किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Form of Education in Adolescence)

Kishoravastha Me Shiksha Ka Swaroop

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था की विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि यह मानव जीवन के विकास का सबसे कठिन, उथल-पुथल और समस्याओं से भरा काल होता है।

किशोरावस्था में व्यक्ति अच्छा या बुरा बन सकता है। अत: किशोरों को सही मार्ग-दर्शन मिलना चाहिये। इनके भावी जीवन का निर्माण माता-पिता, अभिभावकों, शिक्षकों और अन्य साधनों पर पूर्णतया निर्भर करता है।

इसलिये हम यहाँ पर इनके विकास के लिये उपयुक्त शैक्षिक आधारों पर प्रकाश डालते हैं-

1. स्वस्थ शरीर एवं मन का विकास (Development of healthy physique and mind)

किशोरावस्था में शारीरिक परिवर्तन इतनी तेजी से होते हैं कि हम उनके लिये उपयुक्त साधन जुटाने में असफल रहते हैं। इस शक्ति का सही प्रयोग हम शिक्षा के माध्यम से ही कर सकते हैं।

इसके अन्तर्गत सबसे पहले हमें स्वस्थ मन एवं स्वस्थ शरीर को बनाये रखने के लिये पर्यावरण पर ध्यान देना चाहिये। किशोरों के लिये पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यायाम और खेलकूद आदि की व्यवस्था आवश्यक है।

इसी प्रकार से स्वस्थ मन के लिये किशोरों की बुद्धि, निरीक्षण शक्ति, तर्क शक्ति, चिन्तन शक्ति,स्मृति तथा कल्पना शक्ति आदि का विकास उचित रूप से होना चाहिये।

अत: किशोरावस्था की शिक्षा में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

  1. उपयुक्त एवं सामाजिक पाठ विषयों की व्यवस्था।
  2. पुस्तकालय, वाचनालय,प्रयोगशालाएँ, संग्रहालय, कर्मशालाएँ और खेलकद आदि की व्यवस्था।
  3. जिज्ञासा एवं निरीक्षण शक्ति का विकास करने के लिये पाठय विषयों के अतिरिक्त ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक स्थानों के भ्रमण का आयोजन।
  4. छात्रों में कलात्मक तथा सौन्दर्यात्मक भावों को जाग्रत करने के लिये साहित्य, संगीत तथा कला आदि के शिक्षण की व्यवस्था।
  5. भाव एवं विचार ग्रहणशीलता और प्रकाशन के लिये वाद-विवाद,साहित्यिक गोष्ठी, संगीत आयोजन एवं भाषण माला का आयोजन।

अत: विद्यालय को किशोर छात्र/छात्राओं के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने और उनके विकास के लिये प्रयत्नरत रहना चाहिये।

2. संवेगात्मक विकास (Emotional development)

किशोरावस्था को तूफान, तनाव एवं संघर्ष की अवस्था माना जाता है। यह तथ्य उसकी संवेगात्मक अस्थिरता को प्रकट करता है। शिक्षा के द्वारा किशोर एवं किशोरियों के संवेगों का प्रकाशन सही प्रकार से एवं सही दिशा में किया जाता है ताकि वे अपने व्यक्तित्व का सही गठन कर सकें।

अत: किशोरावस्था की शैक्षिक व्यवस्था में संवेगात्मक विकास के लिये निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान दिया जाये-

  1. संवेगों का शोधन एवं मार्गान्तरीकरण करने की शिक्षा विद्यालयों में दी जानी चाहिये।
  2. सुन्दर एवं राष्ट्रीय स्थायी भावों का गठन छात्रों में किया जाना चाहिये।
  3. नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा का सही शिक्षण (मानवीय) विद्यालयों में होना चाहिये।
  4. इस अवस्था में शिक्षक एवं अभिभावकों को सचेत रहना चाहिये ताकि छात्र अपने संवेगों का गलत प्रकाशन न कर पायें।

