सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका

Sikhne ki prakriya me abhiprerna ki bhumika

सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका

Role of Motivation in Learning Process

अभिप्रेरणा सीखने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम है। अधिगम प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति जीवन के सामाजिक, प्राकृतिक एवं वैयक्तिक क्षेत्र में अभिप्रेरणा द्वारा ही सफलता की सीढ़ी तक पहुँच पाता है। यदि उसके लिये उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण नहीं हो पाता तो अभिप्रेरणा का उत्पन्न होना सन्देहप्रद रह जाता है।

सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका का अध्ययन भी अति आवश्यक है, जिसका वर्णन इस प्रकार है-

1. निश्चित उद्देश्य (Definite object)

शिक्षक को चाहिये कि वह विद्यार्थियों के समक्ष कार्य से सम्बन्धित समस्त उद्देश्य रख दे, पुनः स्पष्ट कर दे, ताकि सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली बन सके।

2. आत्म-अभिप्रेरणा (Self-motivation)

उच्च आकांक्षाएँ, स्पष्ट उद्देश्य तथा परिणामों का ज्ञान विद्यार्थी की आत्म-प्रेरणा के लिये प्रोत्साहन का कार्य करते हैं। इनसे आन्तरिक अभिप्रेरणा मिलती है। छात्र, शिक्षक के मार्गदर्शन में ही चारित्रिक विकास एवं आदर्श नागरिकता का विकास करना सीखते हैं।

3. प्रशंसा और निन्दा (Praise and reproof)

शिक्षक को सीखने की परिस्थितियों में प्रशंसा और निन्दा का प्रयोग बहुत ही बुद्धिमानी से करना चाहिये। उन्हें प्रशंसा और निन्दा हेतु विद्यार्थियों की आयु तथा लिंग का ध्यान रखना चाहिये क्योंकि जरा-सी असावधानी से विद्यार्थियों का अहित हो सकता है।

4. अभिप्रेरणा से ध्यान, रुचि और उत्साह प्राप्त करना (Securing attention, interest and enthusiasm by motivation)

कक्षा में अधिगम प्रक्रिया को तीव्र करने के लिये प्राथमिक पूर्ति के रूप में अभिप्रेरणा आवश्यक है। शिक्षक छात्रों में रुचि उत्पन्न कर उनके ध्यान को अधिगम पर केन्द्रित कर देता है। इस प्रकार रुचियों के बढ़ने से अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है, फलस्वरूप नये कौशल, उत्साह और सन्तोषप्रद परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। जब विद्यार्थी अधिकाधिक प्रश्न पूछे तब उस विषय-वस्तु की व्याख्या विस्तृत रूप से की जानी चाहिये।

5. परिपक्वता (Maturation)

यदि शिक्षक विद्यार्थियों की मानसिक आयु तथा मानसिक परिपक्वता के अनुरूप उन्हें कार्य दे तो सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली होगी। अत: परिपक्वता एवं अभिप्रेरणा में समन्वय बैठाया जाय। औपचारिक अधिगम हेतु विद्यार्थी की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सांस्कृतिक रूप से परिपक्वता को देखा जायेगा।

6. अभिप्रेरणा में दृष्टिकोण का महत्त्व (Importance of attitude in motivation)

अभिप्रेरणा में दृष्टिकोण रुचियों और ध्यान से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित होता है। दृष्टिकोण किन्हीं विशेष परिस्थितियों में से किसी व्यक्ति की क्रियाओं का समूह होता है। ये दृष्टिकोण ही अभिप्रेरकों को मार्ग देते हैं। ये नये अनुभवों की केवल तैयारी ही नहीं होते, अपितु अनुभव प्राप्त करने के लिये नयी सीमाएँ भी निर्धारित करते हैं।

7. बालक के व्यक्तित्व को पहचानना (To recognise the personality of student)

कक्षा में छात्र को हतोत्साहित करना या दण्डित करना हानिप्रद होता है। दण्ड या हतोत्साहित करना उचित संवेगी नहीं है। ये उनके व्यक्तित्व को विघटित करते हैं। इनसे छात्रों में झिझक, कुंठा, निश्चितता, आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान में कमी आती है और अनेक बार तो छात्र शाला की क्रियाओं से अलग हो जाते हैं। संवेगों को उचित पोषण एवं मार्ग-दर्शन न मिलने के अभाव में वे अपराधी प्रवृत्ति अपनाते हैं और सीखने के सही मार्ग को छोड़ देते हैं।

8. प्रतियोगिताएँ (Competitions)

सीखने के लिये प्रतियोगिताएँ (स्पर्धा) बहुत प्रभावशाली माध्यम हैं। इनसे विद्यार्थियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्रतियोगिताओं में द्वेष की भावना नहीं होनी चाहिये। प्रतियोगिता और सहयोग लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों के विकास के लिये अभिप्रेरणा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

9. सीखने की इच्छा (Curiosity or will to learn)

प्रभावशाली अधिगम के लिये शिक्षार्थी में सीखने की जिज्ञासा अथवा इच्छा का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिना इच्छा के कोई भी विद्यार्थी अभिप्रेरित नहीं हो सकता और अभिप्रेरणा के अभाव में सीख भी नहीं सकता। सीखने की गति और दक्षता दोनों ही सीखने की जिज्ञासा से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होते हैं।

10. सीखने में अभिप्रेरणा हेतु आवश्यकताएँ (Needs for motivation in learning)

सीखने की इच्छा की सुदृढ़ता हेतु विद्यार्थियों के अचेतन मन की आवश्यकताओं को जाग्रत किया जाना चाहिये। अचेतन आन्तरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं का सबसे अधिक सत्य संकेत होता है।

अतः शिक्षक कक्षा में विद्यार्थियों की आवश्यकताओं पर दृष्टि रखते हुए उन्हें पूरा करके विद्यार्थियों के सीखने की अभिप्रेरणा को विकसित कर सकता है। आवश्यकताओं की पूर्ति से उनके मन में उत्पन्न तनाव कम होता है तथा इस तनाव के कम होने से वे सीखने की प्रक्रिया में संलग्न हो जाते हैं।