समायोजन – समायोजन का अर्थ, परिभाषा, कारण, प्रकार एवं विकास

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह अन्त समय तक समाज में ही रहना चाहता है। वह उसी समय अधिक प्रसन्न दिखायी देता है, जबकि वह स्वयं की रुचि, पसन्द और अभिवृत्तियों वाले समूह को प्राप्त कर लेता है। इस व्यावहारिक गतिशीलता का ही नाम समायोजन है। जब व्यक्ति अप्रसन्न दिखायी देता है तो यह उसके व्यवहार का कुसमायोजन होता है।

समाजीकरण की प्रवृत्ति इसकी द्योतक है कि वह जीवन को सरल बनाने के लिये कुछ व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। वह उस समूह का अंग बन जाता है तथा प्रायः उसकी मान-मर्यादा, रीति-रिवाज और बाह्य तथा आन्तरिक नियमों का पालने करने लगता है।

मनुष्य अपने जीवन को समाज के परिवेश के साथ समायोजित करने का प्रयास करता है और इसके पश्चात वह अपने व्यवहार में सामाजिक स्तर के अनुसार आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन करता है। अत: जैविक व्यवहार की गतिशीलता को सामाजिक मान्यता या सामाजिक अमान्यता ही उसकी समायोजन एवं कुसमायोजन की द्योतक होती है।

Samayojan

समायोजन का अर्थ

Meaning of Adjustment

व्यक्ति अपने विकास में ऐसी परिस्थितियों का सामना करता है, जो उसकी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधक होती हैं; उदाहरणार्थ– एक छात्र शिक्षा समाप्ति करने पर हवाई सेना में जाना चाहता है, लेकिन उसका स्वास्थ्य और माता-पिता का हठ उसे लक्ष्य प्राप्त नहीं करने देता। अत: उसमें असन्तोष, मानसिक तनाव, व्यवहार में अस्थिरता आदि असामान्यताएँ उत्पन्न होने लगती हैं। अब वह हवाई सेना में न जाकर वायुयान ऑफिस में अच्छा ऑफीसर बनने का लक्ष्य निर्धारित करता है। यदि वह इस लक्ष्य में सफल हो जाता है तो परिस्थिति के प्रति उसका ‘समायोजन‘ माना जायेगा। पर यदि उसे इसमें सफलता नहीं मिलती तो उसमें कुसमायोजन उत्पन्न हो जाता है।

अत: जब व्यक्ति अपने व्यवहार की गतिशीलता का प्रयोग आवश्यकताओं की पूर्ति और आत्म-पुष्टि के लिये करता है तो इसे समायोजन की प्रक्रिया कहा जाता है, जो इस प्रकार है-

बोरिंग, लैंगफैल्ड एवं बैल्ड के अनुसार

समायोजन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राणी अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में सन्तुलन रखता है।

गेट्स एवं अन्य के शब्दों में समायोजन का अर्थ

समायोजन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने और अपने वातावरण के बीच सन्तुलित सम्बन्ध रखने के लिये अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है।

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति स्व-विकास के लिये प्रेरकों की सहायता से परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करता है। इस विजय में माता-पिता, अध्यापकों और समाज के अन्य सदस्यों का भी योगदान होता है।

गैसा फेयर तथा हीवरी ने समायोजन के बारे में लिखा है

समाजीय व्यक्तियों के लिये जीव का व्यवहार ग्राह्य और अग्राह्य हो सकता है, जिसे समायोजन और कुसमायोजन की संज्ञा दी जाती है। जीव के व्यवहार का परिक्षेत्र समाजीय नियम, स्तर, आदतें और रूढ़ियों एवं व्यवहार के विभिन्न तरीकों से लगाया जाता है।

कुसमायोजित व्यवहार के कारण

Causes of Mal-adjustive Behaviour

मानव जीवन विकास पर निर्भर है, जब उसे विकास में अवरुद्धता प्रतीत होती है तो वह दुःखी हो जाता है और असफलता को प्राप्त होता है, जिसे उसका कुसमायोजन व्यवहार माना जाता है। असामान्य व्यवहार को भी मनोवैज्ञानिकों ने कुसमायोजन माना है।

जब कोई व्यक्ति सामान्य व्यवहार से गिरकर समाजीय व्यवहार प्रकट करने लगता है तो उसे कुसमायोजन की संज्ञा दी जाती है।

गेट्स एवं अन्य के अनुसार- “कुसमायोजन, व्यक्ति और उसके वातावरण में असन्तुलन का उल्लेख करता है।

कुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण (Traits of mal-adjustment)

जब कोई व्यक्ति स्वयं को समायोजन से गिरा देता है तो उसमें निम्न लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं-

  1. कुसमायोजित व्यक्ति अपने को परिवेश के अनुकूल बनाने में असमर्थ होता है।
  2. वह अनिश्चित मनवाला, अस्थिर बुद्धि वाला, संवेगात्मक रूप से असन्तुलित, अनिर्दिष्ट उद्देश्य वाला, घृणा-द्वेष एवं बदले की भावना वाला होता है।
  3. वह असामाजिक,स्वार्थी और सर्वथा दुःखी होता है।
  4. वह साधारण-सी बाधा उत्पन्न होने पर मानसिक सन्तुलन खो देता है।
  5. स्नायु रोगों से पीड़ित, मानसिक द्वन्द्व एवं कण्ठा से ग्रस्त तथा तनाव युक्त होता है।

कुसमायोजन के मानसिक कारण (Mental causes of mal-adjusmant)

जब व्यक्ति सामान्य से हटकर व्यवहार करने लगता है तो समायोजन की शक्ति का ह्यस होने लगता है। अत: विद्वानों ने कुसमायोजन के मानसिक कारणों को निम्न भागों में बाँटा है-

  1. भग्नाशा या कुण्ठा (Frustration)
  2. मानसिक संघर्ष (Mental conflict)
  3. मानसिक तनाव (Mental tension)

1. भग्नाशा या कुण्ठा (Frustration)

संसार के समस्त प्राणी दिन-रात क्रियाशील रहते हैं। मनुष्य, बौद्धिकता में श्रेष्ठ होते के कारण अधिक चिन्तनशील क्रियाओं को मानता है। उसकी सहज क्रियाओं को छोड़कर अन्य सभी क्रियाएँ प्रेरकों पर आधारित होती हैं। प्रेरक व्यक्ति की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने में संलग्न हो जाता है। वह जब विभिन्न रुकावटों के कारण लक्ष्य प्राप्ति में असफल रहता है तो उसमें भग्नाशा या कुण्ठा का प्रादुर्भाव होता है।

उदाहरण के तौर पर, एक छात्र पढ़ने में इसलिये विशेष परिश्रम करता है जिससे वह कक्षा में प्रथम स्थान पा सके। जब परीक्षाफल निकलता है तो वह प्रथम स्थान प्राप्त नहीं करता। इसमें अवरोधक-क्रमबद्ध पढ़ने का अभाव, स्तरानुसार प्रश्नोत्तरों का अभाव, पारिवारिक परेशानियाँ एवं रात्रि को बिजली का अभाव आदि हो सकते हैं। इस प्रकार के छात्रों में भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है।…Read More!

2. मानसिक संघर्ष (Mental Conflict)

मानसिक संघर्ष को मानसिक द्वन्द्व के नाम से भी पकारा जाता है। यह संघर्ष पूर्ण रूप से मानसिक होता है और व्यक्ति जब तक किसी निश्चित उद्देश्य का चुनाव नहीं कर लेता यह मानसिक या विचारों का संघर्ष समाप्त नहीं होता। मानसिक संघर्ष विरोधी भावनाओं के कारण उत्पन्न होता है।…Read More!

3. मानसिक तनाव (Mental Tension)

मानसिक तनाव शारीरिक एवं मानसिक असामान्यता के कारण उत्पन्न होता है। तनाव की परिस्थिति में व्यक्ति इतना अधिक उत्तेजित हो जाता है कि वह परिस्थिति का सामना उचित प्रकार से नहीं कर पाता है; जैसे-थॉर्नडाइक ने बिल्ली को भूखा रखा तो उसमें क्रिया के प्रति उत्तेजना बढी और शीघ्रातिशीघ्र लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास किया। अत: तनाव, आवश्यकताएँ इच्छा, लक्ष्य, अपमान, शारीरिक दोष आदि के कारण उत्पन्न होते हैं।…Read More!

