शैक्षिक प्रशासन एवं संगठन में सम्प्रेषण और इसकी उपयोगिता – शैक्षिक सम्प्रेषण

Shaikshik Sampreshan

शैक्षिक प्रशासन में सम्प्रेषण (Communication in Educational Administration)

मानव एक सामाजिक प्राणी है, जो समाज में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता है। सम्प्रेषण भी एक सामाजिक प्रक्रिया है। सम्प्रेषण एक पक्षीय न होकर दो पक्षीय या बहुपक्षीय प्रक्रिया है। इसमें एक पक्ष अपने विचारों तथा भावों का दूसरे पक्ष को आदान-प्रदान करता है। यही प्रक्रिया जब शिक्षा प्रशासन के क्षेत्र में होती है तो शैक्षिक सम्प्रेषण कहलाती है।

शिक्षा प्रशासन में सम्प्रेषण को निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है:-

  1. यह सम्प्रेषण शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किया गया सम्प्रेषण है।
  2. सम्प्रेषण की विषयवस्तु शिक्षा प्रशासन, पाठ्यक्रम अथवा पाठ्य सहगामी क्रियाओं से सम्बन्धित होती है।
  3. शैक्षिक प्रशासन के संचालन के लिये सम्प्रेषण का प्रयोग किया जाता है।
  4. छात्रों को समझाने के लिये सम्प्रेषण का प्रयोग किया जाता है। प्रभावशाली शिक्षण के लिये प्रभावशाली सम्प्रेषण होना आवश्यक है।

शैक्षिक प्रशासन की सफलता मानवीय संसाधनों के परस्पर सहयोग पर निर्भर करती है। शिक्षा प्रशासन से सम्बन्धित सभी व्यक्ति परस्पर विचारों के आदान-प्रदान के द्वारा ही शैक्षिक संगठन, नियोजन तथा प्रबन्धन की रूपरेखा तैयार करते हैं। यदि शिक्षा प्रशासन में विचारों की ये पारस्परिक आदान-प्रदान अर्थात् सम्प्रेषण न हो तो कोई भी शैक्षिक कार्य होना असम्भव है। अत: शैक्षिक कार्यक्रमों के प्रशासन और प्रबन्धन में सम्प्रेषण अत्यन्त आवश्यक है।

एक प्रशासक अथवा प्रधानाचार्य सम्प्रेषण के द्वारा ही अपने शिक्षकों और कर्मचारियों से सम्बद्ध हो सकता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया के द्वारा वह अपने अधीनस्थों में कार्य विभाजन करता है और शिक्षण प्रक्रिया की सभी गतिविधियों के लिये निर्देशन प्रदान करता है। इसी प्रकार शिक्षक और छात्रों के मध्य होने वाला सम्प्रेषण भी छात्रों की शैक्षिक प्रगति के लिये आवश्यक है।

विद्यालय में होने वाले निरीक्षण और पर्यवेक्षण में भी सम्प्रेषण आवश्यक है। इसी प्रकार विद्यालय के छात्रों को निर्देशन और परामर्श की प्रक्रिया का आधार भी सम्प्रेषण है। बिना सम्प्रेषण के न तो एक प्रशासक ही अपना कार्य कर सकता है और न ही शिक्षक।

छात्र-छात्राएँ भी शिक्षण कार्य में बिना सम्प्रेषण के सफल नहीं हो सकते और न ही विद्यालय का कोई कर्मचारी अपना कार्य ठीक प्रकार से कर सकता है।

अत: शैक्षिक प्रशासन के क्षेत्र में सम्प्रेषण एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जो शैक्षिक प्रशासन और प्रबन्धन के लिये आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य है।

शैक्षिक संगठन में सम्प्रेषण की उपयोगिता (Utility of Communication in Educational Organisation)

शैक्षिक संगठन जिन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बनाया जाता है। उनकी प्राप्ति के लिये अनेक साधनों के मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है। शैक्षिक संगठन में सामान्यतः शिक्षण प्रक्रिया को इस प्रकार संगठित किया जाता है कि समाज की आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सके।

इन उद्देश्यों की प्राप्ति में सम्प्रेषण किस प्रकार सहयोग प्रदान करता है। इसका वर्णन निम्न शीर्षकों के माध्यम से करेंगे:-

1. क्रियाओं में सहयोग एवं समन्वय (Co-operation and adjustment in process)

शैक्षिक संगठन में यह विशेषता पायी जाती है कि क्रियाओं के मध्य समन्वय होना चाहिये। इसी आधार पर शैक्षिक संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है। सम्प्रेषण के माध्यम से यह प्रक्रिया अधिक आसान हो जाती है क्योंकि प्रत्येक कार्य के लिये व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र को निश्चित कर दिया जाता है और समय-समय पर उसको पर्यवेक्षण के माध्यम से सुधार के सुझाव प्रस्तुत कर दिये जाते हैं। जिससे क्रियाओं के मध्य सहयोग एवं समन्वय स्थापित हो जाता है।

2. शैक्षिक अवसरों की समानता (Equality of educational opportunities)

