करके सीखना – विधि, प्रभावशीलता, दोष, शिक्षक एवं विद्यालय की भूमिका

Karke Sikhna - Adhigam Ki Prabhavshali Vidhi

करके सीखना (Learning by doing)

सामान्यतः यह देखा जाता है कि छोटा बालक अपने हाथों द्वारा विविध प्रकार के कार्यों को  सम्पन्न करता है जो कि सार्थक एवं निरर्थक दोनों रूपों में होते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जो कार्य करके सीखा जाता है उसका अधिगम स्थायी रूप से बना रहता है। यह विधि अधिगम की प्रभावशाली विधियाँ में से एक है।

जैसे– आप अपने घर में टी. बी. चला रहे हैं, रिमोट द्वारा आप आवाज कम करते हैं तथा अधिक करते हैं, चैनल परिवर्तित करते हैं, जब बालक इस घटना को देखता है तो उसका मन करता है कि उसके द्वारा भी यह कार्य किया जाना चाहिये। जब वह इस कार्य के लिये आग्रह करता है तो उसको इस कार्य को करने के अवसर मिलने चाहिये। जब वह रिमोट के कार्य को स्वयं करके सीखता है तो यह कार्य करके सीखने की विधि के अन्तर्गत आता है।

इस प्रकार की गतिविधियों को विद्यालय में, प्रयोगशाला में, कक्षा-कक्ष में तथा विद्यालयी खेल के मैदान में सम्पन्न करने के अवसर बालकों को मिलने चाहिये।

वर्तमान में विद्यालयों में करके सीखने की प्रक्रिया को अपनाया जाता है, जिसमें शिक्षक की भूमिका एक सहयोगी एवं सुगमकर्ता की होती है। इसमें बाल केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था में करके सीखने की प्रक्रिया को सर्वोत्तम माना जाता है।

करके सीखने की प्रभावशीलता (Effectiveness of Learning by Doing)

करके सीखने की विधि को प्रभावशीलता एवं लोकप्रियता इससे होने वाले लाभों में विदित है। इससे अधिगम प्रक्रिया में होने वाले लाभों को तथा अधिगमकर्ता को होने वाले लाभों को निम्न रूप में स्पष्ट किया जा सकता है, जो कि इसकी प्रभावशीलता में वृद्धि करते हैं-

1. स्थायी अधिगम (Stable learning)

छात्र द्वारा जब किसी कार्य को सम्पन्न करके सीखा जाता है तो उसमें आने वाली प्रत्येक समस्या एवं प्रत्येक पद का ज्ञान उसको हो जाता है, जिससे वह उस कार्य से सम्बन्धित प्रत्येक पद एवं सोपान को समझ जाता है।

जैसे– छात्र जय स्वयं गुणा करके देखता है तो उसको जोड़ने, घटाने एवं अन्य गुणा सम्बन्धी प्रक्रियाओं का ज्ञान सरलता एवं स्थायी रूप में हो जाता है, जबकि अध्यापक द्वारा समझाने पर यह पूर्ण सम्भव नहीं होता।

इसलिये करके सीखने के अन्तर्गत स्थायी अधिगम का लाभ प्राप्त होता है।

2. बालकेन्द्रित अधिगम (Child-centred learning)

बाल केन्द्रित अधिगम के रूप में करके सीखने की प्रक्रिया को अपनाया जाता है क्योंकि प्रत्येक बालक में यह स्वभावगत् देखा जाता है कि वह प्रत्येक कार्य को स्वयं करने की इच्छा रखता है। 

इस प्रक्रिया में एक ओर बालक के कार्य करने पर उसकी इच्छा की पूर्ति सम्भव होती है वहीं दूसरी ओर वह उस कार्य की प्रत्येक प्रक्रिया के प्रत्येक पक्ष को समझ जाता है।

इसलिये यह बाल स्वभाव के अनुकूल होता है।

3. शारीरिक एवं मानसिक क्रियाशीलता अधिगम (Physical and mental activeness learning)

शारीरिक एवं मानसिक क्रियाशीलता प्रभावशाली अधिगम के लिये आवश्यक होती है। जब छात्र द्वारा किसी कार्य को करके सीखा जाता है तब वह मानसिक एवं शारीरिक रूप से क्रियाशील होता है। इससे उसके द्वारा सीखी गयी क्रिया अधिक समय तक उसको याद बनी रहती है।

अत: करके सीखने में अधिगम की गति भी तीव्र होती है तथा बालक उसमें पूर्ण मनोयोग का प्रदर्शन करता है।

4. क्रियाकेन्द्रित अधिगम (Activity-centred learning)

