor Transport Workers,Act1961)

यह अधिनियम किसी मोटर परिवहन उपक्रम में बालक के नियोजन का, किसी भी विभाग में, प्रतिषेध करता है। उपरोक्त अधिनियम किशोर के नियोजन की अनुमति तो देता है, किन्तु कतिपय शर्तों के साथ। यहाँ ‘बाल’ से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसने 14 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं की हो और ‘किशोर’ से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसने 14 वर्ष की आयु तो पूरी कर ली हो किन्तु 18 वर्ष की आयु न पूरी की हो।

5. बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियम) अधिनियम [Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986]

बालक के कतिपय नियोजनों को प्रतिषेधित करने के लिये तथा कतिपय अन्य नियोजनों में कार्य की शर्तों का विनियमन करने हेतु, इस अधिनियम को अधिनियमित किया गया है।

इस अधिनियम की धारा 2 के प्रावधानों के अनुसार ‘बालक’ एक व्यक्ति से अभिप्रेत है जिसने अपनी उम्र के चौदह वर्ष पूरा न किये हों।

यह अधिनियम बालकों के नियोजन को उन उपजीविकाओं में जो इसके साथ संलग्न अनुसूची के भाग ‘क’ में दिये गये हैं, या ऐसे किसी कर्मशाला में जिसके अनुसूची के भाग ‘ख’ में उल्लिखित प्रक्रियाएँ जारी रखी जाती हैं, का प्रतिषेध करता है। किन्तु इसके प्रावधान ऐसी कर्मशाला पर जिसके अन्तर्गत प्रक्रियाएँ जारी रखी जाती हैं, अपने परिवार या किसी विद्यालय जिसकी स्थापना सरकार द्वारा की गयी है या जिस सरकार से सहायता या मान्यता प्राप्त है की सहायता से लागू नहीं होते।

अधिनियम के साथ संलग्न अनुसूची के भाग ‘क’ में उल्लिखित उपजीविकाएँ निम्नलिखित हैं:-

  1. रेलवे स्टेशनों पर खान-पान व्यवस्था में काम करना जहाँ विक्रेता का अवागमन अन्तर्ग्रस्त हो या स्थापन के किसी कर्मचारी का एक प्लेटफार्म से दूसरे प्लेटफार्म पर या गाड़ियों में आना जाना होता हो।
  2. रेल मार्ग द्वारा यात्रियों, माल या डाक का परिवहन।
  3. अधजला कोयला इकट्ठा करना, राख के गड्ढों को साफ करना।
  4. रेलवे स्टेशनों से सम्बन्धित निर्माण कार्य या ऐसा अन्य निर्माण कार्य जो रेलवे लाइन के सन्निकट चल रहा हो।
  5. चमड़ा-निर्माण।
  6. अभ्रक की कटाई तथा तुड़ाई।
  7. माचिस, विस्फोटक और पटाखों का निर्माण।
  8. कपड़े की छपाई, रंगाई और बुनाई।
  9. सीमेण्ट निर्माण तथा सीमेण्ट बोरियों में भरना।
  10. गलीचा बनाना।
  11. बीड़ी बनाना।

उपरोक्त उपजीविकाओं की सूची से स्पष्ट है कि ये जीवन, अंग और स्वास्थ्य के लिये जोखिम पैदा करने वाली हैं। यहाँ हमें यह नहीं मानना चाहिये कि सूची विस्तृत है तथा इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपजीविका अथवा प्रक्रिया ऐसी नहीं हो सकती जो परिसंकटमय न हो।

अधिनियम में इसके अतिरिक्त काम के घण्टे और अवधि, साप्ताहिक छुट्टी तथा बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा से सम्बन्धित प्रावधान भी दिये गये हैं।

इस सम्बन्ध में शिक्षु अधिनियम (Apprenties Act, 1961) तथा बीड़ी तथा सिगार कर्मकार (नियोजक की शर्ते) अधिनियम (The Beedi and Cigar Worker (Conditions of Employment Act, 1966) तथा बीड़ी कर्मकार उपकर अधिनियम, 1976 बीड़ी कर्मकार कल्याण निधि अधिनियम, 1976 का भी उल्लेख अप्रासंगिक न होगा, जो बच्चों के अधिकार और कल्याण से सम्बन्धित हैं।

B. अपचारी और उपेक्षित शिशुओं से सम्बन्धित अधिकार Laws Relating to Delinquent and Neglected Children)

यहाँ पर इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice, Act) 1986 का उल्लेख सुसंगत होगा। विशेष रूप से यह अधिनियम अपेक्षित अथवा अपचारी किशोरों की देखरेख, संरक्षण उपचार, विकास और पुनर्वास का तथा अपचारी किशोरों से सम्बन्धित विषयों के न्याय निर्णयन का और उनके आवास आदि का उपबन्ध करने के लिये अधिनियमित किया गया है।

