व्यक्तिगत विभिन्नता – अर्थ, परिभाषा, प्रकार एवं कारण – वैयक्तिक विभिन्नता

Vaiyaktik Bhinnata or Vyaktigat Bhinnata

व्यक्तिगत विभिन्नता का अर्थ

Meaning of Individual Differences

शिक्षा के अति प्राचीनकाल से आयु के अनुसार विद्यार्थियों में अन्तर किया जाता है कि आयु की विभिन्नता से बालक को भिन्न-भिन्न स्तर की शिक्षा मिलनी चाहिये। क्रमशः आयु बढ़ने के साथ पाठ्यक्रम को अधिक विस्तृत और कठिन बनाया जा सकता है।

प्राचीनकाल में आयु के अतिरिक्त थोड़ा बहुत बुद्धि की विभिन्नता पर भी ध्यान रखा जाता था। साथ ही शैक्षिक सम्प्राप्ति (Educational attainments) को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता था। इस प्रकार प्राचीनकाल में और मध्यकाल में व्यक्तिगत विभिन्नताओं का तात्पर्य “किसी विषय पर अधिकार करने की योग्यता से समझा जाता था।” आधुनिक स्कूलों में व्यक्तियों की अन्य प्रकार की योग्यताओं और व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी ध्यान दिया जाता है।

व्यक्तिगत विभिन्नताओं की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि उसमें मनुष्य व्यक्तिगत के वे सभी पहलू आते हैं, जिनको किसी न किसी प्रकार से मापा जा सकता है। इस प्रकार के पहलू अनेक हो सकते हैं; जैसे- परिवर्तनशीलता, सामान्यता, बाल विकास और सीखने की गति में अन्तर, व्यक्तित्व के विभिन्न लक्षणों में परस्पर सम्बन्ध, अनुवांशिकता और परिवेश का प्रभाव इत्यादि।

इस प्रकार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में शारीरिक और मानसिक विकास, स्वभाव, सीखने की गति और योग्यता, विशिष्ट योग्यताएँ, रुचि तथा व्यक्तित्व आदि में अन्तर देखा जा सकता है।

शिक्षण में अनेक प्रकार की समस्याएँ बालकों के व्यक्तिगत भेद उत्पन्न कर देते हैं; जैसे- अध्यापक किस कक्षा में किस प्रणाली से पढ़ाये कि सभी बालक समान रूप से लाभ उठा सके।

वैयक्तिक दृष्टि से वैयक्तिक भेदों का अध्ययन सबसे पहले गाल्टन ने प्रारम्भ किया था तब से इस विषय पर अनेक अनुसन्धान हो चुके हैं, जिनके आधार पर मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा की कई नयी प्रणालियों का विकास किया है। यद्यपि अध्यापक के लिये व्यक्तिगत तरीके से कई प्रकार की समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। किन्तु समाज की और व्यक्ति की दृष्टि से वे बहुत महत्त्वपूर्ण है।

एक समय था जब व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित थी, जिनको वह सरलता से पूरा कर लेता था। आधुनिक युग में हमें विभिन्न प्रकार की विशेष योग्यताओं वाले व्यक्तियों को आवश्यकता है जो समाज के विकास में विभिन्न योग दे सकें।

व्यक्तिगत भेद व्यक्ति विशेष के लिये भी महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि उसका उनके विकास में सन्तोष तथा आनन्द मिलता है और वह अपनी योग्यताओं के अनुकूल विकास कर सकता है। व्यक्तिगत भेदों के अध्ययन से बालकों की व्यक्तिगत योग्यताओं का पता लगाकर उनका उचित विकास कर सकते हैं।

वैयक्तिक भिन्नता के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि भिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।

स्किनर (Skinner) के शब्दों में, “बालक के प्रत्येक सम्भावित विकास का एक विशिष्ट काल होता है। यह विशिष्ट काल प्रत्येक व्यक्ति में वैयक्तिक भिन्नता के अनुसार पृथक्-पृथक् होता है। उचित समय पर इस सम्भावना का विकास न करने से नष्ट हो सकता है।

व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

Definition of Individual Differences

व्यक्तिगत विभिन्नता की निम्न परिभाषाएँ हैं-

स्किनर (Skinner) के अनुसार व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“मापन किया जाने वाला व्यक्तित्व का प्रत्येक पहलू वैयक्तिक भिन्नता का अंश है।”

“Every aspect of the personality which can be measured in a part of individual differences.”

