कारक प्रकरण – कारक की विभक्ति, भेद, चिह्न, संस्कृत व्याकरण

कारक प्रकरण

किसी न किसी रूप में क्रिया के सम्पादक तत्त्व को ‘कारक‘ कहा जाता है। यही कारण है कि प्रत्येक कारक का क्रिया के साथ प्रत्यक्ष संबंध अवश्य रहता है।

“करोति निर्वर्तयति क्रियाम् इति कारकम् ।”
“क्रियान्वयित्वम् कारकम्।।”

कारक के निम्न उदाहरण देखें

  1. बालकः पठति। बालक पढ़ता है।
  2. बालकः पुस्तकं पठति। बालक पुस्तक पढ़ता है।
  3. बालकः मनसा पुस्तकं पठति। बालक मन से पुस्तक पढ़ता है।
  4. बालकः मनसा ज्ञानाय पुस्तकं पठति। बालक मन से ज्ञान के लिए पुस्तक पढ़ता है।
  5. बालकः मनसा ज्ञानाय आचार्यात् पुस्तकं पठति। बालक मन से ज्ञान के लिए आचार्य से पुस्तक पढ़ता है।
  6. बालकः विद्यालये आचार्यात् ज्ञानाय मनसा पुस्तकं पठति। बालक विद्यालय में आचार्य से ज्ञान के लिए मन से किताब पढ़ता है।

उपर्युक्त वाक्यों में पठति क्रिया है। इस क्रियापद से विभिन्न प्रश्न जोड़कर देखे-

# प्रश्न उत्तर संस्कृत
1. कौन पढ़ता है ? लड़का बालकः
2. क्या पढ़ता है ? किताब पुस्तकम्
3. कैसे पढ़ता है ? मन से मनसा
4. किसलिए पढ़ता है ? ज्ञान के लिए ज्ञानाय
5. किससे पढ़ता है ? आचार्य से आचार्यात्
6. कहाँ पढ़ता है? विद्यालय में विद्यालये

आपने क्या देखा? बालकः, पुस्तकं, मनसा, ज्ञानाय, आचार्यात् और विद्यालय का किसी-न-किसी रूप में ‘पठति‘ से संबंध है या नहीं? अब इन वाक्यों को देखें –

  1. बालकः मित्रस्य गृहं गच्छति। लड़का मित्र के घर जाता है।
  2. हे बालकः ! त्वं मित्रस्य गृहं गच्छसि । हे बालक ! तुम मित्र के घर जाते हो।

इन दोनों वाक्यों में क्रियापद ‘गच्छति‘ एवं ‘गच्छसि’ हैं। हम इनमें प्रश्न जोड़कर पूछते हैं-

# प्रश्न उत्तर संस्कृत
1. किसके घर ? मित्र के मित्रस्य
2. कौन जाता है ? बालक बालकः

आपने क्या पाया ? ‘घर का संबंध ‘मित्र’ से है न कि ‘गच्छति’ से और संबोधन बालक से ही संबंधित है न कि ‘गच्छसि‘ से। इसका मतलब है कि ‘संबंध‘ और ‘संबोधन‘ क्रियापद से प्रत्यक्षतः संबंधित नहीं होते हैं। अतएव, संस्कृत में छह कारक ही होते हैं।

“कर्ता कर्म करणं च सम्प्रदानं तथैव च,
अपादानाधिकरणे इत्याहुः कारकाणि षट्।”

संबंध कारक और संबोधन कारक हिन्दी भाषा में हुआ करते हैं। संस्कृत में विभक्तियों के लिए संबंध को रखा गया है। संबोधन तो कर्ता का ही होता है। इस प्रकार कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छह कारक और संबंध जोड़कर सात विभक्तियाँ होती हैं।

संस्कृत में 6 कारक (कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण) और 7 विभक्तियाँ (प्रथमा से सप्तमी) हैं।

English में मात्र तीन ही Case होते हैं-

  1. Nominative case – कर्ता कारक
  2. Objective case – कर्म कारक और
  3. Possessive case – संबंध कारक ।।

नोट: सुबन्त-प्रकरण में ‘सु’, औ, जस् ….. विभक्तियों की चर्चा की जा चुकी है।

कारक

कारक की परिभाषा

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) ‘कारक’ कहते हैं।

कारक का अर्थ

कारक का अर्थ होता है किसी कार्य को करने वाला। यानी जो भी क्रिया को करने में भूमिका निभाता है, वह कारक कहलाता है।

