अभाव आवश्यकताएँ (Deficiency Needs, D-needs)

Abhav Avashyakta

अभाव आवश्यकताएँ

शारीरिक आवश्यकताएँ जैसे- भूख, प्यास, सुरक्षा की आवश्यकताएँ, प्रेम तथा सम्बद्धता की आवश्यकताएँ तथा आदर की आवश्यकताएँ आदि अभाव या कमी की आवश्यकताएँ हैं।

अर्थात् इनकी कमी की पूर्ति हेतु व्यक्ति अभिप्रेरित होता है तथा उसी दिशा में कार्य करता है। ये आधारभूत आवश्यकताएँ हैं तथा इनकी पूर्ति के पश्चात् आत्म-विकास एवं ज्ञानात्मक उच्च आवश्यकताएँ उभर आती हैं।

अभाव आवश्यकताएँ निम्नलिखित चार प्रकार की होती हैं-

  1. प्रथम आवश्यकता – शारीरिक आवश्यकता (First Need – Physical Need)
  2. द्वितीय आवश्यकता – सुरक्षा आवश्यकता (Second Need – Safety Need)
  3. तृतीय आवश्यकता – अपनत्व एवं प्यार की आवश्यकता (Third Need – Love and Belongingness)
  4. चतुर्थ आवश्यकता – सम्मान की आवश्यकता (Fourth Need – Esteem Need)

प्रथम आवश्यकता – शारीरिक आवश्यकता (First Need – Physical Need)

मास्लो के पिरामिड की आधारभूत प्रथम आवश्यकता शारीरिक आवश्यकताएँ हैं। जीवन में सर्वाधिक महत्त्व इन आवश्यकताओं का ही है। अत: इन आवश्यकताओं का क्षेत्रफल सर्वाधिक दिखाया गया है।

शरीर में किसी भी प्रकार की भौतिक कमी जैसे- भूख, प्यास, थकान तथा श्वास के लिये वायु एवं स्वास्थ्य आदि में किसी प्रकार की कमी की अनुभूति होने पर व्यक्ति इस कमी की पूर्ति हेतु अनुप्रेरित हो क्रियाशील होता है और उस कमी की पूर्ति करता है। इसे समता की प्रक्रिया (Homeostatic process) कहा गया है।

शारीरिक या दैहिक आवश्यकता बहुत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यद्यपि आत्म-वास्तविकता की दृष्टि से इसे अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। यह जीवित रहने के लिये आधारभूत आवश्यकता है किन्तु इसे निम्न श्रेणी की आवश्यकता के अन्तर्गत रखा गया है।

यह आवश्यकताएँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में प्रभाव डालती हैं; जैसे- भूख, प्यास, नींद, यौनिच्छा एवं मलमूत्र त्याग आदि।

यदि ये आवश्यकताएँ अधिक समय तक अतृप्त रह जाती हैं तो दूसरे प्रकार की आवश्यकताएँ या तो दब जाती हैं या पीछे हट जाती हैं।

जब किसी व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो तब वह उसके लिये कोई भी कार्य करने को तैयार हो जाता है; जैसे-माता-पिता बालक को खाना अथवा मिठाई तब तक प्रदान नहीं करते, जब तक कि वह विद्यालय का कार्य पूर्ण नहीं कर लेता।

किन्तु इसके अपवाद भी हैं; जैसे- भारत के ऋषि मुनि आदि आत्मज्ञान की खोज में शारीरिक आवश्यकताओं की बलि चढ़ा देते हैं।

इन दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति व्यक्ति को अन्य क्रियाओं के लिये गतिशील बनाती है किन्तु इन आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त दूसरे प्रकार की आवश्यकता उभर आती है।

मास्लो ने शारीरिक आवश्यकताओं को अभागीय या व्यर्थ की आवश्यकताएँ माना है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के फलस्वरूप अन्य उद्देश्यपूर्ण व्यवहार एवं आवश्यकताएँ प्रकट हो जाती हैं।

द्वितीय आवश्यकता – सुरक्षा आवश्यकता (Second Need – Safety Need)

