ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत – जेरोम ब्रूनर

Jerome Bruner Ka Sangyanatmak Adhigam Siddhant
Jerome Bruner Ka Siddhant

जेरोम ब्रूनर का परिचय (Introduction to Jerome Seymour Bruner)

जेरोम ब्रूनर (Jerome Seymour Bruner) का जन्म 1 अक्टूबर, 1915 को हुआ था, एवं मृत्यु 5 जून, 2016 को हुई थी। ब्रूनर (Jerome Bruner) एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होने मानव के संज्ञानात्मक मनोविज्ञान तथा संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त (cognitive learning theory) पर उल्लेखनीय योगदान दिया। वे न्यू यॉर्क के यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ ला में वरिष्ट अनुसन्धान फेलो थे। उन्होने 1937 में ड्यूक विश्वविद्यालय से बीए किया और 1941 में हारवर्ड विश्वविद्यालय से पी एच डी की।

ब्रूनर ने संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, यह वह माडल है जिसके द्वारा मनुष्य अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। ब्रूनर ने अपना संज्ञान सम्बन्धी अध्ययन सर्वप्रथम प्रौढ़ों पर किया, तत्पश्चात् विद्यालय जाने वाले बालकों पर, फिर तीन साल के बालकों पर और फिर नवजात शिशु पर किया।

ब्रूनर का संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत (Bruner’s Cognitive Learning Theory)

ब्रूनर के सीखने के सिद्धांत के अनुसार पाठ योजना में सूचना प्रक्रिया एवं मॉडल का लेखा-जोखा होता है। इसमें सीखने की समस्या का समाधान तथा तथ्यों एवं प्रत्ययों के बोध हेतु उद्दीपन तथा समुचित वातावरण को उत्पन्न किया जाता है।

सीखने हेतु ब्रूनर द्वारा विकसित प्रतिमान (मॉडल) 1956 में प्रस्तुत किया गया था। इसका प्रयोग पाठ योजना सम्प्रेषण प्रत्यय-निष्पत्ति प्रतिमान सूचना प्रकरण (Information processing) में प्रमुख स्रोत के रूप में किया जाता है। आगमन तर्क के विकास हेतु यह प्रतिमान विशेष उपयोगी है।

ब्रूनर तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने अपने शोधों के द्वारा यह जानने का प्रयत्न किया कि मानव अपने प्रत्ययों की रचना कैसे करता है और उसके अनुसार पर्यावरण में वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों तथा सादृश्य को किस प्रकार देखता है?

ब्रूनर के सीखने के सिद्धांत में प्रतिमानों के अवयव

ब्रूनर के सीखने के सिद्धांत में प्रमुख रूप से चार प्रतिमान के अवयवों का प्रयोग किया जाता है-

1. वस्तुओं, व्यक्तियों एवं घटनाओं की पहचान (Recognition of events, things and pupils)

इस प्रतिमान का पहला अवयव है आधार सामग्री को प्रस्तुत कर प्रत्ययों का बोध कराने के उद्देश्य से रोचक क्रियाओं के द्वारा वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं की पहचान करना।

2. उचित रचना कौशलों का विश्लेषण करना (Analysis of proper creative skills)

पाठ योजना में प्रयुक्त इस प्रतिमान का दूसरा अवयव है आधार सामग्री का विशेष अध्ययन करने के लिये प्रयुक्त किये जाने योग्य रचना कौशलों का विश्लेषण करना।

3. प्रत्ययों का विश्लेषण करना (Analysis of concepts)

तीसरा अवयव है विवरण, वार्ता तथा लिखित सामग्री में मिलने वाले प्रत्ययों का विश्लेषण करना।

4. अभ्यास (Drilling)

ब्रूनर के सीखने के सिद्धांत का चौथा अवयव है अभ्यास । अभ्यास में छात्रों को प्रत्ययों की रचना करने के लिये कहा जाता है। छात्रों को यह अवसर दिया जाता है कि वे इन प्रत्ययों को परिभाषित तथा परिष्कृत करें।

ब्रूनर के अधिगम सिद्धान्त की उपयोगिता (Utility of learning theory of Bruner)

ब्रूनर का यह अधिगम का सिद्धान्त अध्यापक एवं अधिगमकर्ता के लिये निम्न रूप से उपयोगी है-