कारक के उदाहरण

  • वह रोज़ सुबह गंगा किनारे जाता है।
  • वह पहाड़ों के बीच में है।
  • नरेश खाना खाता है।

विभक्ति

विभक्ति की परिभाषा

कारक की विशेष अवस्था को और उसकी संख्या को बतलाने वाली सत्ता ही ‘विभक्ति‘ कहलाती है। पदों में लगी विभक्तियाँ ही उनका भिन्न-भिन्न कारक होना और उनकी भिन्न-भिन्न संख्याएँ बतलाती हैं।

‘संख्याकारकबोधयित्री विभक्तिः’

विभक्ति का अर्थ

विभक्ति का शाब्दिक अर्थ है ‘विभक्त होने की क्रिया या भाव’ या ‘विभाग’ या ‘बाँट’। व्याकरण में शब्द (संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण) के आगे लगा हुआ वह प्रत्यय या चिह्न विभक्ति कहलाता है जिससे पता लगता है कि उस शब्द का क्रियापद से क्या संबंध है।

विभक्तियों की संख्या

संस्कृत में विभक्तियाँ सात होती हैं। जो निम्न हैं:-

  1. प्रथमा विभक्ति
  2. द्वितीया विभक्ति
  3. तृतीया विभक्ति
  4. चतुर्थी विभक्ति
  5. पंचमी विभक्ति
  6. षष्ठी विभक्ति
  7. सप्तमी विभक्ति

कारक/विभक्ति तालिका

# विभक्ति/कारक विवरण सूत्र
1. कर्त्तरि प्रथमा कर्ता में प्रथमा विभक्ति स्वतंत्र कर्त्ता
2. कर्मणि द्वितीया कर्म में द्वितीया विभक्ति कर्तुरीप्सिततम् कर्मः
3. करणे तृतीया करण में तृतीय विभक्ति साधकतम् करणम्
4. सम्प्रदाने चतुर्थी सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति कमर्णा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्
5. अपादाने पंचमी अपादान में पंचमी विभक्ति ध्रुवमपायेऽपादानम्
6. सम्बन्धे षष्ठी संबंध में षष्ठी विभक्ति षष्ठीशेशे
7. अधिकरणे सप्तमी अधिकरण में सप्तमी विभक्ति आधारोधिकरणम्

हिन्दी की ये विभक्तियाँ जिन्हें परसर्ग कहा जाता है को याद कर लें ताकि Hindi to Sanskrit Translate करने में सुविधा हो।

# विभक्ति चिन्ह(परसर्ग ) सूत्र
1. कर्त्ता कारक ने स्वतंत्र कर्त्ता
2. कर्म कारक को कर्तुरीप्सिततम् कर्मः
3. करण कारक से, द्वारा (साधन के लिए) साधकतम् करणम्
4. सम्प्रदान कारक को, के लिए कमर्णा यमभिप्रेति स सम्प्रदानम्
5. अपादान कारक से (जुदाई के लिए) ध्रुवमपायेऽपादानम्
6. संबंध कारक का-के-की, ना-ने-नी, रा-रे-री षष्ठीशेशे
7. अधिकरण कारक में, पर आधारोधिकरणम्

कारक के भेद, विभक्तियाँ एवं उनके प्रयोग

संस्कृत में कुल छः (6) कारक होते हैं। जो निम्नलिखित हैं:-

  1. कर्त्ता कारक  (प्रथमा विभक्ति) (Nominative Case)
  2. कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति) (Objective Case)
  3. करण कारक (तृतीया विभक्ति)
  4. सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)
  5. अपादान कारक (पंचमी विभक्ति)
  6. अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति)

प्रथमा विभक्ति, कर्त्ता कारक (“ने”)

स्वतंत्र कर्त्ता– क्रिया करने में जिसकी स्वतन्त्रता मानी जाय, वह कर्ता कारक होता है।

कर्त्तरि प्रथमा– कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-

  • प्रवरः पठति में ‘प्रवर’ में प्रथमा विभक्ति लगने के कारण ‘प्रवरः’ बना।।

प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा– प्रातिपदिकार्थ मात्र में एवं उसकी अपेक्षा लिंग, परिमाण एवं वचन मात्र के आधिक्य में प्रथमा विभक्ति होती है।