करके सीखने के अन्तर्गत प्रत्येक कार्य को छात्र द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। क्रिया के अभाव में यह अधिगम सम्भव नहीं होता। इसलिये इसको क्रियाकेन्द्रित अधिगम कहते हैं।

जैसे– बालक प्रयोगशाला में ऑक्सीजन गैस का निर्माण करता है तो उसको प्रत्येक पदार्थ एवं उपकरणों के साथ एक निश्चित क्रिया को सम्पन्न करना होगा। इस प्रकार इस अधिगम में क्रिया एवं प्रयोग दोनों को आवश्यकता के अनुसार सम्पन्न किया जाता है।

5. रुचिपूर्ण अधिगम (Interesting learning)

इसमें बालक की रुचि के अनुसार उसको क्रिया करने के लिये प्रदान की जाती है।

जैसे– एक छात्र विज्ञान में रुचि रखता है तो उसको विज्ञान सम्बन्धी क्रियाएँ सम्पन्न करने के लिये दी जाती हैं। वहीं दूसरा छात्र गणित में रुचि रखता है तो उसको गणित सम्बन्धी क्रियाएँ सम्पन्न करने के लिये दी जाती हैं।

इस प्रकार इसमें छात्र की रुचियों को ध्यान में रखते हुए क्रियाएँ सम्पन्न करने के लिये दी जाती हैं। इसलिये इसे रुचिपूर्ण अधिगम भी कहते हैं।

6. विविध कौशलों का विकास (Development of various skills)

करके सीखने की विधि से विविध प्रकार के कौशलों को सरलता से सीखा जाता है।

जैसे-एक छात्र भौतिक तुला से पदार्थों का भार ज्ञात करने में वर्नियर कैलीपर्स एवं पेचमापी से मापन करने में इसलिये कुशलता प्राप्त कर लेता है कि वह विज्ञान सम्बन्धी कार्यों में इन सभी का बार-बार प्रयोग करता है।

इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में विविध कौशलों को इसके द्वारा सरल रूप में सीखा जा सकता है।

7. वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास (Development of scientific view)

वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास भी करके सीखने की विधि से होता है क्योंकि इसमें प्रत्येक नियम एवं सिद्धान्त का सत्यापन छात्र करके देख लेता है।

जैसे– प्रयोगशाला में क्लोरीन गैस बनाने की प्रक्रिया को जब छात्र प्रयोग द्वारा सिद्ध कर लेता है तो वह मान जाता है कि यह क्लोरीन गैस बनाने का सिद्धान्त सही है।

इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास सम्भव होता है।

8. मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप (According to psychological principles)

करके सीखने की विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप है क्योंकि इसमें छात्र को मानसिक एवं शारीरिक रूप से व्यस्त रखा जाता है तथा सिद्धान्त एवं व्यवहार में समन्वयन स्थापित किया जाता है। इस प्रकार यह मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप माना जाता है।

इसमें छात्रों के स्तर एवं रुचि के अनुरूप क्रियाएँ प्रदान की जाती हैं, जिनको छात्र सरलता से सम्पन्न कर लेते हैं।

उपरोक्त तथ्यों से इस विधि को अधिगम की प्रभावशाली विधि के रूप में स्वीकार किया जाता है। वर्तमान समय में इसकी लोकप्रियता एवं प्रासंगिकता के प्रमुख कारण उपरोक्त तथ्यों को ही माना जाता है।

करके सीखने की विधि के दोष (Demerits of Learning by Doing Method)

करके सीखने की विधि की प्रभावशीलता एवं प्रासंगिकता के पश्चात् भी इसमें अनेक दोष पाये जाते हैं। इसके प्रमुख दोषों का वर्णन निम्न रूप में किया जा सकता है-

  1. यह विधि प्राथमिक स्तर पर अधिगम उपयोगी नहीं मानी जा सकती क्योंकि प्राथमिक स्तर पर प्रत्येक क्रिया को सम्पन्न करने की परिपक्वता छात्रों में नहीं पायी जाती।
  2. इस विधि में छात्रों से प्रत्येक क्रिया को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने की आशा करना उपयुक्त नहीं है। अनेक क्रियाओं को सम्पन्न करने में छात्र को हानि भी पहुँच सकती है।
  3. प्राथमिक स्तर के बालकों को प्रयोगशाला में विविध प्रकार के प्रयोग करने के लिये नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि प्रयोगशाला के समस्त पदार्थों की उनको जानकारी नहीं होती।
  4. प्रत्येक प्रकरण को क्रिया द्वारा सिखाने सम्बन्धी संसाधन प्रत्येक विद्यालय में उपलब्ध नहीं होते। सरकारी विद्यालयों में इस प्रकार की विधि के लिये साधनों का पूर्णत: अभाव पाया जाता है। इस प्रकार भारत जैसे देश में यह सम्भव नहीं है।
  5. करके सीखने की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका एवं दायित्व महत्त्वपूर्ण एवं अधिक हो जाते हैं परन्तु शिक्षक अपनी उदासीनता के कारण इसे उचित रूप में निर्वहन नहीं करते।

