यात्रा वृत्त
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की क्रिया यात्रा कहलाती है और जिस रचना में इस यात्रा का वर्णन किया जाता है उसे यात्रा वृत्त कहते हैं।यात्रा वृत्त के प्रधान उपकरण
इस रूप विधा के प्रधान उपकरण हैं- स्थानीयता, तथ्यात्मकता, आत्मीयता, वैयक्तिकता, कल्पना प्रवणता और रोचकता। स्पष्टत: प्रथम दो उदाहरण ऐसे हैं जो अन्य विधाओं में सामान्यत: नहीं होते जबकि शेष चार उपकरणों को इसमें भिन्न रूप में प्रयोग में लाया जाता है।स्थानीयता - स्थानीयता में स्थान विशेष के प्राकृतिक सौन्दर्य, रीति-रिवाज, आचार-विचार, आमोद-प्रमोद, जीवन-दर्शन को लेखक अपने शब्दों में अंकित करता है। यह अंकन विवरणात्मक, भावात्मक, तुलनात्मक आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है।
तथ्यात्मकता - तथ्यात्मकता से तात्पर्य यह है कि जिस स्थान का वर्णन लेखक कर रहा है उसके विषय में भी सभी आवश्यक तथ्य पाठक को दे। हाँ, यह तथ्य निर्दिष्टीकरण नीरस न होकर सरस होना चाहिए।
आत्मीयता - आत्मीयता यात्रा-वृत्त आत्मीयता के रंग में रंगा होना चाहिए। उसे पढ़ते समय पाठक को ऐसा प्रतीत होना चाहिए कि लेखक जो कुछ वर्णन कर रहा है, उसमें उसका मन पूरी तरह रमा है, वह मात्र दर्शक या आलोचक होकर नहीं रह गया है।
‘हँसते निर्झर दहकती भट्टी' में इसी तथ्य को स्वीकारते हुए विष्णु प्रभाकर लिखते हैं, “इसमें जानकारी देने का प्रयत्न इतना नहीं जितना अनुभूति का वह चित्र प्रस्तुत करने का है जो मेरे मन पर अंकित हो गया है। इन अर्थों में ये सब चित्र मेरे अपने हैं, कहीं मैं कवि हो उठा हूँ, कहीं दार्शनिक, कहीं आलोचक, कहीं मात्र एक दर्शक।''
वैयक्तिकता- वैयक्तिकता का गुण यों तो प्रायः सभी साहित्यिक विधाओं में प्राप्त होता है पर यात्रावृत्त में इसकी मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है।
कल्पना प्रवणता- कल्पना प्रवणता इसकी एक अन्य विशेषता है।
रोचकता- यात्रा वृत्त में लेखक का ध्यान रचना को रोचक बनाने की ओर भी रहता है। इसी उद्देश्य से अज्ञेय ने अपनी कृति ‘एक बूंद सहसा उछली' में वेल्स (इंग्लैण्ड) की विशिष्टताओं तथा वहाँ के काव्य का वर्णन बीस हजार राष्ट्र कवि शीर्षक रचना के माध्यम से किया है तो विष्णु प्रभाकर ने काका कालेलकर तथा गोर्की की पुत्रवधू के मध्य हुए वार्तालाप को समाविष्ट करते हुए अपनी रचना ‘गोर्की इन्स्टीट्यूट' को अत्यन्त रोचक रूप प्रदान कर दिया।
प्रमुख यात्रा वृत्त और लेखक
हिन्दी साहित्य में यात्रा वृत्त का निरन्तर प्रवाह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र युग से प्रारम्भ होता है। यद्यपि इससे पूर्व गुसाईजी कृत 'वन यात्रा' बल्लभ सम्प्रदायानुयायी श्रीमती जीमनजी माँ विरचित 'वन यात्रा', रामसहाय दास विचरित, ‘वन यात्रा परिक्रमा' आदि कतिपय ऐसे ग्रंथ अवश्य मिलते हैं जिनमें सुदूर तीर्थ स्थानों की यात्रा के संकेत दिए गए हैं।
(देखें सम्पूर्ण सूची - प्रमुख यात्रा वृत्त और लेखक)
भारतेन्दु ने जो यात्रावृत्त लिखे उनका प्रकाशन 1871 से 1876 तक के 'कवि वचन सुधा' के विभिन्न अंकों में हुआ। सरस्वती, मर्यादा, इंदु आदि पत्रिकाओं ने भी इनके प्रकाशन में अपना पूर्ण सहयोग दिया।
श्रीधर पाठक, देवी प्रसाद खत्री (बद्रिकाश्रम यात्रा) सत्यदेव परिव्राजक और राहुल सांकृत्यायन (तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी यूरोप यात्रा), द्विवेदी युग और छायावाद युग के सफल यात्रा वृत्तकार हैं।
परिव्राजक और सांकृत्यायन के साथ भगवत शरण उपाध्याय (कलकत्ता से पेकिंग), यशपाल, डॉ. नगेन्द्र, अक्षय कुमार जैन, रामधारी सिंह 'दिनकर' ने मिलकर छायावादोत्तरकाल में भी इस विधा की प्रगति में अपना पूर्ण सहयोग दिया है और दे रहे हैं।