जैसे– वृक्षः, नदी, लता, फलम् , रामः पठति, आदि।

क्रिया सम्पादकः कर्त्ता– जो क्रिया का सम्पादन करे वह कर्त्ता कारक होता है। जैसे-

  • प्रवरः पठति। इस वाक्य में पठति क्रिया का सम्पादन ‘प्रवर’ करता है। अतएव ‘प्रवर‘ कर्ता कारक में आया ।

अभिधेयमात्रे प्रथमा– यदि केवल नाम व्यक्त करना हो तो उसमें प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे-

  • बालकः, गजः, देवः, कृष्णः, रामः आदि।

सम्बोधने च प्रथमा– संस्कृत संबोधन में प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे –

  • हे प्रखर ! अत्र आगच्छ।

द्वितीया विभक्ति, कर्म कारक (“को”)

कर्मणि द्वितीया– कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • अंशु फलं खादति । अंशु फल खाती है ।

कर्तुरीप्सिततमं कर्म– कर्ता की अत्यन्त इच्छा जिस कार्य को करने में लगे उसे कर्म कारक कहते हैं। जैसे-

  • रमेशः संस्कृतं पठति । रमेश संस्कृत पढ़ता है।
  • अयं बालः ओदनं भुङ्क्ते। यह बालक चावल खाता है।

अभितः (दोनों ओर), परितः (चारों ओर), सर्वतः (सब ओर) और उभयतः (दोनों ओर) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-

  • ग्रामं परितः वृक्षाः सन्ति । गाँव के चारों ओर वृक्ष हैं।
  • विद्यालयम् अमितः पर्वताः सन्ति । विद्यालय के दोनों ओर पहाड़ हैं।
  • मम् गृहं उभयतः वृक्षौ स्तः । मेरे घर के दोनों ओर दो वृक्ष हैं।

तृतीया विभक्ति, करण कारक (“से, द्वारा” साधन के लिए)

करणे तृतीया– करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –

  • रामः वाणेन रावण हतवान् । राम ने बाण से रावण को मारा।

साधकतमम् करणम्– क्रिया सम्पादन करने में जो साधन का काम करे वह करण कारक होता है। जैसे

  • सः कलमेन लिखति । वह कलम से लिखता है।

अनुक्ते कर्त्तरि तृतीया– कर्मवाच्य एवं भाववाच्य में कर्ता अनुक्त (अप्रधान) रहता है। इस कारण से उसमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे –

  • रामेण रावणः हतः। राम से रावण मारा गया।
  • विप्रेण वेदः पठयते । विप्र से वेद पढ़ा जाता है।
  • मया हस्यते । मुझसे हँसा जाता है।

चतुर्थी विभक्ति, सम्प्रदान कारक (“को, के लिए”)

सम्प्रदाने चतुर्थी– सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-

  • नूतन ब्राह्मणाय भोजनं पचति। नुतन ब्राह्मण के लिए भोजन पकाती है।

कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्– जहां कर्म के योग में जिस चीज की इच्छा होती है, उसमें सम्प्रदान कारक होता है। जैसे-

  • राजा याचकाय वस्त्रं ददाति।
  • सः बालकाय फ़लम् ददाति।

कर्मणा यमभिप्रैति स सम्प्रदानम्– जहां कर्म के योग में जिस चीज की इच्छा होती है, उसमें सम्प्रदान कारक होता है। जैसे-

  • राजा याचकाय वस्त्रं ददाति।
  • सः बालकाय फ़लम् ददाति।

दानार्थे चतुर्थी– जिसे कोई चीज दान में दी जाय, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-

  • राजा ब्राह्मणेभ्यः वस्त्रम् ददाति । राजा ब्राह्मणों को वस्त्र देता है।

तुमर्थात्य भाववचनात् चतुर्थी– तुमुन् प्रत्ययान्त शब्दों के रहने पर चतुर्थी विभक्ति होती है। जैसे-

  • फलेभ्यः उद्यानं गच्छति संजयः। फलों के लिए उद्यान जाता संजय।
  • भोजनाय गच्छति बालकः। भोजन के लिए जाता बालक।

पंचमी विभक्ति, अपादान कारक (‘से’ अलग)

अपादाने पंचमी– अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • वृक्षात् पत्राणि पतन्ति । वृक्ष से पत्ते गिरते हैं।
  • संजीवः ग्रामात् आगच्छति । संजीव गाँव से आता है।

ध्रुवमपायेऽपादानम्– जिस निश्चित स्थान से कोई वस्तु या व्यक्ति अलग होती है, उस निश्चित स्थान को अपादान कारक कहते हैं। जैसे-

