सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व – अधिगम

seekhne ke niyam ka shaikshik mahatva

सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व

Educational Importance of Laws of Learning

सीखने या अधिगम से सम्बन्धित सभी प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि मानव बार-बार प्रयत्न करके एवं भूलों में सुधार करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है, सीखने के क्षेत्र में उन्नति करता है। विद्वानों ने सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिये सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व माना है, जिसे हम निम्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं:-

1. उद्देश्यों की स्पष्टता (Clearity of aims)

शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान का उद्देश्य निश्चित, स्पष्ट एवं जीवनोपयोगी होना चाहिये। जब छात्र इसे समझ लेगा तो स्वतः ही सीखने के क्षेत्र में अपने ध्यान को एकाग्र कर सकेगा। प्रत्येक जीव की यह प्रकृति होती है कि वह उस कार्य को शीघ्र करना चाहता है, जो उसे सुख देता है या देने वाला होता है।

2. उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया चयन (Selection of action and appropriate knowledge)

छात्र की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का मूल्यांकन करने के पश्चात् ही सीखने वाले को उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया और विधि का चुनाव करना चाहिये। इससे छात्र को सही प्रतिचार के चुनाव में, स्थानान्तरण में एवं अभ्यास में सरलता होती है।

3. तत्परता जाग्रत करना (To awake readiness)

बालक अपने कार्य को तभी सीख सकेगा जब वह सीखने के लिये तैयार होगा। सीखने की तैयारी को तत्परता का नाम दिया जाता है। तत्परता बालक की रुचि, उत्साह, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है। अतः शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों को सिखाने से पहले तैयार कर लें ताकि वे ज्ञान को ठीक तरीके से ग्रहण कर सकें।

4. अनुभव स्थानान्तरण (Experience transfer)

सीखने के नियमों ने स्पष्ट कर दिया है कि मानवीय अनुभव का सबसे अधिक महत्त्व होता है। शिक्षकों को चाहिये कि वह छात्रों को अधिक से अधिक अनुभव एकत्रित करने का अवसर दें। इसके पश्चात् वे छात्रों को अनुभवों की नवीन समस्या या कार्य के सीखने में उपयोगिता बतायें। इस प्रकार से बार-बार के अभ्यास और प्रयोग से छात्र स्वतः ही अनुभवों का प्रयोग करना सीख जायेंगे और इसीलिये ‘सीखना अनुभवों से लाभान्वित होना‘ भी कहा गया है।

5.स्वक्रिया पर बल (Stress on self action)

सीखने के क्षेत्र में रूसो ने सबसे पहले स्वक्रिया को प्रतिपादित किया था अर्थात् अधिगमकर्ता को स्वयं हाथों से कार्य को करके सीखना चाहिये। इससे अधिगमकर्ता के अनुभव सुदृढ़ एवं स्थायी बनते हैं। अधिगमकर्ता प्रारम्भ में अनर्गल और निरर्थक प्रयत्न करता है, बाद में उचित कार्य का चुनाव करके कार्य को स्वत: ही सीख लेता है। इससे परनिर्भरता समाप्त होती है और स्वनिर्भरता का विकास होता है।

6. प्रेरकों का प्रयोग (Use of motives)

सीखने के नियमों से स्पष्ट है कि सीखने के लिये प्रेरकों का प्रयोग आवश्यक है। जब हम बालकों को पुरस्कार एवं दण्ड, प्रशंसा एवं निन्दा के द्वारा सीखने के लिये तैयार करते हैं तो वे सीखने के प्रति उत्साह एवं रुचि को प्रकट करते हैं। अत: उनके सीखने में शीघ्र उन्नति होती है। शिक्षकों को चाहिये कि शिक्षा देते समय उत्साही प्रेरकों का प्रयोग करते रहें। इससे बालक भी प्रसन्न रहते हैं और शिक्षक को भी कम परिश्रम करना पड़ता है।

इस प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में थॉर्नडाइक के नियमों ने एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। सीखना मानव विकास के लिये अनिवार्य है। अत: सीखने के प्रति छात्रों को उत्साहित बनाना शिक्षक का परम कर्त्तव्य होता है।

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