करके सीखने की विधि को प्रभावशाली बनाने में शिक्षक एवं विद्यालय की भूमिका

Role of Teacher and School to Make Effective the Learning by Doing Method

करके सीखने की विधि को सर्वोत्तम, प्रभावशाली एवं वर्तमान समय की माँग के अनुरूप बनाये जाने में शिक्षक एवं विद्यालय दोनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक एवं विद्यालय दोनों के द्वारा करके सीखने की विधि को प्रभावशाली बनाने के लिये निम्न उपाय करने चाहिये-

1. उचित साधनों की व्यवस्था (Arrangement of proper means)

विद्यालय में करके सीखने के लिये उचित व्यवस्था होनी चाहिये। जैसे– विज्ञान विषय के अधिगम में प्रयोग को सम्पन्न करने के लिये विविध प्रकार के उपकरणों की व्यवस्था होनी चाहिये।

प्रयोगशाला में प्रयोग सम्बन्धी उपकरणों के अतिरिक्त कला के लिये रंग एवं चार्ट पेपर की व्यवस्था एवं खेल के माध्यम से सीखने के लिये मैदान की व्यवस्था आदि विद्यालय में उपलब्ध होनी चाहिये, जिससे छात्र प्रत्येक स्थिति में गतिशील रहें।

2. उचित पर्यवेक्षण की व्यवस्था (Arrangement of proper supervision)

उचित पर्यवेक्षण की व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षक को बालक के प्रत्येक कार्य को देखना चाहिये तथा आवश्यकता के अनुसार उसको मार्गदर्शन देना चाहिये।

जैसे– बालक चार्ट बनाते समय एक-दूसरे पर रंगों का प्रयोग करता है या एक-दूसरे के चार्ट को खराब करने का प्रयास करता है तो शिक्षक को उन्हें रोककर सही दिशा निर्देश प्रदान करना चाहिये। प्रयोगशाला में बालक के कार्यों का पर्यवेक्षण करना परमावश्यक होता है।

3. शिक्षक की क्रियाशीलता (Activeness of teacher)

करके सीखने की विधि की प्रभावशीलता शिक्षक की क्रियाशीलता पर निर्भर करती है। शिक्षक की क्रिया-शीलता के कारण ही बालक विविध प्रकार की निरर्थक क्रियाओं से बचता है तथा सार्थक क्रियाओं को सम्पन्न करता है।

क्रियाशील शिक्षक अपनी कक्षा के प्रत्येक छात्र की गति- विधि पर दृष्टि रखता है तथा आवश्यकता के अनुसार उसको सहायता प्रदान करता है। इससे सभी छात्र उचित क्रियाओं को सम्पन्न करते हुए अधिगम स्तर को उच्च बनाने में सफल हो जाते हैं तथा छात्रों का समय नष्ट नहीं होता।

4. परिस्थितियों का सृजन (Creation of conditions)

करके सीखने के लिये यह आवश्यक है कि छात्र उन क्रियाओं को ही सम्पन्न करें जो कि उसके अधिगम क्षेत्र या पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित हैं। इसके लिये शिक्षक को इस प्रकार की स्थितियों की व्यवस्था करनी चाहिये।

जैसे– छात्र के समक्ष आम का चित्र रख दिया। इसके लिये छात्रों के समक्ष रंग (पीला एवं हरा) एवं ब्रुश रख दिया। छात्र जब इन दोनों वस्तुओं को देखेगा तो आम का चित्र बनाना चाहेगा।

इसी प्रकार अधिगम में रुचि एवं तीव्रता लाने के लिये यह आवश्यक होगा कि छात्र के समक्ष सार्थक क्रिया सम्पन्न करने की स्थितियाँ उत्पन्न की जायें।

5. छात्र के स्तर के अनुकूल व्यवस्था (Arrangement according to students)

प्राथमिक स्तर के छात्रों के लिये विद्यालय में सरल क्रियाओं की व्यवस्था होनी चाहिये। जैसे कि खेल में बालकों की रुचि अधिक होती है तो उनको खेल-खेल में शब्द बनाना, फल बनाना एवं गिनती आदि का ज्ञान कराना चाहिये।