  • वह घर से आता है। सः गृहात् आगच्छति ।

भीत्रार्थानां भयहेतुः – ‘भी’ और ‘त्रा’ धातु के योग में जिसमें भय हो या रक्षा की जाय उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • प्रवरः सर्पात, विभेति । प्रवर साँप से डरता है।
  • अयं चौरा त्रायते । यह चोर से बचाता है।

जुगुप्साविरामप्रमादार्थानाम्– जिससे जुगुप्सा (घणा) हो या जिससे विराम हो और जिसमें प्रमाद (भूल) हो, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे—

  • सा पापात् जुगुप्सते। वह पाप से घृणा करती है।

षष्ठी विभक्ति (“का-के-की, ना-ने-नी, रा-रे-री”)

सम्बन्ध को संस्कृत में कारक नहीं कहा जाता क्योंकि उसका क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता अपितु उसका सम्बन्ध कर्ता, कर्म आदि कारकों से हाता है अतः ‘क्रियान्वयित्वं कारकत्वम्’ यह लक्षण उसमें घटित नहीं होता । यथा ‘दशरथस्य पुत्रः रामः वनं गच्छति’ यहाँ ‘दशरथस्य’ का ‘गच्छति’ क्रिया के साथ कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं है। अतः इसे कारक नहीं कहते हैं। सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति होती है।

सम्बन्धे षष्ठी– संबंध में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

  • मम पुत्रः प्रवरः। मेरा पुत्र प्रवर ।
  • इदं रामस्य गृहम् अस्ति । यह राम का घर है।

कर्तृकर्मणो कृति– कृत्-प्रत्ययान्त (क्तिन्/अन्/तृच्) शब्दों में कर्त्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

  • इयं कालिदासस्य कृतिरस्ति। यह कालिदास की कृति है।
  • बालानां रोदनं बलम् । बच्चों का रोना ही बल है।

हेतुवाचकः – जब ‘हेतु, कारण, निमित्त, प्रयोजन’ शब्द का प्रयोग होता है तब जो शब्द का प्रयोजन रहता है, ‘वह’ और ‘हेतु, कारण, निमित्त, प्रयोजन’ दोनों शब्दों में षष्ठी विभक्ति होती हैं। जैसे-

  • स अल्पस्य हेतोः बहु त्यजति । वह थोड़े के लिए बहुत का त्याग करता है।
  • श्यामः अत्र कस्य हेतोः/करणस्य/प्रयोजनस्य वसति।

षष्ठीशेषे– शेष में षष्ठी विभक्ति होती हैं । जैसे-

  • रामस्य पुस्तकं कुत्र अस्ति।
  • बालकस्य पिता आगच्छति।

सप्तमी विभक्ति, अधिकरण कारक (“में, पर”)

अधिकरणे सप्तमी– अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे –

  • छात्राः विद्यालये पठन्ति । छात्रः विद्यालय में पढ़ते हैं।

आधारोऽधिकरणम्– कर्ता या कर्म के द्वारा क्रिया का आधार अधिकरण कारक होता है। यानी आधार को ही अधिकरण कारक कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है।

  1. कटे आस्ते मुनिः ? मुनि चटाई पर बैठते हैं। (स्थानवाची)
  2. पात्रे वर्तते जलम् । पात्र में जल है। (भीतरी आधार)
  3. मोक्षे इच्छा अस्ति लोकस्य । लोग की इच्छा मोक्ष में है। (विषयवाची)

यस्य च भावेन भावलक्षणम्/भावे सप्तमी– जिस क्रिया के काल से दूसरी क्रिया के काल का ज्ञान हो, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-

  • सूर्ये अस्तं गते सः गतः । सूर्य के अस्त हो जाने पर वह गया।
  • गोषु दुयमानासु गतः । वह गायों के दूहे जाने के समय गया ।
  • रामे वनं गते मृतो दशरथः । राम के वन जाने पर दशरथ मर गए।

हिन्दी में कारक

हिन्दी में एक कारक और जुड़ जाता है जिसे हम संबोधन कारक कहते हैं। इस प्रकार हिन्दी में कुल आठ कारक हो जाते हैं जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है। हिन्दी से संस्कृत में Translate करने के लिए हिन्दी के कारकों का संक्षिप्त विवरण भी जानना अत्यावश्यक है।

1. कर्ता कारक (0, ने)

