परीक्षण विधि – परीक्षण करके सीखना, प्रभावशीलता, गुण, लाभ, दोष

Parikshan Vidhi - Parikshan Dwara Sikhna

परीक्षण विधि (Experiment Method)

परीक्षण विधि का आशय उस विधि से लिया जाता है, जिसमें विविध प्रयोगों एवं खोजों के माध्यम से किसी नियम या सिद्धान्त की सत्यता का मापन किया जाता है। सामान्य रूप से बालक भी परीक्षण का कार्य अपने प्रारम्भिक जीवन से ही कर देता है।

वह अपनी माता के प्रति अधिक विश्वास का प्रदर्शन करता है क्योंकि माता की अनेक गतिविधियाँ बालक की इच्छा को पूर्ण करने वाली होती हैं। इसलिये वह माता के प्रति अधिक विश्वास करता है।

इसी प्रकार जब बालक शिक्षक से यह कथन सुनता है कि सजीव वस्तुओं में वृद्धि होती है तथा निर्जीव वस्तुओं में वृद्धि नहीं होती तो वह व्यावहारिक जगत में पेड़-पौधों का परीक्षण करके उनकी वृद्धि को ज्ञात करता है तथा मेज-कुर्सी में वृद्धि को नहीं देखता तो उसका अधिगम स्थायी हो जाता है।

इस प्रकार की परीक्षण की प्रक्रिया उसके जीवन में चलती रहती है। अनेक अवसरों पर वह स्वयं की कल्पना का भी परीक्षण करके अधिगम करता है। जब वह अपनी कल्पना को सही पाता है तो उसको अधिगम होता है।

जैसे– आम की गुठली को जब वह पृथ्वी में दबाकर आम का पौधा प्राप्त कर लेता है तो उसको ज्ञात हो जाता है कि बीज से पौधे और पौधों से फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार परीक्षण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया निरन्तर एवं व्यापक रूप से चलती रहती है।

परीक्षण विधि द्वारा अधिगम की प्रभावशीलता सम्बन्धी तथ्य (Effectiveness Related Factors of Learning by Experiment Method)

परीक्षण विधि को वर्तमान समय में प्रासंगिक, प्रभावशाली एवं सर्वोत्तम बनाने में उसके लाभ एवं उपयोगिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस विधि के प्रमुख लाभों को निम्न रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-

1. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific view)

परीक्षण विधि से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है। छात्र प्रत्येक तथ्य एवं घटना पर विश्वास करने से पूर्व उसका प्रयोग द्वारा परीक्षण करता है। इससे छात्र का ज्ञान एक ओर स्थायी रूप में होता है वहीं दूसरी ओर छात्र किसी भी प्रकार की कल्पना एवं अन्धविश्वास पर ध्यान नहीं देता। उसका दृष्टिकोण पूर्णत: वैज्ञानिक हो जाता है। इसमें प्रयोग, क्रिया एवं प्रमाणों को ही स्वीकार किया जाता है।

2. सार्थक ज्ञान (Real knowledge)

छात्र इसमें प्रत्येक विषय का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करता है। वह प्रत्येक घटना एवं तथ्य के सन्दर्भ में लिखित प्रमाण को स्वीकार करता है; जैसे– इतिहास विषय सम्बन्धी तथ्यों का परीक्षण प्रयोगों के आधार पर छात्र करता है तथा विज्ञान सम्बन्धी तथ्यों का परीक्षण प्रयोगों के आधार पर करता है।

इस प्रकार छात्र विविध क्रियाओं के माध्यम से तथ्यों एवं घटनाओं का परीक्षण करते हुए सार्थक अधिगम करता है।

3. क्रियाशीलता (Activeness)

इस विधि का प्रमुख गुण छात्र की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाशीलता है; जैसे– छात्र विद्यालय में यह पढ़कर जाता है कि बीजों में अंकुरण की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। जब वही छात्र घर जाकर या विद्यालय में बीजों के अंकुरण की प्रक्रिया को प्रयोग द्वारा सम्पन्न करता है तो उसको यह विश्वास होता है कि बीजों के अंकुरण का सिद्धान्त सही है।

इस प्रकार इस विधि में छात्र शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील होता है जो कि अधिगम के लिये आवश्यक है।

4. स्थायी अधिगम (Stable learning)

इस विधि में सिद्धान्त एवं व्यवहार का समन्वयन देखा जाता है। इसलिये छात्रों को स्थायी रूप से अधिगम होता है; जैसे– छात्र विज्ञान में पढ़ता है कि क्लोरीन में तीक्ष्ण गन्ध होती है। जब प्रयोगशाला में क्लोरीन बनाते समय उस गन्ध का बालक अनुभव करता है तो उस गन्ध एवं बनाने की विधि को छात्र आजीवन याद रखता है।

जब भी उसको क्लोरीन की गन्ध आती है तो वह बताता है कि यह गन्ध किस गैस की है? इसी प्रकार का स्थायी ज्ञान क्षेत्रों में उसे होता है।