जब शारीरिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हो जाती है तब सुरक्षा की आवश्यकताओं का प्रादुर्भाव होता है। इनका मुख्य सम्बन्ध नियम एवं कानून से सुरक्षा बनाये रखना होता है। व्यक्ति

जीवन बीमा की पालिसी लेकर, मकान बनाकर एवं जमीन खरीदकर अपनी सुरक्षा की आवश्यकता की सन्तुष्टि करते हैं। इनका सम्बन्ध जीवन को भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने से है, जीवन में स्थायित्व लाने से, आत्मनिर्भरता से तथा डर से मुक्त रहने से है।

यह आवश्यकताएँ व्यक्ति के विचार एवं व्यवहार को सर्वाधिक प्रभावित करने लगती हैं। मुख्य रूप से छोटे बालकों में ये आवश्यकताएँ अधिक दृष्टिगोचर होती है; जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा होता है तथा प्रौढ़ होता है ये आवश्यकताएँ ओझल होने लगती हैं।

इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु व्यक्ति स्वतः उन क्रियाओं एवं व्यवहारों के प्रति अभिप्रेरित होता है, जिनसे इनकी पूर्ति होती है; जैसे-सुरक्षा के प्रबन्ध करना, धन दौलत एकत्रित करना तथा जमीन जायदाद खरीदना आदि जिससे वर्तमान के साथ-साथ भविष्य भी सुरक्षित हो जाये।

इस आवश्यकता की दृष्टि से बालकों के वातावरण को नियन्त्रित करना अति आवश्यक है। बालक को आभास होना चाहिये कि वे शारीरिक रूप से तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सुरक्षित हैं। उन्हें किसी भी प्रकार के डर में रहने से बचाना चाहिये।

ये सुरक्षा की आवश्यकताएँ व्यक्ति को गतिशील एवं क्रियाशील बनाने में एक शक्तिशाली प्रेरक का कार्य करती हैं।

तृतीय आवश्यकता – अपनत्व एवं प्यार की आवश्यकता (Third Need – Love and Belongingness)

प्रथम दो प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के उपरान्त यह तीसरी प्रकार की आवश्यकता उभर कर व्यक्ति को उस दिशा में क्रियाशील होने के लिये प्रेरित करती है। यह भी एक अभावजनीन आवश्यकता (Deficit need) है अर्थात् प्रेम की कमी को पूरा करने के लिये व्यक्ति अभिप्रेरित होता है।

दूसरों से प्रेम पाने की लालसा से प्रेरित हो वह उस दिशा में क्रियाशील होता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण वह किसी समूह या समुदाय का सदस्य होना चाहता है तथा उस दिशा में अपेक्षित व्यवहार करता है।

छोटे बालकों में यह प्रेम पाने की लालसा अधिक तीव्र रहती है। प्रौढ़ व्यक्ति प्रेम पाने की इच्छा (Egoistic love) से ऊपर उठ कर प्रेम देने की इच्छा (Altruistic love) से प्रेरित होता है।

जिन व्यक्तियों की प्रेम की भूख बचपन में पूरी नहीं होती, उनका व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है तथा वे प्रौढ़ होने पर भी संवेगात्मक अस्थिरता से ग्रसित रहते हैं।

इसी अपनत्व एवं प्यार की आवश्यकता के फलस्वरूप व्यक्ति धर्म तथा समाज के विभिन्न सदस्यों से सम्बन्ध स्थापित करता है। व्यक्ति अपने मूल या स्रोत की तलाश में रहता है तथा समुदाय के बीच अपना स्थान खोजता है।

प्रत्येक व्यक्ति प्रेम पाना भी चाहता है तथा प्रेम देना भी चाहता है। यह प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

मास्लो का विश्वास था कि व्यक्ति इसी कारण प्रेम नहीं करता कि वह इसकी विशेष आवश्यकता या कमी अनुभव करता है बल्कि वह इसलिये भी प्रेम करता है क्योंकि उसमें प्रेम की इतनी बहुलता होती है कि वह उसे दूसरों को बाँटना चाहता है।

प्रेम देने की क्षमता व्यक्ति के बचपन के अनुभवों पर निर्भर करती है। यदि किसी को बचपन में माता-पिता तथा बड़ों से पर्याप्त प्रेम नहीं मिला है तो वह जीवन भर प्रेम की कमी अनुभव करता है।