अन्य शब्दों में, यह अपचारी और अपेक्षित किशोरों की देखरेख, संरक्षण और उनसे सम्बन्धित अपराधों के न्याय निर्णयन आदि के लिये विस्तृत कानूनी ढाँचा तैयार करता है।

इस अधिनियम के अन्तर्गत ‘किशोर‘ से अभिप्रेत है ऐसा बालक जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त न की हो अथवा ऐसी बालिका जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त न की हो।

इसके अतिरिक्त ‘अपचारी किशोर‘ से ऐसा किशोर अभिप्रेत है जिसके विषय में यह ठहराया गया है कि उसने अपराध किया है।

उपेक्षित किशोर से ऐसा किशोर अभिप्रेत है जो भीख माँगता है, जिसके पास कोई निश्चित निवास स्थान या जीवन निर्वाह का दृश्यमान साधन नहीं है, जिसके माता-पिता या संरक्षक उस पर नियन्त्रण रखने में असमर्थ हैं, जो वेश्यावृति या उसके प्रयोजनार्थ उपभोग में लाया जाता है और जिसका अनैतिक या अवैध प्रयोजनों या लोकात्मा के विरुद्ध लाभ के लिये दुरुपयोग या शोषण किया जा रहा है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम

Right to Education Act

6 से 14 वर्ष तक की आयु के प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। संविधान के 86वें संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है। जिसमें प्रावधान है कि सरकारी विद्यालय सभी बालकों को निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध करायेंगे और विद्यालयों का प्रबन्धन विद्यालय प्रबन्ध समितियों द्वारा किया जायेगा।

निजी विद्यालय न्यूनतम 25 प्रतिशत बालकों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे। इस प्रकार गुणवत्ता सहित प्रारम्भिक शिक्षा के सभी पहलुओं पर दृष्टि रखने के लिये प्रारम्भिक शिक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग की आवश्यकता अनुभव की गयी है।

शिक्षा के अधिकार की पृष्ठभूमि (Background of right to education)

दिसम्बर सन् 2002 अनुच्छेद 21ए (भाग 3) के माध्यम से 86वें संशोधन विधेयक में 6 से 14 वर्ष तक के सभी बालकों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया है।

इस अनुच्छेद में वर्णित कानून, अर्थात् बालकों के लिये नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा विधेयक सन् 2003 को तैयार कर अक्टूबर 2003 में इसे वेबसाइट पर डाला गया और जनसाधारण से इस पर राय और सुझाव आमन्त्रित किये गये।

सन् 2004 में इस पर प्राप्त सुझावों के अनुसार निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा विधेयक सन् 2004 का संशोधित रूप तैयार कर education.gov.in वेबसाइट पर दे दिया गया।

जून सन् 2005 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् समिति ने शिक्षा के अधिकार विधेयक का प्रारूप तैयार किया और उसे मानव संसाधन विकास मन्त्रालय को सौंपा। मानव संसाधन विकास मन्त्रालय ने इसे नैक को दिया, जिसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी थीं। नैक ने इस विधेयक को प्रधानमन्त्री के ध्यानार्थ भेजा।

14 जुलाई सन् 2006 को वित्त समिति और योजना आयोग ने कोष के अभाव का कारण बताते हुए विधेयक को अस्वीकार कर दिया और एक मॉडल विधेयक तैयार कर आवश्यक व्यवस्था करने के लिये राज्यों को भेजा। 76वें संशोधन के पश्चात् राज्यों ने राज्य स्तर पर कोष की कमी की बात कही थी।

19 जुलाई सन् 2006 में सीएसीएल, एसएएएफई, एनएएफआरई और केन्द्र ने आईएलपी तथा अन्य संगठनों को योजना बनाने तथा संसद की कार्यवाही के प्रभाव पर विचार करने एवं भावी रणनीति तय करने और जिला तथा ग्राम स्तर पर उठाये जाने वाले कदमों पर विचार के लिये आमन्त्रित किया।

शिक्षा के अधिकार विधेयक का महत्व (Importance of right to education act)

यह महत्त्वपूर्ण विधेयक है क्योंकि संवैधानिक संशोधन लागू करने की दिशा में, सरकार की सक्रिय भूमिका का यह प्रथम कदम है और यह विधेयक निम्नलिखित कारणों से महत्त्वपूर्ण है:-

