प्रश्न १. कबीरदास का जीवन-परिचय देते हुए उनकी प्रमुख कृतियों का उल्लेख कीजिए।
Kabir Das
कबीरदास का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब समाज अनेक बराइयों से ग्रस्त था। छुआछूत, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता का बोलबाला था और हिन्दू-मुसलमान आपस में दंगा-फसाद करते रहते थे। धार्मिक पाखण्ड अपनी चरमसीमा पर था और धर्म के ठेकेदार अपने स्वार्थ की रोटियां धार्मिक कट्टरता एव उन्मादक चूल्हे पर सेंक रहे थे। कबीर ने इसका डटकर विरोध किया और सभी क्षेत्रों में फैली हुई सामाजिक बुराइयों को दूर करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने अपनी बात निर्भीकता से कही तथा हिन्दुओ आर मुसलमान को डटकर फटकारा। वस्तुतः कबीर भक्त और कवि बाद में थे. वे सही अर्थों में समाज-सुधारक पहले थे। कबीर की शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं।जीवन-परिचय
कबीर के जीवन-परिचय का विवरण प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थ हैं- 'कबीर चरित्र बोध', 'भक्तमाल', 'कबीर परिचयी' किन्त इनमें दिए गए तथ्यों की प्रामाणिकता संदिग्ध है। इन ग्रन्थों के आधार पर जो निष्कर्ष कबीर के सम्बन्ध में विद्वानों ने निकाले हैं उनका सार इस प्रकार है:कबीर का जन्म सम्वत् 1555 (सन् 1398 ई.) में हुआ था। जनश्रुति के अनुसार उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ जिसने लोकलाज के भय से उन्हें त्याग दिया। एक जुलाहा दम्पति को वे लहरतारा नामक तालाब के किनारे पड़े हुए मिले जिसने उनका पालन-पोषण किया। वे ही कबीर के माता-पिता कहलाए। इनके नाम थे नीमा और नीरू। कबीर के गुरु प्रसिद्ध सन्त रामानन्द थे। कबीर के जन्म के सम्बन्ध में एक दोहा बहुत प्रचलित है :
चौदह सौ पचपन साल गए चन्द्रवार एक ठाट ठए।
जेठ सुदी बरसाइत को पूरनमासी प्रगट भए॥
जेठ सुदी बरसाइत को पूरनमासी प्रगट भए॥
जीवन-पर्यन्त अन्धविश्वास एवं रूढ़ियों का खण्डन करने वाले इस सन्त ने अपनी मरण बेला में भी अन्धविश्वास का खण्डन करने का प्रयास किया और सही अर्थों में समाज-सुधारक होने का परिचय दिया।
कृतियां
कबीर पढ़े-लिखे न थे, उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है :
मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यौ नहीं हाथ।
कबीर की रचनाओं का संकलन 'बीजक' नाम से किया गया है, जिसके तीन भाग है- (१) साखी (२) सबद, (३) रमैनी।
- साखी - दोहा छन्द्र में लिखी गई है तथा कबीर की शिक्षाओं एवं सिद्धान्तों का विवेचन इसकी विषय-वस्तु में हुआ है।
- सबद - कबीरदास के पदो को 'सबद' कहा जाता है। ये पद गेय हैं तथा इनमें संगीतात्मकता विद्यमान है। इन्हें विविध राग-रागिनियों में निबद्ध किया जा सकता है। रहस्यवादी भावना एवं अलीकिक प्रेम की अभिव्यक्ति इन पदों में हुई है।
- रमैनी - रमैनी की रचना चौपाइयों में हुई है। कबीर के रहस्यवादी एवं दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति इसमें हुई है।
हिन्दी साहित्य में स्थान