टायलर (Tayler) के शब्दों में व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“शरीर के आकार और रूप, शारीरिक कार्य गति की क्षमताओं, बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान, रुचियों, अभिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में मापी जाने वाली भिन्नताओं का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है।”

“Measurable differences have been shown to exist in physical size and shape, physiological functions, motor capacities, intelligence, achievement and knowledge, interest attitude and personality.”

जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“औसत समूह से मानसिक, शारीरिक विशेषताओं के सन्दर्भ में समूह के सदस्य के रूप भिन्नता या अन्तर को वैयक्तिक भेद या व्यक्तिगत विभिन्नता कहते है।”

“Variation to deviation from average of the group union respect to the mental and physical characteristics accruing in individual member of the group.”

वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रकार

Types of Individual Differences

बुद्धिहीन प्राणियों की क्रियाओं में बहुत कुछ समानता पायी जाती है क्योंकि उनकी समस्त क्रियाएँ अनुकरण तथा उनकी मूल प्रवृत्तियों से प्रभावित होती हैं परन्तु मनुष्य की समस्त क्रियाओं में जितनी विभिन्नता पायी जाती है, उतनी अन्य प्राणियों में नहीं क्योंकि मानव-व्यवहार केवल मूल-प्रवृत्तियों से ही नहीं, अपितु चार अमूर्त तत्त्वोंमन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार से भी प्रभावित होता है।

इस दृष्टि से व्यक्तियों या बालकों में निम्न वैयक्तिक विभिन्नताएँ पायी जाती हैं- (1) शारीरिक (Physical), (2) बौद्धिक (Intellectual), (3) सामाजिक (Social), (4) भावात्मक या सांवेगिक (Emotional), (5) नैतिक (Ethical), (6) सांस्कृतिक (Cultural) तथा (7) प्रजातीय (Racial)।

पुनः इन विभिन्नताओं में भी कई उप-विभिन्नताएँ हो सकती हैं, जैसे – शारीरिक विभिन्नताओं में रूप, रंग, आयु, योनि, शक्ति आदि से सम्बन्धित विभिन्नताएँ। साथ ही इन विभिन्नताओं को प्रभावित करने वाले भी कई तत्त्व हो सकते हैं। इन सभी तथ्यों का उल्लेख आगे किया गया है।

1. शारीरिक विभिन्नताएँ (Physical differences)

लिंगीय पद को हम अलग न लेकर शारीरिक भेदों के अन्तर्गत ही ले रहे हैं। इस दृष्टि से कोई स्त्री है तो कोई पुरुष। इसी आधार पर बालकबालिका, स्त्री-पुरुष, वृद्ध-वृद्धा आदि भेद होते हैं। इनमें अर्थात् बालक या बालिकाओं आदि में उनकी आयु, वजन, कद, शारीरिक गठन आदि की दृष्टि से भी भेद होते हैं। यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चे (Twins) भी समान नहीं होते।

पुनः शारीरिक अंगों की दृष्टि से भी किसी अंग की कमी हो सकती है और किसी में किसी अंग का विशेष उभार इस दृष्टि से भी बड़े भेद होते हैं। रंग की दृष्टि से भी कोई काला होता है और कोई गोरा।

अतः शारीरिक दृष्टि से वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार हैं (1) आयु (Age), (2) वजन (Weight), (3) योनि (Sex), (4) कद (Size of the body), (5) रंग (Colour)। (6) किसी अंग-विशेष की कमी या उभार आदि।

2. बौद्धिक विभिन्नताएँ (Intellectual differences)

बौद्धिक दृष्टि से भी सभी व्यक्ति समान नहीं होते। एक ही मातापिता के सभी बच्चे और यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चे भी बौद्धिक दृष्टि से समान नहीं होते। कोई मन्द बुद्धि होता है तो कोई सामान्य बुद्धि और कोई बौद्धिक दृष्टि से अति प्रखर

3. सामाजिक विभिन्नताएँ (Social differences)

सामाजिक दृष्टि से भी बालकों में अनेकों विभिन्नताएँ पायी जाती हैं –

  • कुछ व्यक्ति बड़े जल्दी मित्र बना लेते हैं तो कुछ प्रयत्न करने पर भी मित्र नहीं बना पाते क्योंकि उन्हें मित्र बनाने की कला आती ही नहीं।
  • कुछ को अधिकतर लोग पसन्द करते हैं और कुछ को कोई नहीं, अर्थात् कुछ बड़े लोकप्रिय (Popular) होते हैं तो कुछ एकांकी (Isolated)।
  • कुछ सभी के साथ उठना-बैठना पसन्द करते हैं तो कुछ को अकेलापन और एकान्तप्रियता अधिक पसन्द है।
  • कुछ बड़ी विनोदी प्रकृति वाले और सामाजिक होते हैं तो कुछ शर्मीले और अपने ही हाल में मस्त रहने वाले।