यहाँ प्रेम से ‘सेक्स‘ या ‘कामेच्छा‘ का अर्थ नहीं है। सेक्स का सम्बन्ध व्यक्ति की दैहिक आवश्यकता से है किन्तु यहाँ प्रेम का संवेगात्मक पक्ष लिया गया है।

प्रेम की आवश्यकता का अनुभव उन व्यक्तियों के जीवन से ज्ञात होता है, जो परिवार-विहीन, मित्र-विहीन हैं या पत्नी तथा बालकों से पृथक रहकर एकान्त जीवन बिताते हैं।

भौतिकवाद का एक अभिशाप यह भी है इसने व्यक्ति को एक-दूसरे से पृथक कर स्वार्थी जीवन बिताने पर मजबूर कर दिया है, जहाँ व्यक्ति परोपकार, त्याग, सहानुभूति तथा संयुक्त परिवार से दूर होता जा रहा है वहीं पारिवारिक तथा सामाजिक सम्बन्ध बिखरते जा रहे हैं। बिखरे परिवार इसी का परिणाम हैं।

चतुर्थ आवश्यकता – सम्मान की आवश्यकता (Fourth Need – Esteem Need)

चौथे प्रकार की आवश्यकता सम्मान की आवश्यकता है। प्रथम तीन प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर सम्मान की आवश्यकता व्यक्ति को प्रेरित करती है, जिसके फलस्वरूप वह ऐसे कार्य करता है, जिससे उसका आत्मसम्मान बढ़े तथा समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ़े।

व्यक्ति समाज में एक सुयोग्य प्रतिष्ठित सदस्य के रूप में रहना चाहता है। सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति के फलस्वरूप व्यक्ति आत्म-विश्वास एवं शक्ति की अनुभूति करता है। वह अपने को योग्य, उपयोगी एवं आवश्यक समझने लगता है।

उसके विपरीत इस आवश्यकता की पूर्ति न होने पर व्यक्ति अपने को निम्न, कमजोर एवं असहाय अनुभव करने लगता है।

सम्मान की आवश्यकताएँ दो प्रकार की होती हैं-

  1. आत्मसम्मान – इसके अन्तर्गत आत्म-मूल्यांकन (Self-evaluation) आत्म-प्रतिष्ठा, स्वमहत्त्व उपलब्धि की अनुभूति, पर्याप्तता, आत्म-विश्वास एवं स्वतन्त्रता का अनुभव आते हैं।
  2. दूसरों से प्राप्त सम्मान – इसके अन्तर्गत दूसरों से आदर पाना, प्रसिद्धि, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं सफलता महत्त्व एवं प्रशंसा की प्राप्ति आते हैं।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सम्मान बाह्य केन्द्रित है। इसका आंतरिककरण (Internalization) बाद में होता है अर्थात् दूसरे लोग किसी व्यक्ति के बारे में जिस प्रकार से सोचते हैं, उसी प्रकार वह व्यक्ति अपने बारे में धारणा बना लेता है।

इस सम्मान की भावना को नियन्त्रित रखने की आवश्यकता है अन्यथा वह व्यक्ति को अहंकारी बना सकती है। सम्मान की आवश्यकता की पूर्ति हो जाने पर इसकी शक्ति कमजोर पड़ जाती है तथा व्यक्ति उच्च सृजनात्मक एवं ज्ञानात्मक आवश्यकताओं के प्रति अग्रसर होता है।

आगे पढ़ें :-

अभिवृद्धि की आवश्यकताएँ अथवा आत्म विकास एवं आत्म-वास्तवीकरण की आवश्यकताएँ (Growth needs, meta needs, being needs and B-needs)

  1. पंचम आवश्यकता – आत्म-वास्तवीकरण (Fifth Need – Self-Actualization)
  2. छठी आवश्यकता – ज्ञान और समझ (Sixth Need – Knowledge and Understanding)
  3. सातवीं आवश्यकता – सौन्दर्य आवश्यकताएँ (Seventh Need – Aesthetic Needs)