3. सामाजिक व्यक्तित्व के लिये शिक्षा (Education for social personality)

किशोरावस्था सामाजिक सम्बन्धों को ग्रहण करने का समय होता है। इस समय व्यक्ति, व्यक्ति के बीच में, व्यक्ति समूह के बीच और समूह, समूह के बीच में सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं। इन सम्बन्धों को बनाने में जो व्यक्ति अधिक उत्सुकता दिखलाते हैं, वे अपने सामाजिक व्यक्तित्व का विकास शीघ्र स्थापित कर लेते हैं।

अत: शिक्षा के द्वारा सामूहिक क्रियाएँ, सामूहिक खेल और स्काउटिंग आदि शिक्षण-प्रशिक्षण क्रियाएँ सामाजिक व्यक्तित्व के विकास के लिये उपलब्ध होनी चाहिये।

4. यौन शिक्षा (Sex education)

किशोरावस्था में जननिक क्रियाएँ चरम उत्कर्ष पर होती हैं। किशोर-किशोरी के प्रति स्वभावत: ही आकर्षित होते हैं। उनमें अपना जीवन साथी पाने की लालसा होती है। अत: उनको सामाजिक बुराइयों से बचाने के लिये यौन शिक्षा को सही रूप में प्रस्तुत करना अध्यापकों और अभिभावकों का कर्तव्य होना चाहिये।

यौन शिक्षा द्वारा किशोर और किशोरियों को शारीरिक एवं मानसिक विकास के अवसर मिलेंगे और वह मानवीय शोषण से बचेंगे। स्त्री एवं पुरुष में समानता के आधार पर सहयोग, सम्मान और निर्भरता में वृद्धि होगी।

अत: मानसिक विकारों से बचने के लिये, भावना ग्रन्थियों को समाप्त करने के लिये और किशोर अपराधों को रोकने के लिये यौन शिक्षा की आवश्यकता होती है।

5. नागरिक जीवन के लिये शिक्षा (Education for citizenship)

प्रत्येक शिक्षा प्रणाली का यह उद्देश्य होता है कि वह अपने देश के व्यक्तियों को अच्छा नागरिक बनाये। युवक और युवतियों में अच्छे नागरिक के गुण या विशेषताएँ शिक्षा के द्वारा ही विकसित की जाती है।

वह व्यक्ति उत्तम माना जाता है, जिसमें राष्ट्रभक्ति, अच्छा स्वास्थ्य, क्रियाशीलता, कर्तव्यनिष्ठा, सहनशीलता, प्रेम, सहानुभूति, उत्तम चरित्र, सहकारिता आदि नागरिक गुण हों।

अतः ‘किशोरावस्था की शिक्षा व्यवस्था नागरिक जीवन के लिये’ होनी चाहिये ताकि सभी अपनी क्षमताओं के साथ सुलभ जीवन यापन कर सकें।

6. शिक्षा का आधार वैयक्तिकता (Education based on individuality)

प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमताओं के आधार पर भिन्नता लिये होता है। अतः किशोर एवं किशोरियों की शिक्षा व्यवस्था वैयक्तिकता के आधार पर होनी चाहिये। इनकी शिक्षा का स्वरूप बौद्धिक
क्षमता,रुचि, क्रियाशीलता, मनोवृत्ति, अनुभव और सामयिक आवश्यकता के आधार पर निश्चित होना चाहिये। इस प्रकार से सभी विद्यार्थी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से कर सकते है।

इसीलिये ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ 1952-53 ने लिखा है- “हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों,रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिये विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिये।

7. यथार्थता की शिक्षा (Education of reality)

भौतिक संसार के मायाजाल से स्वयं को बचाने के लिये और सुखी जीवन यापन करने के लिये यथार्थता का ज्ञान आवश्यक होता है। जब हम वास्तविक और बनावटी में अन्तर करना सीख जाते हैं तो हमें यथार्थता का ज्ञान हो जाता है।