सामाजिकता की यह भावना छोटे-बड़े, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष तथा धनी-निर्धन सभी में अलग-अलग रूपों में पायी जाती है। नियम तो नहीं, फिर भी सामान्यतया –

  • जितना छोटा वर्ग या समूह होगा, उसमें सामाजिकता की भावना उतनी ही अधिक होगी।
  • स्वयं को ज्ञान, धन, जाति, वर्ग आदि की दृष्टि से दूसरों की अपेक्षा ऊँचा समझने वाले लोग, सामाजिक कम और विचारों की सात्विकता वश स्वयं को समान या दूसरों की अपेक्षा कम समझने वाले लोग अधिक सामाजिक होते हैं।
  • इन दोनों ही कारणों से शहर की अपेक्षा गाँव वालों में सामाजिकता की भावना प्रायः अधिक पायी जाती है।
  • अहं एवं सामाजिकता की भावना का विरोधी सम्बन्ध है, अर्थात् जहाँ ‘अहं’ होगा वहाँ ‘सामाजिकता की भावना’ कम और जहाँ ‘अहं’ नहीं होगा, वहाँ ‘सामाजिकता की भावना’ अधिक पायी जायेगी।

इन दृष्टियों से सभी बालक और व्यक्तियों में भी भिन्नता पायी जाती है। भारतीय मनोवैज्ञानिक के अनुसार संवेगों की संख्या 10 और मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल के अनुसार यह संख्या 14 है। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति में किसी संवेग का उभार अधिक और किसी का कम होता है। किसी को क्रोध अधिक आता है तो किसी को दया। कोई अति भीरू है तो कोई बहुत साहसी।

4. नैतिक विभिन्नताएँ (Ethical differences)

नैतिकता का मूल आधार अच्छाई और बुराई है। परन्तु अच्छाई और बुराई दोनों ही परिस्थिति सापेक्ष्य शब्द है। जो बात किसी भी व्यक्ति या बालक को अच्छी लगती है, वही बात दूसरे व्यक्ति को बुरी भी लग सकती है। नैतिकता की मोटी पहचान यही हो सकती है कि जो कार्य हम दूसरों के हित की परवाह न करके अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिये करते हैं, सामान्यतया वही अनैतिकता है, जबकि जो कार्य परहित की दृष्टि से किये जाते हैं, वे नैतिकता में आते हैं।

इस दृष्टि से भी व्यक्तियों और बालकों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। कुछ बालक चोरी को भी बुरा नहीं समझते, झूठ बोलना उन्हें अच्छा लगता है, जबकि कुछ लोग या बालक ऐसा करना नैतिकता के विरुद्ध समझते हैं। यह अन्तर एक परिवार के दो सदस्यों में भी पाया जा सकता है।

ये भेद भी आज से नहीं, अपितु आदिकाल से चले आ रहे हैं। रावण और विभीषण दोनों भाई होते हुए भी एक राम द्रोही था तो दूसरा राम-भक्त। अग्रसेन और कंस में देखिये, पिता कृष्ण-भक्त था तो बेटा कृष्ण-द्रोही। ये भेद
आज भी समाज में पाये जाते हैं। इस दृष्टि से भाई-भाई, बाप-बेटे, भाई-बहन, स्त्री-पुरुष आदि सभी में असमानताएँ हो सकती हैं।

5. सांस्कृतिक विभिन्नताएँ (Cultural differences)

प्रत्येक देश की एक विशेष संस्कृति होती है। जो व्यक्ति जिस देश में पला है, वहाँ की संस्कृति का उस पर प्रभाव पड़ता ही है। कुछ देशों में लोग प्रेम विवाह को सर्वोत्तम बन्धन मान सकते हैं, जबकि हमारी भारतीय
संस्कृति में पले हुए लोग इसे निकृष्टतम बन्धन मानते हैं। भारतीय संस्कृति में पले हुए लोग माता-पिता और बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिये जितने सजग हैं, उतने अन्य संस्कृति वाले सभी लोग नहीं। यह हमारी संस्कृति का प्रभाव है। इस दृष्टि से भी व्यक्तियों की मान्यताओं एवं मूल्यों में अन्तर होता है।