  1. शिक्षण में सम्प्रत्ययों के अधिगम को विशेष महत्त्व दिया गया है। कक्षा में शिक्षक को एक कुशल नियन्त्रक की भूमिका निभानी पड़ती है। विषयवस्तु के चयन से लेकर उसके प्रस्तुतीकरण एवं विश्लेषण तक उसका सजग रहना छात्रों के प्रभावशाली अधिगम के लिये आवश्यक है।
  2. आत्मसातीकरण हेतु शिक्षक को अधिकाधिक उदाहरण देने पड़ते हैं। उदाहरणों का विश्लेषण एवं अवबोध कराना भी आवश्यक है।
  3. कक्षा-शिक्षण में अनुक्रियात्मक एवं सामाजिक सन्दर्भ का अपना महत्त्व होता है। छात्र अपने प्रत्ययों तथा व्यूह रचना का विश्लेषण आरम्भ कर देते हैं। छात्र सबसे सरल एवं प्रभावशाली रचना कौशलों को प्रयुक्त करते हैं ताकि नवीन प्रत्ययों का बोध हो सके।

इस प्रकार पाठ योजना में ब्रूनर द्वारा निर्मित ये सिद्धान्त प्रतिमान के रूप में अधिक उपयोगी है। ब्रूनर ने अपने कार्यपरक उपागम का निर्माण उपरोक्त मॉडल के प्रयोग के साथ निम्न सिद्धान्तों को पाठ योजना का प्रमुख बिन्दु माना-

  1. अभिप्रेरणा (Motivation)
  2. संरचना (Structure)
  3. अनुक्रम (Sequence)
  4. पुनर्बलन (Reinforcement)

ब्रूनर के सिद्धान्त में प्रतिनिधित्व

प्रतिनिधित्व का ब्रूनर के सिद्धान्त में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिनिधित्व उन नियमों की व्यवस्था है जिनके द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में आने वाली घटनाओं के लिए संरक्षित करता है। यह व्यक्ति विशेष के लिए उसके संसार व वातावरण का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रतिनिधित्व तीन प्रकार से हो सकता है –

  1. संक्रियात्मक प्रतिनिधित्व (Enactive Representation- Action Based) – यह प्रतिनिधितव की सबसे प्रारम्भिक अवस्था है जो जीवन के प्रथम वर्ष के उत्तरार्द्ध में पाया जाता है। इसके अन्तर्गत वातावरणीय वस्तुओं पर बालक की प्रतिक्रिया आती है। इस प्रकार का प्रतिनिधित्व संवेदी-गामक अवस्था की पहचान है। यह व्यक्ति पर केन्द्रित होता है। अतः इसे आत्म केन्द्रित भी कह सकते हैं।
  2. दृश्यप्रतिमा प्रतिनिधित्व (Iconic Representation – Image Based) – यह प्रत्यक्षीकरण (परसेप्शन) को क्रिया से अलग करता है क्रियाओं की पुनरावृत्ति द्वारा ही बालक के मन में क्रियाओं की अवधारणा का विकास होता है। अर्थात क्रियाओं को स्थानिक परिपेक्ष्य में समझना आसान हो जाता है। इस प्रकार इस प्रतिनिधित्व में क्रियामुक्त अवधारणा का विकास होता है। यह प्रतिनिधित्व प्रथम वर्ष के अन्त तक पूर्णतया विकसित हो जाता है।
  3. सांकेतिक या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (Symbolic Representation – Language Based) – यह किसी अपरिचित जन्मजात प्रतीकात्मक क्रिया से प्रारम्भ होता है जो कि बाद में विभिन्न व्यवस्थाओं में रूपान्त्रित हो जाता है। क्रिया और अवधारणा प्रतिकात्मक क्रियाविधि को प्रदर्शित कर सकती हैं। लेकिन भाषा प्रतीकात्मकक्रिया का सबसे अधिक विकसित रूप है।

ये तीनों प्रतिनिधित्व वैसे तो एक दूसरे से पृथक व स्वतन्त्र हैं किन्तु यह एक दूसरे में परिवर्तित भी हो सकते है। यह स्थिति तब होती है जब बालक के मन में कोई दुविधा होती है और वह अपनी समस्या को सुलझाने के लिए सभी प्रतिनिधित्वों की पुनरावृत्ति करता है। यह तीन प्रकार से हो सकता है – मिलान द्वारा, बेमिलान द्वारा तथा एक दूसरे से स्वतन्त्र रहकर।