कल्पनामय और दिवास्वप्नीय पर्यावरण में विकसित किशोर एवं किशोरियों के लिये यथार्थता की शिक्षा आवश्यक है। वे क्षणिक भावावेश में अपने जीवन को असामाजिक एवं सामाजिक बना सकते हैं। अत: उनको यथार्थता, वास्तविकता और व्यावहारिकता आदि का सही ज्ञान दिया जाय ताकि वे अपने भविष्य को सही दिशा दे सकें और सुखी जीवन बिता सकें।

8. नेतृत्व की शिक्षा (Education of leadership)

मनोवैज्ञानिकों एवं शिक्षाविदों में विभिन्न मत होते हैं। हम बालकों को जैसा चाहें बना सकते हैं। महान् मनोवैज्ञानिक ‘वाटसन‘ का भी यही कथन है-“आप हमें बालक दीजिये, उसे हम वकील,डॉक्टर, प्रोफेसर, नेता आदि जो भी चाहें बना सकते हैं।

अत: देश को सही, सक्षम, कुशल नेता मिल सके, इसके लिये हमें नेतृत्व के गुणों को विकसित करने की शिक्षा किशोरों को देनी चाहिये। यही नेता अपनी दूरदर्शिता और नीतियों से राष्ट्र का सही संचालन करेंगे।

9. शिक्षक की भूमिका (Role of the teacher)

किशोरावस्था के लिये शिक्षक महत्त्वपूर्ण भूमिका तभी हो सकती है जब उसे मनोवैज्ञानिक पद्धतियों के द्वारा प्रशिक्षित गया हो। उसको किशोर एवं किशोरियों की विशेषताएँ, परिवर्तनों आदि का ज्ञान हो। वह जनके भविष्य का सही मूल्यांकन कर सके।

शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली हो ताकि वे उसे समान दें और अनुकरण करें। शिक्षक पाठ्यक्रम को नवीन तरीकों से पढ़ाये और साथ ही उनकी भावनाओं एवं संवेगों का समाधान यथार्थ दृष्टिकोण से करें।

जैसा कि एम. एल. विगी ने लिखा है-“जो अध्यापक अपने छात्रों को अभिप्रेरित करने में सक्षम होते हैं, वे शिक्षा सम्बन्धी युद्ध को आधे से अधिक प्रारम्भ से पहले ही जीत लेते हैं।

10. निर्देशन की व्यवस्था (Arrangement of guidance)

किशोरावस्था भावावेश की अवस्था होती है। इसमें व्यक्तिगत, शैक्षिक और पर्व व्यावसायिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इनका समाधान सही समय पर होना चाहिये अन्यथा किशोर एवं किशोरियों के व्यक्तित्व विघटित हो जाते हैं।

विद्यालयों में निर्देशन केन्द्रों और प्रशिक्षित निर्देशकों की व्यवस्था हो। यह निर्देशनकर्ता बालकों का सही अध्ययन करते हैं और परामर्श के द्वारा उनके भविष्य का निर्धारण करते हैं।

इस प्रकार से किशोर-किशोरियाँ अपने भावावेश का सही प्रयोग करते हैं। जैसा कि चार्ल्स ई. स्किनर ने लिखा है-“किशोर-किशोरियों को निर्णय करने का कोई अनुभव नहीं होता है। अत: उनके लिये निर्देशन आवश्यक हो जाता है।

किशोरावस्था का विकास बहुत ही नाजुक एवं आन्दोलन वाला होता है। इस अवस्था का निश्चय, संकल्प, उनको महान बनाने में सहायक होता है। अतः शिक्षा जगत को इस काल की शिक्षा का प्रारूप सही रूप से तैयार करना चाहिये ताकि बालकों के भविष्य का निर्माण अव्यवस्थित न हो सके। अध्यापकों, अभिभावकों एवं समाजसेवियों के द्वारा शिक्षा का सुनियोजित प्रबन्ध एवं संचालन करके किशोर एवं किशोरियों के स्वच्छ जीवन बनाने में मदद दे सके।