5. तर्क एवं चिन्तन का विकास (Development of logic and thinking)

परीक्षण विधि में छात्रों में तर्क एवं चिन्तन शक्ति का विकास होता है। जब छात्र किसी घटना या तथ्य के बारे में सुनता या पढ़ता है तो वह उसके परीक्षण के लिये विविध प्रमाण एवं प्रयोगों के बारे में जानना चाहता है। इसके लिये वह सरल एवं सहजता से उपलब्ध संसाधनों की व्यवस्था करता है तथा अपने प्राप्त ज्ञान का परीक्षण करता है।

इस प्रकार छात्रों में तर्क शक्ति एवं चिन्तन शक्ति विकसित हो जाती है।

6. प्रयोग कुशलता का विकास (Development of experiment skill)

परीक्षण विधि में छात्रों को अधिक से अधिक प्रयोग करने होते हैं, जिससे वह प्रयोग करने के प्रति सकारात्मक भाव रखता है तथा उसमें कुशलता प्राप्त कर लेता है; जैसे– सजीव-निर्जीव वस्तुओं सम्बन्धी प्रयोग, पदार्थ की अवस्थाओं सम्बन्धी प्रयोग एवं परिवर्तन सम्बन्धी प्रयोग आदि। ये सभी प्रयोग उसकी कुशलता में वृद्धि करते हैं।

7. स्व-अनुभव पर आधारित अधिगम (Self-experienced based learning)

परीक्षण विधि में छात्र स्वयं प्रमाणों को एकत्रित करके तथा सिद्धान्तों का प्रयोग द्वारा सत्यापन करके अधिगम करता है। इस प्रकार उसका अधिगम स्व-अनुभव पर आधारित होता है। इस प्रकार का अधिगम सर्वोत्तम माना जाता है। इसमें छात्र को किसी प्रकार की शंका या भ्रम की स्थिति नहीं रहती।

8. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप अधिगम (Learning according to psychological principles)

मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप परीक्षण द्वारा अधिगम को स्वीकार किया जाता है क्योंकि इसमें छात्र शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रहता है तथा विविध नियमों एवं सिद्धान्तों का परीक्षण द्वारा सत्यापन करता है। इसमें छात्र पूर्ण मनोयोग का प्रदर्शन करता है। इस प्रकार की स्थिति मनोवैज्ञानिक दृष्टि से छात्रों के अनुकूल मानी जाती

परीक्षण विधि के दोष (Demerits of Experiment Method)

परीक्षण विधि की लोकप्रियता एवं प्रभावशीलता के कारण भी इसमें निम्न दोष हैं-

  1. भारतीय विद्यालयों में संसाधनों का अभाव पाया जाता है, जिससे बालक विविध प्रकार के सिद्धान्तों का सत्यापन करने के लिये प्रयोग नहीं कर पाते तथा परीक्षण विधि का उचित उपयोग नहीं हो पाता।
  2. भारत एक गरीब देश है। सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर प्रयोगशाला की व्यवस्था सम्भव नहीं होती जिससे छात्र उचित उपयोग सम्बन्धी गतिविधियाँ सम्पन्न कर सकें।
  3. परीक्षण विधि के माध्यम से पाठ्यक्रम को निर्धारित समय में पूरा नहीं किया जा सकता क्योंकि परीक्षण सम्बन्धी प्रयोगों में अधिक समय लगता है।
  4. सभी विषयों का परीक्षण विधि के माध्यम से अधिगम नहीं किया जा सकता। इसलिये यह विधि भाषा सम्बन्धी अधिगम में व्यापक रूप से प्रयुक्त नहीं हो सकती।
  5. परीक्षण सम्बन्धी विधि में शिक्षक उदासीनता का परिचय देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जिन सिद्धान्तों को छात्र परीक्षण द्वारा सत्य सिद्ध करना चाहते हैं वह सत्य हैं। इसलिये उदासीनता दिखाते हैं।

परीक्षण विधि द्वारा अधिगम को प्रभावशाली बनाने में शिक्षक, विद्यालय एवं परिवार की भूमिका

Role of Teacher, School and Family to Make Effective of Learning by Experiment Method

परीक्षण विधि को प्रासंगिक, सर्वोत्तम एवं प्रभावशाली बनाने में शिक्षक, विद्यालय एवं परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस भूमिका को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. विद्यालय में प्रयोगशाला की व्यवस्था (Arrangement of laboratory in school)

प्राथमिक स्तर पर भी विद्यालयों में प्रयोगशाला की व्यवस्था होनी चाहिये। इस प्रकार की व्यवस्था में यदि महत्त्वपूर्ण उपकरण न हो तो चित्र एवं चार्ट के माध्यम से विविध प्रकार के प्रयोगों को प्रदर्शित किया जा सकता है जो सस्ते उपकरण प्रयोग के लिये उपलब्ध हो सकते हैं उनकी व्यवस्था विद्यालयी में होनी चाहिये, जिससे छात्र परीक्षण विधि से अधिगम करने में समर्थ हो सकें।