इसके विपरीत उच्च प्राथमिक स्तर के छात्रों की क्रियाएँ कठिन होनी चाहिये क्योंकि इस स्तर के बालक अधिक कठिन क्रियाओं को सम्पन्न कर सकते हैं।

6. छात्र की रुचि के अनुकूल व्यवस्था (Arrangement according to interest of students)

छात्र की रुचि के अनुकूल व्यवस्था करने पर ही छात्र उन क्रियाओं में रुचि लेगा तथा उनसे कुछ सीखने का प्रयास करेगा। इस आधार पर ही प्रत्येक शिक्षक एवं विद्यालय का यह दायित्व होता है कि वह अपने छात्रों की रुचियों को ज्ञात करते हुए उनको अधिक से अधिक समय रुचिपूर्ण क्रियाओं में व्यतीत करने दे।

इससे बालक का विद्यालय के प्रति लगाव होगा तथा वह अधिक से अधिक क्रियाओं को सीखने का प्रयास करेगा। अरुचिपूर्ण क्रियाएँ उसके अधिगम स्तर पर विपरीत प्रभाव डालती हैं।

7. छात्र के ज्ञान का सम्मान (Respect to knowledge of students)

शिक्षक को छात्र के ज्ञान का सम्मान करना चाहिये, जिससे छात्र को अपने अस्तित्व एवं महत्त्व का अनुभव हो सके।

कुछ अवसरों पर छात्र निरर्थक क्रियाएँ करता है तो शिक्षक को उसे प्रताड़ित नहीं करना चाहिये वरन् उसकी निरर्थक क्रियाओं को धीरे-धीरे सार्थक क्रियाओं की ओर ले जाना चाहिये।

जिससे कि उसका अधिगम स्तर उच्च हो सके तथा विद्यालयी व्यवस्था एवं शिक्षक के प्रति उसमें विश्वास उत्पन्न हो सके।

इस प्रकार की व्यवस्था प्रत्येक विद्यालय में होनी चाहिये।

8. छात्र पर नियन्त्रण का अभाव (Lack of control on students)

प्राथमिक स्तर का छात्र बहुत ही कोमल स्वभाव का होता है, जिसके आधार पर उस विद्यालय में विविध प्रक्रियाओं को करने पर नियन्त्रण नहीं लगाना चाहिये। विविध प्रकार की क्रियाओं को धीरे-धीरे अधिगम से जोड़ने का प्रयास करना चाहिये।

नियन्त्रण के अभाव में ही बालक अपनी रुचि सम्बन्धी क्रियाओं को प्रदर्शित करेगा तथा उनमें पूर्ण मनोयोग का प्रदर्शन करेगा। इससे छात्र का अधिगम स्तर उच्च एवं स्थायी रूप में होगा।

9. ज्ञान को क्रिया से जोड़ना (To connect knowledge with activity)

ज्ञान को क्रिया से जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। दूसरे शब्दों में, जो भी सिद्धान्त है उनका प्रयोग व्यवहार में करना सिखाना चाहिये।

जैसे बालक को अंकुरण का पाठ पढ़ाया जा रहा है तो उसके विविध प्रकार के बीजों को अंकुरित करने की गतिविधि विद्यालय में तथा गृहकार्य के रूप में सम्पन्न करनी चाहिये।

इस प्रकार बालक सिद्धान्त एवं व्यवहार दोनों को समन्वित रूप में करके सीखने का प्रयास करेगा।

10. अभिभावकों को प्रोत्साहन (Motivation to parents)

बालकों के माता पिता सामान्य किताबी ज्ञान को ही महत्त्व प्रदान करते हैं। बालक जब विविध प्रकार की क्रियाएँ विद्यालय में सम्पन्न करता है तो वे उसको निरर्थक मानते हैं।

शिक्षक को विद्यालय में अभिभावकों को बुलाकर बताना चाहिये कि बालक इस प्रकार करके अधिक सीखते हैं तथा स्थायी रूप से सीखते हैं।

इससे अभिभावकों द्वारा बालकों को विविध प्रकार की शैक्षिक गतिविधियों को सम्पन्न करने में सहायता दी जायेगी तथा विद्यालयी क्रियाओं के प्रति भी सकारात्मक भाव रखा जायेगा।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि करके सीखने की विधि को शिक्षक एवं अभिभावक तथा विद्यालयी व्यवस्था के माध्यम से प्रभावशाली, प्रासंगिक एवं उपयोगी बनाया जा सकता है।