शैक्षिक संगठन की प्रमुख विशेषता समस्त वर्ग के व्यक्तियों के लिये शिक्षा के समान अवसर प्रदान करना है। इसके लिये सम्प्रेषण के माध्यम से विभिन्न प्रकार के विद्वानों के विचार जानकर एवं विचार-विमर्श करके सामाजिक ऊँच-नीच को कम किया जाये तथा शिक्षा सभी के लिये अनिवार्य है। इसके द्वारा ही समाज एवं राष्ट्र की उन्नति सम्भव है।

कोई ऊँचा और कोई नीचा नहीं है। इस प्रकार की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करके शिक्षा प्रणाली को सभी के लिये सरल बनाकर शैक्षिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। इस कार्य में सम्प्रेषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है क्योंकि सम्प्रेषण के अभाव में यह कार्य पूर्ण नहीं हो सकता है।

3. परम्पराओं का निर्माण (Formation of traditions)

शैक्षिक संगठन का उद्देश्य छात्रों में स्वस्थ सामाजिक परम्पराओं का निर्माण करना एवं अन्धविश्वासों को दूर करना है। सम्प्रेषण के द्वारा हम पुरानी रीति-रिवाजों को त्याग देते हैं क्योंकि समाज की नवीन विचारधाराएँ जब हमारे सामने आती हैं तो उनका प्रयोग हम समाज के उत्थान के लिये करते हैं।

यही विचार धीरे-धीरे एक स्वस्थ परम्परा का रूप धारण कर लेते हैं; जैसे– खेलकूद एवं पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का शैक्षिक संगठन में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं था किन्तु धीरे-धीरे पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों के विचार एवं स्वयं के विचारों द्वारा यह तथ्य निश्चित किया गया कि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएँ छात्र के विकास के लिये परम आवश्यक हैं तो आज उनको प्रत्येक विद्यालय के शैक्षिक संगठन में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाय। इसका सम्पूर्ण श्रेय सम्प्रेषण की प्रक्रिया को ही जाता है।

4. सामाजिक गुणों का विकास (Development of social merits)

शैक्षिक संगठन में सामाजिक गुणों के विकास को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके विकास में सम्प्रेषण की महत्त्वपूर्ण भूमिका है; जैसे– विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के माध्यम से ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाय जिससे प्रत्येक व्यक्ति के विचारों से सभी छात्र परिचित हो सकें और अपने विचार भी प्रस्तुत कर सकें। आवश्यकता के अनुरूप किसी विद्वान व्यक्ति को भी विचार मन्थन के लिये आमन्त्रित किया जा सकता है।

इस प्रकार कुछ सामाजिक गुणों का विकास तो सामाजिक विचारकों के विचारों से होगा और कुछ गुण, जैसेसहयोग, कर्तव्य, निष्ठा एवं श्रम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण आदि उस कार्यक्रम में सहभागिता के कारण उत्पन्न होंगे। अतः छात्रों में सामाजिक गुणों का विकास होगा।

5. नागरिकता का विकास (Development of good citizenship)

शैक्षिक संगठन के माध्यम से विद्यालयों में अच्छे नागरिक तैयार किये जाते हैं, जिनमें नागरिकता के समस्त गुण विद्यमान होते हैं। सम्प्रेषण की भूमिका के रूप में हमें विद्यालय में नागरिकता के गुणों का विकास करने वाले साहित्य को पाठ्यक्रम में स्थान प्रदान करना चाहिये और राष्ट्रीय पर्वों को उत्साहपूर्वक मनाना चाहिये, जिससे देश प्रेम एवं राष्ट्रीय एकता जैसे गुणों का विकास हो सके।

समय-समय पर बाल सभा एवं अन्य आयोजनों में राजनैतिक चेतना, कर्त्तव्य एवं अधिकारों का वर्णन भी करना चाहिये जिससे छात्रों में एक सच्चे नागरिक के गुणों का विकास सम्भव हो सके।

6. शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति (Getting of educational aims)

शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति सम्प्रेषण साधनों के अभाव में सम्भव नहीं है क्योंकि प्राचीन काल की भाँति शिक्षा का कोई एक उद्देश्य नहीं है, बल्कि उद्देश्यों की अधिकता के कारण सम्प्रेषण साधनों का प्रयोग अनिवार्य है; जैसे– माध्यमिक स्तर पर छात्रों को निर्देशन एवं परामर्श के उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो सम्प्रेषण साधनों का प्रयोग अनिवार्य रूप से करना होगा।

यदि हम छात्र की रुचि और योग्यता को ज्ञान के अभाव में परामर्श देते हैं तो उसका कोई अर्थ नहीं होगा। इसलिये छात्र की रुचि एवं योग्यता जानने के लिये हमें उसके साथ विचार-विमर्श करना होगा उसकी साहित्यिक एवं सामाजिक रुचियों का ज्ञान प्राप्त करना होगा तभी हम उसको उचित परामर्श एवं निर्देशन प्रदान कर सकेंगे।

7. मूल्यांकन (Evaluation)