ज्ञानमार्गी कबीर दास का हिन्दी साहित्य में मूर्धन्य स्थान है। उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में सत्य और पावनता पर बल दिया। समाज सुधार, राष्ट्रीय और धार्मिक एकता उनके उपदेशों का काव्यमय स्वरूप था। तत्कालीन समाज की विसंगतियों और विषमताओं को उन्होंने निद्वन्द्व भाव से अपनी साखियों के माध्यम से व्यक्त किया। वे सारग्रही महात्मा थे। अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति की ईमानदारी उनका सबसे बड़ा गुण था। भारत की जनता को तुलसीदास के अतिरिक्त जिस दूसरे कवि ने सर्वाधिक प्रभावित किया, वे कबीरदास ही हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी हमारे लिए उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।प्रश्न २. "कबीर एक समाज सुधारक कवि थे" इस कथन की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
अथवा"कबीर काव्य का मुख्य स्वर समाज सुधार है" सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
अथवा'कबीर भक्त और कवि बाद में थे, समाज सुधारक पहले थे' इस कथन की विवेचना उदाहरण सहित कीजिए।
अथवा"कबीर की रचनाओं का महत्व उनमें निहित सन्देश से है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
कबीर की प्रसिद्धि एक समाज सुधारक सन्त कवि के रूप में रही है। उन्होंने अपने समय में व्याप्त सामाजिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों का खण्डन किया तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रशंसनीय प्रयास किया। वस्तुतः व भक्त और कवि बाद में है, समाज सुधारक पहले हैं। उनकी कविता का उद्देश्य जनता को उपदेश देना और उसे सही रास्ता दिखाना था। उन्होंने जो गलत समझा उसका निर्भीकता से खण्डन किया। अनुभूति की सच्चाई और अभिव्यक्ति की ईमानदारी कबीर की सबसे बड़ी विशेषता रही है।उनका जन्म ऐसे समय में हुआ जब समाज में आडम्बर एवं पाखण्ड का बोलबाला था, हिन्दू-मुसलमानों में पारस्परिक द्वेष एवं वैमनस्य की भावना थी और समाज में जाति प्रथा का विष व्याप्त था। रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों के कारण जनता का शोषण धर्म के ठेकेदार कर रहे थे। कबीर ने इन सब पर एक साथ प्रहार किया। वे सही अर्थों में प्रगतिशील चेतना से युक्त ऐसे कवि थे जो अपार साहस, निर्भीकता एवं सच्चाई के हथियारों से लैस थे। उन्होंने बिना कोई पक्षपात किए हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की बुराइयों पर प्रहार किया। कबीर के समाज सुधारक व्यक्तित्व की विशेषताओं का निरूपण निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है।
मूर्ति पूजा का विरोध
मूर्ति पूजा से भगवान नहीं मिलते। वे कहते हैं कि यदि पत्थर पूजने से भगवान मिल जायें तो मैं पहाड़ पूज सकता है। इससे ता अच्छा है कि लोग घर की चक्की की पूजा करें:
पाहन पूजै हरि मिले तो में पूजूँ पहार।
घर की चाकी कोई न पूजै पीसि खाय संसार।।
घर की चाकी कोई न पूजै पीसि खाय संसार।।
जाति-पाति का खण्डन
जाति-पाति का विरोध करते हुए वे कहते हैं कि कोई छोटा-बडा नहीं है। सब एक समान है:
जाति पाँति पूछ नहिं कोई।
हरि को भजैं सो हरि को होई।।
हरि को भजैं सो हरि को होई।।
ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।
बाह्याडम्बरों का विरोध
कबीर ने रोजा, नमाज, छापा, तिलक, माला, गंगास्नान, तीर्थाटन, आदि का विरोध किया, माला का विरोध करते हुए वे कहते हैं :
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
करका मनका डारि के मन का मनका फेर।।
करका मनका डारि के मन का मनका फेर।।
हिंसा का विरोध