6. प्रजातीय विभिन्नताएँ (Racial differences)

प्रजाति से हमारा तात्पर्य यहाँ वर्णागत- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्रों से नहीं, अपितु उन प्रजातियों से हैं जो आदिकाल में थी और उनकी सन्ताने अभी तक चली आ रही हैं, उदाहरणार्थ- आर्यों की सन्तानें, हूण और शकों की सन्तानों आदि से भिन्न है। आज भी अफ्रीका के हब्शी अति काले होते हैं और शीत प्रधान देशों के लोग अति गोरे।

प्रजातीय आधार पर काले-गोरे रंग का भेद नहीं, अपितु उनकी मान्यताओं में भी भेद है। यही नहीं, एक ही देश में भी इस प्रकार की कई प्रजातियाँ हो सकती हैं।

7. धार्मिक विभिन्नताएँ (Religious differences)

धर्म से यहाँ हमारा आशय सम्प्रदाय से है। प्रचलित अर्थ में जिसे हम धर्म कहते हैं, वह वास्तव में धर्म न होकर सम्प्रदाय है। आप कुछ भी नाम दे, लेकिन इस दृष्टि से भी लोगों में भेद होते हैं। जैन लोग चीटी तक को मारना पाप समझते हैं, कन्द मूलों को खाना उचित नहीं समझते, जबकि कुछ सम्प्रदायों में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

वैयक्तिक विभिन्नताओं के इन रूपों के अतिरिक्त रुचियाँ (Interests), अभिवृत्तियाँ (Attitudes), अभिक्षमताएँ (Aptitudes) आदि भी वैयक्तिक विभिन्नताओं को जन्म देती हैं।

वैयक्तिक विभिन्नताओं के कारण

Causes of Individual Differences

हमने जितने भी प्रकार की वैयक्तिक विभिन्नताएँ पढ़ी, उनमें से पहली दो, अर्थात शारीरिक एवं बौद्धिक विभिन्नताओं पर आनुवांशिकता का प्रभाव अधिक पड़ता है और वातावरण का कम, जबकि अन्य विभिन्नताओं पर वातावरण का प्रभाव अधिक और आनुवांशिकता का कम पड़ता है। प्रजातीय विभिन्नताओं को भी ये दोनों ही कारक प्रभावित करते हैं। इन सभी पर आयु (Age) और परिपक्वता (Maturity) का भी प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार वैयक्तिक विभिन्नताओं को मूलत: दो बातें प्रभावित करती हैं –

  1. आनुवांशिकता (Heredity)
  2. वातावरण (Environment)

इनके अतिरिक्त वैयक्तिक विभिन्नताओं को प्रभावित करने वाले अन्य कारक नीचे दिए हुए हैं। ये कारक वैयक्तिक विभिन्नताओं को किस प्रकार प्रभावित करते हैं इसका विवेचन इस प्रकार है-

1. आनुवंशिकता एवं वैयक्तिक विभिन्नताएँ (Heredity and individual differences)

उपरोक्त जितने प्रकार से वैयक्तिक भेद दिये गये हैं- उनमें रूप, रंग और बुद्धि (Intelligence), वंशानुक्रमण से अधिक प्रभावित होते हैं। माता-पिता का जो रूप-रंग होता है, वहीं बच्चों में भी आ जाता है। किन्तु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठता है कि यदि यह सत्य है तो एक ही माता-पिता के सभी बच्चे समान होने चाहिये, उनमें भेद की बिल्कुल सम्भावना नहीं, परन्तु ऐसा होता नहीं। एक ही माता-पिता के सभी बच्चे यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चे भी समान नहीं होते।

फिर, यह अन्तर क्यों? इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिये मनोवैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बच्चे पर केवल माता-पिता का ही प्रभाव नहीं पड़ता, अपितु दादा-दादी (Grand Father and Grand Mother) एवं नाना-नानी का भी प्रभाव पड़ सकता है। यही नहीं एक ही माता-पिता के जो अलग-अलग गुण होते हैं, उनमें भी सभी बच्चे उन्हीं गुणों से और समान रूप से प्रभावित हो यह भी आवश्यक नहीं।

