हिन्दी भाषा की परम्परा – खड़ी बोली हिन्दी में कविता

हिन्दी भाषा परम्परा

जिस रूप में आज हिन्दी भाषा बोली और समझी जाती है वह खड़ी बोली का ही साहित्यिक भाषा रूप है, जिसका विकास मुख्यत: उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ। खड़ी बोली का प्राचीन रूप 10वीं शताब्दी से मिलता है।

लेकिन चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अमीर खुसरो ने पहली बार खड़ी बोली हिन्दी में कविता रची-

खड़ी बोली हिन्दी में कविता- हिन्दी भाषा की परम्परा
Khadi Boli ki Kavita

उत्तर भारत की खड़ी बोली को मुसलमान दक्षिण ले गए जहाँ दक्खनी हिन्दी के रूप में इसका विकास हुआ। अरबी-फारसी में लिखी इस भाषा को दक्खनी उर्दू नाम मिला।

मध्यकाल तक खड़ी बोली मुख्यत: बोलचाल की भाषा के रूप में ही व्यापक रूप से प्रयुक्त होती रही, साहित्यिक भाषा के रूप में नहीं। इसका कारण यह था कि उस युग
में ब्रजभाषा और अवधी काव्य की भाषाएँ थीं।

ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने और मैथिली को विद्यापति आदि विद्वानों ने  इन भाषाओं को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। उधर राजदरबार में फारसी राजकाज की भाषा थी। अतः खड़ी बोली उपेक्षित-सी रही, लेकिन समस्त उत्तर भारत में जनसम्पर्क की यही एकमात्र सशक्त भाषा थी।

19वीं और 20वीं शताब्दी में जब ज्ञान-विज्ञान का प्रसार हुआ, और इसे लोगों तक पहुँचाने की आवश्यकता महसूस हुई तो खड़ी बोली सहज रूप से सर्वग्राह्य भाषा के रूप में उभर कर सामने आई, क्योंकि यही जनसम्पर्क की भाषा के रूप में सबसे अधिक व्यापक थी।

नए ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के लिए गद्य की आवश्यकता थी और आम बोलचाल की भाषा की आवश्यकता थी, किन्तु परम्परागत रूप से ब्रज भाषा तथा अवधी दोनों पद्य काव्य और साहित्य की भाषाएँ थी। जनसम्पर्क की भाषा के रूप में पहले से ही प्रचलित खड़ी बोली का चयन ज्ञान-विज्ञान के गद्य साहित्य के लिए सहज था।

मुद्रण का आविष्कार, अंग्रेजी गद्य साहित्य का भारत में प्रसार, राजनीतिक चेतना का उदय, पत्र का प्रसार, लोकतन्त्र की ओर सामूहिक रुझान, सामान्य जन तक संदेश पहुँचाने का आग्रह, शिक्षा का प्रसार आदि कई ऐसे अन्य कारण रहे, जिन्होंने मिलकर खड़ी बोली को बहुप्रयुक्त भाषा के रूप में बल्कि समस्त देश की जनसम्पर्क की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया।

इस बीच हिन्दी गद्य को निखारने तथा इसे परिष्कृत करने में भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसार द्विवेदी, प्रेमचन्द, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘, मैथिलीशरण गुप्त आदि अनेक विद्वानों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

जनसमुदायों को सम्बोधित करने के लिए गाँधी, तिलक, दयानन्द सरस्वती तथा सुभाषचन्द्र बोस आदि असंख्य नेताओं ने इसी हिन्दी/हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया।

सन 1949 में संविधान में संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकृत होकर इसने अब एक राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय आकार प्राप्त कर लिया है।

(देखें – हिन्दी भाषाहिन्दी भाषा का सम्पूर्ण इतिहास)