2. विद्यालय में निर्देशन व्यवस्था (Guidance arrangement in school)

परीक्षण विधि द्वारा अधिगम सम्पन्न करने के लिये छात्रों को उचित निर्देश की व्यवस्था होनी चाहिये; जैसे– छात्र किसी भी प्रयोग का सत्यापन करने के लिये प्रयोग करना चाहते हैं तो शिक्षक द्वारा छात्रों को उस प्रयोग के बारे में निर्देशित करना चाहिये जो कि सरल रूप से छात्रों द्वारा सम्मान किया जा सके। इससे छात्रों को प्रयोग की सामग्री जुटाने में तथा सम्पन्न करने में सुविधा होगी।

3. छात्रों को परीक्षण के अवसर (Opportunities of experiment to students)

शिक्षक को चाहिये कि छात्रों को अधिक से अधिक प्रयोग करने के अवसर देनें चाहिये, जिससे छात्र प्रयोग करने में कुशलता प्राप्त कर सकें। शिक्षक को छात्रों को यह कहकर निरुत्साहित नहीं करना चाहिये कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ वह सही है क्योंकि प्रयोग द्वारा जब उसी तथ्य का परीक्षण छात्र द्वारा कर लिया जाता है तो उसकी जिज्ञासा शान्त हो जाती है। इस प्रकार का अधिगम स्थायी होता है।

4. शिक्षक का सकारात्मक व्यवहार (Positive behavior of teacher)

शिक्षक को छात्रों के प्रति सकारात्मक व्यवहार करना चाहिये क्योंकि परीक्षण करते समय छात्र द्वारा शिक्षक से विविध प्रकार के प्रश्न किये जा सकते हैं। इन प्रश्नों में कुछ प्रश्न निरर्थक भी हो सकते हैं। इस स्थिति में शिक्षक को उत्तेजित नहीं होना चाहिये वरन् उन सभी प्रश्नों के उत्तर देते हुए छात्रों को सार्थक गतिविधियों, प्रयोगों एवं तथ्यों को सीखने के प्रति प्रोत्साहित करना चाहिये।

5. छात्रों को प्रयोग में सहायता (Help in experiment to students)

छात्रों को विविध प्रकार के परीक्षण करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस कठिनाई का समाधान शिक्षक द्वारा ही सम्भव होता है। इसलिये शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि परीक्षण विधि को प्रभावशाली बनाने के लिये वह छात्रों की प्रयोग सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करे। इससे प्रयोग करने में छात्रों की रुचि में वृद्धि होगी।

6. स्व अनुभव की प्रेरणा (Motivation to self-experience)

स्व अनुभव की प्रेरणा (अभिप्रेरणा) के लिये भी छात्रों को प्रेरित करना चाहिये। इससे छात्र प्रत्येक सिद्धान्त या ज्ञान का व्यावहारिक अनुभव करने का प्रयास करेगा। व्यावहारिक अनुभव से ही उस ज्ञान के दोष एवं गुणों के बारे में ज्ञान होगा। स्व अनुभव की भावना से छात्रों में परीक्षण करने के प्रति लगाव उत्पन्न होगा। इस प्रकार छात्र प्रत्येक तथ्य के ज्ञान के प्रति सकारात्मक रूप से परीक्षण करने के लिये प्रेरित होगा।

7. प्रमाणों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of evidence)

प्रमाणों के प्रस्तुतीकरण की व्यवस्था शिक्षक को उस स्थिति में करनी चाहिये जब विद्यालय में प्रयोगशाला की व्यवस्था नहीं है या विषय को प्रयोग द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता; जैसे– इतिहास सम्बन्धी ज्ञान के लिये शिक्षक को विविध प्रकार के प्रमाणों को प्रस्तुत करना चाहिये क्योंकि इतिहास सम्बन्धी ज्ञान पर प्रयोग करना सम्भव नहीं होता।

8. स्वमूल्यांकन के लिये प्रोत्साहन (Motivation to self-evaluation)

स्व मूल्यांकन के लिये छात्रों को प्रोत्साहित करने से छात्र विविध प्रकार के क्रियाकलापों की वैधता एवं विश्वसनीयता को स्वयं समझ सकेंगे; जैसे– अंकुरण सम्बन्धी क्रिया में यदि किसी छात्र का बीज अंकुरित नहीं होता है तो उसको स्वयं यह देखना चाहिये कि उसने कहाँ पर त्रुटि की है तथा किन नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन नहीं किया है। इससे छात्र स्वयं अपनी परीक्षण सम्बन्धी त्रुटियों को खोज सकेंगे तथा उनका समाधान कर सकेंगे।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विविध प्रकार की विद्यालयी सुविधाओं एवं व्यवस्थाओं के आधार पर ही इस विधि को सर्वोत्तम, प्रासंगिक एवं उपयोगी बनाया जा सकता है तथा इसका लाभ छात्रों को पहुँचाया जा सकता है।