विविध समायोजन/रक्षातन्त्र कवच या रक्षा युक्ति (Different Adjustment/Deffence Mechanism)

कोलमैन, 1976 (Coleman, 1976) के अनुसार- “यह व्यक्तियों की प्रतिक्रिया के वह विचार हैं, जिनसे व्यक्ति में उपयुक्तता की भावना बनी रहती है तथा इनकी सहायता से व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से दबावपूर्ण परिस्थितियों से सामना करता है, बहुधा परिक्रियाएँ चेतन तथा वास्तविकता को विकृत करने वाली होती हैं।

जे. एफ. ब्राउन (J.E. Brown, 1940) के अनसार- “मनोरचनाएँ वह चेतन तथा अचेतन प्रक्रियाएँ हैं, जिनमें आन्तरिक संघर्ष कम होता है अथवा समाप्त हो जाता है।

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    समायोजन में अभिप्रेरण एवं उपलब्धि की भूमिका

    Role of Motivation and Perception in Adjustment

    अभिप्रेरणा सीखने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति जीवन के सामाजिक, प्राकृतिक एवं वैयक्तिक क्षेत्र में अभिप्रेरणा द्वारा ही सफलता की सीढ़ी तक पहुँच जाता है। यदि उसके लिये उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण नहीं हो पाता, तो अभिप्रेरणा का उत्पन्न होना सन्देहप्रद रह जाता है।

    सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका का अध्ययन भी अति आवश्यक है, जिसका वर्णन इस प्रकार है-

    1. निश्चित उद्देश्य (Definite object)

    शिक्षक को चाहिये कि वह विद्यार्थियों के समक्ष कार्य से सम्बन्धित समस्त उद्देश्य रख दे, पुनः स्पष्ट कर दे, ताकि सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली बन सके।

    2. आत्म-अभिप्रेरणा (Self-motivation)

    उच्च आकांक्षाएँ, स्पष्ट उद्देश्य तथा परिणामों का ज्ञान विद्यार्थी की आत्म-प्रेरणा के लिये प्रोत्साहन का कार्य करते हैं। इनसे आन्तरिक प्रेरणा मिलती है। छात्र, शिक्षक के मार्गदर्शन में ही चारित्रिक विकास एवं आदर्श नागरिकता
    का विकास करना सीखते हैं।

    3. प्रशंसा और निन्दा (Praise and reproof)

    शिक्षक को सीखने की परिस्थितियों में प्रशंसा और निन्दा का प्रयोग बहुत ही बुद्धिमानी से करना चाहिये। यहाँ उन्हें प्रशंसा और निन्दा हेतु उनकी आयु तथा लिंग का ध्यान रखना चाहिये,क्योंकि जरा-सी असावधानी से विद्यार्थियों का अहित हो सकता है।

    4. अभिप्रेरणा से ध्यान,रुचि और उत्साह प्राप्त करना (Securing attention, interest and enthusiasm by motivation)

    कक्षा में अधिगम प्रक्रिया को तीव्र करने के लिये प्राथमिक पूर्ति के रूप में अभिप्रेरणा आवश्यक है। शिक्षक छात्रों में रुचि उत्पन्न कर ध्यान को केन्द्रित कर देता है। इस प्रकार रुचियों के बढ़ने से अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है, फलस्वरूप नये कौशल, उत्साह और सन्तोषप्रद परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। जब विद्यार्थी अधिकाधिक प्रश्न पूछे, तब उस विषय-वस्तु की व्याख्या विस्तृत रूप से की जानी चाहिये।

    5. परिपक्वता (Maturation)

    यदि शिक्षक विद्यार्थियों की आयु तथा मानसिक परिपक्वता के अनुरूप उन्हें कार्य दे, तो सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होगी। परिपक्वता एवं अभिप्रेरणा में समन्वय बैठाया जाय। औपचारिक अधिगम हेतु विद्यार्थी की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सांस्कृतिक रूप से परिपक्वता को देखा जायेगा।

    6. अभिप्रेरणा में दृष्टिकोणों का महत्त्व (Importance of attitude in motivation)

    अभिप्रेरण दृष्टिकोण,रुचियों और ध्यान से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित होता है। दृष्टिकोण किन्हीं विशेष परिस्थितियों में से किसी व्यक्ति की क्रियाओं का समूह होता है। ये दृष्टिकोण ही अभिप्रेरकों को मार्ग देते हैं। ये नये अनुभवों की केवल तैयारी ही नहीं होते, अपितु अनुभव प्राप्त करने के लिये नयी सीमाएँ भी निर्धारित करते हैं।

    7. बालक के व्यक्तित्व को पहचानना (To recognise the personality of student)

    कक्षा में छात्र को हतोत्साहित करना या दण्डित करना हानिप्रद होता है। दण्ड या हतोत्साहित करना उचित संवेगी नहीं है। ये उनके व्यक्तित्व को विघटित करते हैं। इन संवेगों से छात्रों में झिझक, कुण्ठा, निश्चितता, आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान में कमी आती और अनेक बार तो छात्र शाला की क्रियाओं से अलग हो जाते हैं। संवेगों को उचित पोषण एवं मार्ग-दर्शन न मिलने के अभाव में वे अपराधी प्रवृत्ति अपनाते हैं और सीखने के सही मार्ग को छोड़ देते हैं।