  1. इसमें प्रारम्भिक तथा माध्यमिक स्तर पर निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का कानूनी प्रावधान है।
  2. प्रत्येक क्षेत्र में एक विद्यालय का इसमें प्रावधान है।
  3. इसके अन्तर्गत विद्यालय की देखरेख समिति के गठन का भी प्रावधान है, जो समुदाय के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से विद्यालय की कार्यप्रणाली की देखरेख करेगी।
  4. 6 से 14 वर्ष के आयुवर्ग के किसी भी बालक को नौकरी में नहीं रखने का प्रावधान है। अब इनसे श्रम नहीं लिया जा सकता।

उपरोक्त प्रावधान एक सामान्य विद्यालय प्रणाली के विकास की नींव रखने की दिशा में प्रभावी कदम हैं। इससे सभी बालकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा सकेगी और इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को अलग-अलग करने में रोक लग सकेगी।

6 से 14 वर्ष के आयुवर्ग की शिक्षा के उद्देश्य

इस विधेयक में सभी बालकों को अनिवार्य रूप से प्रारम्भिक से माध्यमिक विद्यालय तक की शिना देने पर बल दिया गया है जिससे इस आयु वर्ग के बालकों को शिक्षा देने से उनके भविष्य का आधार तैयार हो सके।

कानून का अर्थ एवं महत्त्व

यह कानून सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक बालक को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्राप्त है और इसे राज्य, परिवार और समुदाय की सहायता से पूर्ण किया जाता है।

निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अर्थ

6 से 14 वर्ष तक की आयु के सभी बालकों को अपने पड़ोस के विद्यालयों में नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलेगा।

इसके लिये बालक या उनके अभिभावकों से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शुल्क विद्यालय शुल्क, गणवेश, पाठ्य-पुस्तकें, मध्य भोजन तथा परिवहन शुल्क नहीं लिया जायेगा।

सरकार बालक को नि:शुल्क विद्यालय सुविधा उपलब्ध करायेगी, जब तक कि उसकी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण नहीं होती।

समुदाय और अभिभावकों की भूमिका

निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून सन् 2009 का पारित होना भारत के बालकों के लिये ऐतिहासिक क्षण है। भारत के इतिहास में पहली बार बालकों को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया गया है, जिसे राज्य सरकार द्वारा परिवार और समुदायों की सहायता से पूरा किया जायेगा।

ऐसा अनुमान है कि 2009 तक भारत में 6 से 14 वर्ष के आयुवर्ग के ऐसे 80 लाख बालक हैं जो विद्यालय नहीं जाते थे। विश्व समुदाय भारत के बिना सन् 2015 तक प्रत्येक बालक को प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कराने के अपने उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर सकता।

शिक्षा के अधिकार विधेयक की स्वीकृति

Approval of Right to Education Act

भारतीय संविधान में संशोधन के छ: वर्ष पश्चात् केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को स्वीकृति दे दी। प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिलने से पहले, इसे संसद की स्वीकृति के लिये भेजा गया।

स्वतन्त्रता के 61 वर्ष पश्चात् भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को स्वीकृति दी है, अब 6 से 14 वर्ष की आयु तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाना सभी बालकों का मौलिक अधिकार बन गया है। इस प्रकार यह विधेयक के प्रमुख प्रावधानों में सम्मिलित है।

विद्यालय में प्रवेश के स्तर पर आसपास के बालकों को विद्यालयों के नामांकन में 25 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। विद्यालयों द्वारा किये गये व्यय की भरपायी सरकार करेगी।

अब नामांकन के समय कोई डोनेशन या कैपीटेशन शुल्क नहीं लिया जायेगा और छंटनी प्रक्रिया के लिये बालक या उसके अभिभावकों का साक्षात्कार नहीं होगा।

विधेयक में शारीरिक दण्ड देने, बालकों के निष्कासन और जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबन्धन के अतिरिक्त शिक्षकों के गैर-शिक्षण कार्य करने पर रोक लगा दी गयी है। अब अध्यापकों से इन कार्यों के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य नहीं लिया जायेगा।

गैर मान्यता प्राप्त विद्यालय चलाने पर दण्ड लगाया जा सकता है। भारत के तत्कालीन वित्तमन्त्री पी. चिदम्बरम् ने इसे बालकों के लिये किया गया महत्त्वपूर्ण संकल्प कहते हुए कहा कि “शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने से निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देना केन्द्र और राज्यों का संवैधानिक दायित्व हो गया। कुछ लोग इसे सरकार के उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिये निजी क्षेत्र को विवश करने के दृष्टिकोण से भी देखते हैं।

शिक्षा का अधिकार विधेयक 86वें संविधान संशोधन को कानूनी रूप से अधिसूचित कर सकता है, जिसमें 6 से 14 वर्ष के प्रत्येक बालक को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है।