किसी में माँ के गुण अधिक आते हैं तो किसी में पिता के। इन सभी दृष्टियों से दो बच्चे कभी भी समान नहीं हो सकते। लम्बी बीमारियों का अनुक्रमण भी वंश से ही होता है। माता या पिता को जी बीमारी होती है, वही बच्चों में भी आ सकती है। हाँ, एक बात अवश्य है कि अंगों की विकृति का विशेष प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता, उदाहरण के लिये- लंगड़े माता-पिता का बच्चा भी लंगड़ा हो, ऐसा नहीं होता।

शरीर एवं बुद्धि पर आनुवंशिकता के प्रभाव को वैसे भी यदि देखा जाय तो सामान्यतया किसी भी परिवार का सबसे बड़ा बालक स्वास्थ्य की दृष्टि से हष्ट-पुष्ट मिलेगा और बौद्धिक दृष्टि से कमजोर, जबकि सबसे छोटा बालक अपने सभी भाई-बहनों में शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और बौद्धिक दृष्टि से प्रखर होगा। यह क्यों? यह इसलिये है कि प्रारम्भ में माता-पिता शारीरिक दृष्टि से जितने हष्ट-पुष्ट होते हैं, बौद्धिक दृष्टि से उतने परिपक्व नहीं।

धीरे-धीरे वे शारीरिक दृष्टि से दुर्बल तथा बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व होते जाते हैं और यही प्रभाव उनकी सन्तानों पर पड़ता जाता है। यह कोई शाश्वत नियम नहीं है इसके अपवाद और उसके कारण भी हो सकते हैं।

2. वातावरण एवं वैयक्तिक विाभन्नताए (Environment and individual differences)

शारीरिक एवं बौद्धिक विभिन्नताओं के अतिरिक्त जो सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, धार्मिक प्रकार की विभिन्नताएँ होती हैं उन पर वातावरण का प्रभाव अधिक पड़ता है। भाषा आदि सभी पर्यावरण से ही सीखी जाती है। इसी प्रकार रीति-नीतियों आदि का सम्बन्ध भी वातावरण से ही अधिक है। गुजरात में पैदा होने वाले बच्चे गुजराती सीख जाते हैं तो मेवाड़ में रहने वाले मेवाड़ी। क्यों ? क्योंकि वहाँ प्राय: वही भाषाएँ बोली जाती हैं।

इसी प्रकार यदि आप नैतिक दृष्टि से लें तो भी किसी क्षेत्र तथा सम्प्रदाय विशेष में जो बात अच्छी समझी जाती है, वही बात दूसरे क्षेत्र तथा सम्प्रदाय में बुरी भी समझी जा सकती है। कहीं पर एक से अधिक शादियाँ करना अच्छा समझा जाता है कहीं पर बुरा। इन सभी मान्यताओं पर वातावरणीय प्रभाव है।

रूप-रंग, बुद्धि आदि पर वंशानुक्रमण का प्रभाव अधिक होता है परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं कि उन पर वातावरण का प्रभाव पड़ता ही नहीं है। वातावरण के प्रभाव से भी उनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन सम्भव है। यदि किसी बच्चे को प्रारम्भ से ही ऐसे वातावरण में रखा जाय जहाँ वह बौद्धिक दृष्टि से किसी बात पर विचार करे तो उसकी बुद्धि में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य आता है।

इसी प्रकार ठण्डी जलवायु में रंग कुछ गोरा और गर्म जलवायु में काला हो जाता है। यहाँ यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि वातावरण के प्रभाव से रूप, रंग, बुद्धि, शारीरिक गठन आदि में थोड़ा ही परिवर्तन सम्भव है, बहुत अधिक नहीं।

काले को गोरा और गोरे को काला या बुद्धू को बुद्धिमान और बुद्धिमान को नितान्त बुद्धू केवल वातावरण के प्रभाव से नहीं बनाया जा सकता। संक्षेप में वंशानुक्रमण और वातावरण के प्रभाव से जो वैयक्तिक भेद होते हैं, उस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है किबालक में जन्म के समय से जो भी बातें पायी जाती हैं, उन पर वंशानुक्रमण का प्रभाव अधिक होता है, जबकि जिन्हें वह बाद में सीखता है, वे वातावरण के प्रभाव से अधिक सीखी जाती हैं।

पिछड़े हुए क्षेत्रों में रहने वाली पिछड़ी जातियाँ अभी भी ईश्वर से डरती हैं, चोरी करना पाप समझती हैं, जबकि बड़े-बड़े शहरों में रहने वाले लोगों में से बहुत से इसे बिल्कुल बुरा नहीं समझते। यह सभी वातावरण का ही प्रभाव है।

अन्य संबधित लेख-