कबीर ने जीवहिंसा का विरोध करते हुए लिखा है कि अहिंसा ही परम धर्म है। जो व्यक्ति मांसाहारी हैं उन्हें उसका दण्ड अवश्य मिलता है :
बकरी पाती खात है ताकि काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात हैं तिनके कौन हवाल।।
जे नर बकरी खात हैं तिनके कौन हवाल।।
हिन्दू-मुस्लिम एकता
कबीर चाहते थे कि हिन्दू-मुसलमान प्रेम से रहें, इसलिए उन्होंने राम-रहीम को एक मानते हुए कहा :
दुई जगदीस कहाँ तै आया।
कहु कौने भरमाया।।
कहु कौने भरमाया।।
सदाचरण पर बल
कबीर दास सदाचरण पर बल देते थे। उन्होंने जनता को सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का मार्ग दिखाया, वे कहते हैं कि किसी को धोखा नहीं देना चाहिए :
कबिरा आपु ठगाइये आपु न ठगिए कोय।
साँच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय साँच है ताके हृदय आप।।
जाके हृदय साँच है ताके हृदय आप।।
कबीर संगति साधु की हरै और की व्याधि।
संगति बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि।
संगति बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि।
सामाजिक समन्वय पर बल
कबीर चाहते थे कि हिन्दू और मुसलमानों में भाई-चारे की भावना उत्पन्न हो। वे कहते हैं :
हिन्दू तुरक की एक राह है सतगुरु यहै बताई।
प्रश्न ३. 'साखी' का अर्थ स्पष्ट करते हुए कबीर की साखियों का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
अथवासाखी से क्या अभिप्राय है? कबीर की साखियों में किन विषयों का प्रतिपादन किया गया है?
साखी का अर्थ- कबीरदास की रचनाओं को तीन वर्गों में विभक्त किया गया है साखी, सबद, रमैनी। कबीर ने जो दोहे लिखे हैं उन्हें ही साखी कहा गया है। 'साखी' शब्द मूलतः संस्कत के 'साक्षी' शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है- प्रमाण। जीवन के जो अनुभव कबीर ने प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त किए उनका साक्षात्कार करके उन्हें 'साखियों' के रूप में व्यक्त किया है।कबीर ने स्वयं साखी की परिभाषा देते हुए कहा है :
साखी आँखी ज्ञान की समुझि देखु मनमाँहि।
बिन साखी संसार को झगरा छूटत नाँहि।
बिन साखी संसार को झगरा छूटत नाँहि।
साखियों की विषयवस्तु एवं महत्ता
कबीर ग्रन्थावली में साखियों को 58 अंगों में बांटा गया है। कुल साखियों की संख्या 809 है तथा परिशिष्ट में 192 साखियां और दी गई हैं। कबीर बीजक में कुल 353 साखियां हैं। साखी के कुछ प्रमुख अंगों' के नाम हैं :- गुरुदेव की अंग
- ज्ञान विरह की अंग
- विरह कौ अंग
- सुमिरण कौ अंग
- परचा कौ अंग
- रस कौ अंग
- चितावणी कौ अंग
- कामी नर कौ अंग
- सहज कौ अंग
- साँच कौ अंग
सतगुरु की महिमा अनत अनत किया उपगार।
लोचन अनत उघाड़िया अनत दिखावन हार।।
लोचन अनत उघाड़िया अनत दिखावन हार।।
कै बिरहिन कौं मीचु दै के आपा दिखलाय।
रात दिना को दाझड़ा मोपै सह्यौ न जाय।।
रात दिना को दाझड़ा मोपै सह्यौ न जाय।।
दिन में रोजा रखत है राति हनत है गाय।
यह तौ खून वह बन्दगी कैसें खुसी खुदाय।।
यह तौ खून वह बन्दगी कैसें खुसी खुदाय।।
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कथेहु गियानी।।
फटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कथेहु गियानी।।
हेरत-हेरत हे सखी गया कबीर हिराय।
बूँद समानी समुद में सो कत हेरी जाय।
बूँद समानी समुद में सो कत हेरी जाय।
ऊँचे कुल का जनमिया करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दत सोय।।