सन् 1936 में जब महात्मा गाँधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी तब उन्हें लागत जैसे विषय जो आज भी जीवित हैं का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में छोड़ दिया था, जिसमें 14 वर्ष तक की आयु के बालकों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का दायित्व राज्यों पर छोड़ दिया गया।

शिक्षा का अधिकार संरक्षित करने की रूपरेखा

Countenance to Protection of Right to Education

निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम के प्रावधानों पर दृष्टि रखने के लिये तथा बाल अधिकारों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय आयोग (एनपीसीआर) को एजेन्सी के रूप में नामित किया गया है। यह सुनिश्चित करने हेतु कि RTE धिनियम सफलतापूर्वक ईमानदारी से लागू किया जाता है, एनसीपीआर ने संस्थाओं, सरकारी विभागों, नागरिकों और अन्य हितधारकों के बीच एक आम सहमति बनाने के लिये पहल की है।

शिक्षा के अधिकार के समुचित कार्यान्वयन के लिये योजना पर ध्यान केन्द्रित करने हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की गयी है। जिसमें विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारी, शिक्षा के क्षेत्र में श्रेष्ठ कार्य करने वाले और अनुभवी व्यक्ति सम्मिलित हैं।

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय योजना

Kasturba Gandhi Girls School Plan

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र सरकार द्वारा किया गया वह महत्त्वपूर्ण प्रयास है जो कि शिक्षा से वंचित छात्राओं को शिाक्षत करने के लिये रामबाण सिद्ध हुआ है। इस प्रकार के विद्यालयों को ब्लॉक स्तर पर स्थापित किया गया है। इसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़े वर्ग की छात्राओं को अध्ययन के लिये प्रवेश दिया जाता है। यह विद्यालय विकास खण्डों में स्थापित किये गये हैं जो शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं तथा दुर्गम स्थानों से सम्बन्धित हैं।

कस्तूरबा गाँधी विद्यालयों का स्वरूप पूर्णतः आवासीय है। इनमें अध्ययन करने वाली छात्राओं को कक्षा एक से पाँच तक तक शिक्षा प्रदान की जाती है जो छात्राएँ समाज के दलित एवं पिछड़े वर्ग से सम्बन्धित हैं तथा किसी कारणवश शिक्षा से वंचित रह गयी हैं। उन समस्त छात्राओं को इन विद्यालयों में प्रवेश कराकर उन्हें पूर्ण साक्षर बनाया जाता है।

वर्तमान समय में 750 कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय कार्य कर रहे हैं। इनके कार्यों के सन्तोषजनक परिणाम भी आ रहे हैं।

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों के उद्देश्य (Aims of Kasturba Gandhi Girls School)

कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों के प्रमुख उद्देश्यों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है:-

  1. कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालयों का उद्देश्य दुर्गम एवं पिछड़े क्षेत्र में बालिका शिक्षा के प्रति जागरुकता उत्पन्न करना है, जिससे सभी अभिभावक बालिकाओं की शिक्षा पर ध्यान दें।
  2. गरीब एवं पिछड़े वर्ग की बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना है, जिससे गरीबी उनके लिये अभिशाप एवं अध्ययन की बाधा न बने।
  3. विद्यालय के आवासीय स्वरूप का उद्देश्य बालिकाओं को प्रतिदिन विद्यालय आने-जाने से मुक्ति प्रदान करना तथा आर्थिक कठिनाइयों से मुक्त करना है; जैसे-भोजन, किताबें तथा पेन्सिल आदि पर किये गये व्यय से मुक्त करना।
  4. जिस क्षेत्र में महिलाओं की साक्षरता दर अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम है उस क्षेत्र की बालिकाओं को पूर्ण साक्षर बनाना जिससे उस क्षेत्र की साक्षरता दर को अन्य क्षेत्रों के समान स्तर पर पहुँचाया जाय।
  5. जिन क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों का अभाव है तथा शिक्षा के साधन उपलब्ध नहीं हैं उस क्षेत्र की बालिकाओं को शिक्षित करना कस्तूरबा गाँधी विद्यालयों का प्रमुख उद्देश्य है।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि कस्तूरबा गाँधी छात्रा विद्यालय सर्व शिक्षा अभियान एवं सम्पूर्ण साक्षरता अभियान की कड़ी के रूप में हैं, जो विशेष रूप से दुर्गम एवं पिछड़े क्षेत्र की छात्राओं को शिक्षित करने के लिये स्थापित किये गये हैं। इस प्रकार के विद्यालयों में छात्राएँ पूर्ण रूप से शैक्षिक वातावरण के अन्तर्गत निःशुल्क रूप से शिक्षा प्राप्त करती हैं। इससे छात्रा शिक्षा के प्रति समाज में जागरुकता उत्पन्न होती है।