    8. प्रतियोगिताएँ (Competitions)

    सीखने के लिये प्रतियोगिताएँ (स्पर्धा) बहुत प्रभावशाली माध्यम हैं। इससे विद्यार्थियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्रतियोगिताओं में द्वेष की भावना नहीं होनी चाहिये। प्रतियोगिता और सहयोग लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों के विकास के लिये अभिप्रेरणा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

    9. सीखने की इच्छा (Curiosity or will to learn)

    प्रभावशाली अधिगम के लिये शिक्षार्थी में सीखने की जिज्ञासा अथवा इच्छा का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिना इच्छा के कोई भी विद्यार्थी अभिप्रेरित नहीं हो सकता और अभिप्रेरणा के अभाव में सीख भी नहीं सकता। सीखने की गति और दक्षता दोनों ही सीखने की जिज्ञासा से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित होते हैं।

    10. सीखने में अभिप्रेरणा हेतु आवश्यकताएँ (Needs for motivation in learning)

    सीखने की इच्छा की सुदृढ़ता हेतु विद्यार्थियों के अचेतन मन की आवश्यकताओं को जाग्रत किया जाना चाहिये। अचेतन आन्तरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं का सबसे अधिक सत्य संकेत होता है। अत: शिक्षक कक्षा में विद्यार्थियों की आवश्यकताओं पर दृष्टि रखते हुए उन्हें पूरा करके विद्यार्थियों के सीखने की अभिप्रेरणा को विकसित कर सकता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति से उनके मन में उत्पन्न तनाव कम होता है तथा इस तनाव के कम होने से वे सीखने की प्रक्रिया में संलग्न हो जाते हैं।

    विद्यालय में समायोजन का विकास

    Development of Adjustment in School

    मन के अनुसार- ‘निरन्तर रहने वाली चिन्ता शारीरिक और मानसिक रूप से कष्टदायक होती है।’ इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी प्रकार की असफलता छात्रों में ‘निराशा’ उत्पन्न करती है। निराशा के द्वारा मानसिक संघर्ष उत्पन्न होता है और ‘मानसिक संघर्ष’ की निरन्तरता तनाव’ को उत्पन्न कर देती है। अत: छात्रों की समायोजन शक्ति समाप्त हो जाती है। प्रत्येक विद्यालय का यह कर्त्तव्य होता है कि वह अपने छात्रों की समायोजनशीलता को बनाये रखे।

    विद्यालय में समायोजन का विकास के लिये विद्यालय द्वारा निम्न कार्य करने चाहिये-

    1. बालकों के समक्ष किसी प्रकार की समस्या उपस्थित नहीं होने देनी चाहिये।
    2. बालकों को निराशा और असफलताओं का सामना करने के लिये प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये।
    3. शारीरिक, मानसिक एवं नाड़ीय दोषयुक्त बालकों का पर्याप्त उपचार हो और उसकी शिक्षा की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये।
    4. प्रतिभाशाली बालकों की विशेष शिक्षा एवं दीक्षा का प्रबन्ध होना चाहिये।
    5. पिछड़े छात्रों के लिये छात्रवृत्ति एवं विशेष कक्षाओं की सुविधा होनी चाहिये।
    6. एकान्तप्रिय एवं शर्मीले बालकों को विभिन्न प्रतियोगिताओं में प्रवेश दिलाकर प्रशंसा के द्वारा सामान्य बनाना चाहिये।
    7. विद्यालयों में मार्ग निर्देशन की व्यवस्था हो जिससे वे वैयक्तिक,शैक्षिक तथा व्यावसायिक चिन्ताओं का सही समाधान कर सकें।
    8. कक्षा के वातावरण में आपसी तनाव को प्रेम तथा सौहार्द्र के साथ दूर करना चाहिये।
    9. विद्यालय का वातावरण परिवार जैसा होना चाहिये ताकि वे संघर्ष से बच सकें।
    10. छात्रों के जीवन का उद्देश्य और वे भविष्य में क्या बनेंगे बता देना चाहिये? जिससे उनके मन से असुरक्षा की भावना निकल सके।
    11. माता-पिता को बालकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये? यह पहल समय-समय पर अध्यापक-संरक्षक गोष्ठी में समझाना चाहिये ताकि बालकों के प्रति स्वयं के कर्त्तव्य को वे भी समझ सकें।