मूल्यांकन प्रणाली में भी सम्प्रेषण की प्रक्रियाओं से ही उचित एवं प्रभावी मूल्यांकन सम्भव है क्योंकि परीक्षा प्रणाली के विभिन्न रूप से जो विद्यालयों में देखने को मिलते हैं उसका समस्त श्रेय सम्प्रेषण को जाता है। यदि मूल्यांकन प्रणाली के सन्दर्भ में विद्वानों द्वारा विचारों को आदान-प्रदान नहीं होता है तो उनके गुण-दोषों पर चर्चा नहीं होती है।

आज के वर्तमान समय में परीक्षा प्रणाली के विविध रूप दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। एक ही प्रकार की परीक्षा प्रणाली सम्पूर्ण विद्यालयों में प्रचलित होती है किन्तु सम्प्रेषण साधनों के विकास एवं सैद्धान्तिक विचारों ने परीक्षा प्रणाली को इस प्रकार बना दिया कि उसके द्वारा छात्र की प्रत्येक गतिविधि एवं शैक्षिक ज्ञान का मूल्यांकन किया जा सकता है।

8. समय सारणी का निर्माण (Formation of time-table)

शैक्षिक संगठन के लिये आदर्श समय सारणी प्राण वायु के समान है। एक अच्छी समय सारणी ही विद्यालय की छवि एवं शैक्षिक व्यवस्था को महत्त्वपूर्ण बनाती है।

सम्प्रेषण की अवधारणा ही एक आदर्श समय सारणी का निर्माण कर सकती है क्योंकि समय सारणी के निर्माण से पूर्व विषयों के महत्त्व एवं कालांश के सन्दर्भ में पूर्ण विचार-विमर्श होना चाहिये। इसके पश्चात् आयु एवं स्तर के अनुसार कालांश का निर्धारण करना चाहिये।

समय-समय पर छात्रों, अभिभावकों एवं शिक्षकों के सुझावों पर ध्यान देते हुए उसमें आवश्यक परिवर्तन भी करना चाहिये। यह सभी क्रियाएँ सम्प्रेषण साधनों एवं प्रक्रिया से सम्बन्धित होनी चाहिये।

9. व्यक्तित्व का विकास (Development of personality)

शैक्षिक संगठन का प्रमुख दायित्व प्रत्येक छात्र के व्यक्तित्व का विकास करना होता है जिसमें सम्प्रेषण के साधन अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। व्यक्तित्व के विकास में शिक्षक का व्यवहार ही, अन्य छात्रों का व्यवहार एवं विद्यालय परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है।

विद्यालय परिवेश को शैक्षिक एवं सामाजिक बनाने के लिये छात्रों के मध्य सहयोग एवं सहानुभूति का व्यवहार करना होगा। प्रत्येक छात्र उसके विचार एवं समस्या सुनने के बाद उसका समाधान भी करना होगा। उसमें समायोजन की क्षमता का विकास करना होगा जिससे कि उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके।

10. मानवता एवं नैतिकता का विकास (Development of humanity and morality)

शैक्षिक संगठन का प्रमुख उद्देश्य सृजनात्मकता के माध्यम से छात्रों में उच्च मानवीय और नैतिक आदर्शों का विकास करना होता है जो कि सम्प्रेषण द्वारा ही सम्भव होता है। उदाहरण के लिये, सत्य और अहिंसा का हमारे समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान होने का प्रमुख कारण विद्वानों द्वारा इन तथ्यों को स्वीकार करना तथा समय-समय पर उनके पालन के लिये कष्ट सहना है।

अत: यह कहा जा सकता है कि अच्छे विचारों का प्रभाव एवं साहित्य के अध्ययन का प्रभाव छात्र में मानवीय गुणों का विकास करता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया सम्प्रेषण के माध्यम से ही सम्पन्न होती है।

निष्कर्ष:-

इस प्रकार उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्प्रेषण वह धुरी है जिसे पर शैक्षिक संगठन चक्र की भाँति घूमता रहता है। यदि सम्प्रेषण की अवधारणा का विकास नहीं हुआ होता तो विद्यालय के शैक्षिक संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करना सरल कार्य नहीं होता है।

आज सम्प्रेषण द्वारा ही सम्पूर्ण कार्य शैली एवं संगठन में अभूतपूर्व विकास हुआ है। इस सन्दर्भ में श्रीमती आर. के. शर्मा लिखती हैं कि,

विद्यालय व्यवस्था में शैक्षिक संगठन का छात्र के सर्वांगीण विकास से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध होता है जो कि सम्प्रेषण के माध्यम से सरलतापूर्वक विकसित किया जा सकता है जिसके माध्यम से शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति सरलता से हो जाती है। छात्र के सर्वांगीण विकास में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती है जिसका श्रेय सम्प्रेषण के साधनों को जाता है यदि सम्प्रेषण का अभाव ही शिक्षा के सामान्य उद्देश्य भी प्राप्त नहीं हो सकेंगे।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्प्रेषण का शैक्षिक संगठन में महत्त्वपूर्ण स्थान है जो कि विद्यालय की छवि के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।

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