जो क्रिया करता है, उसे ‘कर्ता कारक’ कहते हैं। इसके चिह्न ‘0’ और ‘ने’ हैं। शून्य से तात्पर्य है–’ने’ चिह्न का अभाव। उदाहरण के लिए-

  • वह जाता है—सः गच्छति । (‘0’ चिहन)
  • राम ने रावण को मारा–रामः रावणं हतवान् (‘ने’ चिह्न) ।

2. कर्म कारक (0, को)

जिस पर किया का असर पड़े ‘कर्म कारक’ कहलाता है। उदाहरण-

राम ने रावण को मारा। इस वाक्य में ‘रावण‘ कर्म है।

3. करण कारक (से/द्वारा)

जिस साधन से काम किया जाय, ‘करण कारक कहलाता है। उदाहरण के लिए- रामः वाणेन रावणं हतः। राम ने बाण से रावण को मारा। इस वाक्य में ‘बाण’ करण कारक है।

4. सम्प्रदान कारक (को/ के लिए)

जिसके लिए काम किया जाय, ‘सम्प्रदान कारक’ कहलाता है। जैसे- वह मिठाई के लिए बाजार गया। सः मोदकाय हट्टंगतः। इस वाक्य में ‘मिठाई’ सम्प्रदान कारक हुआ।

5. अपादान कारक (से)

जिससे अलग होने का बोध है। जैसे- वृक्ष से पत्ते गिरते हैं। वृक्षात् पत्राणि पतन्ति। इस वाक्य में ‘वृक्ष’ अपादान का उदाहरण है।

6. सम्बन्ध कारक (का-के-की-ना-ने-नी-रा-रे-री)

जिससे कर्ता का संबंध है। जैसे- राजा का पुत्र आया। नृपस्य पुत्रः आगतः। इस वाक्य में ‘राजा’ संबंध कारक हुआ।

7. अधिकरण कारक (में/पर)

जहाँ या जिसपर क्रिया की जाय, ‘अधिकरण कारक कहलाता है। जैसे- पेड़ पर बन्दर रहते हैं। वृक्षे वानराः निवसन्ति । इस वाक्य में ‘वृक्ष’ अधिकरण कारक हुआ।

8. संबोधन कारक प्रायः कर्ता ही होता है।

जिस शब्द से किसी को पुकारा या बुलाया जाए उसे सम्बोधन कारक कहते हैं। उदाहरण के लिए- हे राम ! यह क्या हो गया। इस वाक्य में ‘हे राम!’ सम्बोधन कारक है, क्योंकि यह सम्बोधन है।

संबोधन को संस्कृत में कारक नहीं कहा जाता क्योंकि सम्बोधन का क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि यह तो वाक्य में केवल व्यक्ति के अभिमुखीकरण के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है। यथा सीते!, प्रभो !, इत्यादि ।

(संस्कृत कारक संस्कृत व्याकरण के अति महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक हैं। हिन्दी व्याकरण के कारक देखने के लिए Karak in Hindi पर क्लिक करें ।)

Karak Prakaran - Karak In Sanskrit
Karak In Sanskrit

संस्कृत में शब्द रूप देखने के लिए Shabd Roop पर क्लिक करें और धातु रूप देखने के लिए Dhatu Roop पर जायें।

FAQs

संस्कृत में कितने कारक होते हैं?

संस्कृत में कुल छः (6) कारक होते हैं- कर्त्ता कारक  (प्रथमा विभक्ति), कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति), करण कारक (तृतीया विभक्ति), सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति), अपादान कारक (पंचमी विभक्ति) और अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति)।

संबंध कारक‘ और ‘संबोधन कारक‘ क्रियापद से प्रत्यक्षतः संबंधित नहीं होते हैं। अतएव, संस्कृत में छह कारक ही होते हैं।

“कर्ता कर्म करणं च सम्प्रदानं तथैव च,
अपादानाधिकरणे इत्याहुः कारकाणि षट्।”

संस्कृत में कितनी विभक्तियाँ होती हैं?

संस्कृत में विभक्तियाँ सात होती हैं- प्रथमा विभक्तिद्वितीया विभक्तितृतीया विभक्तिचतुर्थी विभक्तिपंचमी विभक्तिषष्ठी विभक्ति, और सप्तमी विभक्ति

“बालकः पुस्तकं पठति” वाक्य में “पुस्तकं” में कौन सी विभक्ति और कारक है?

पुस्तकं में द्वितीया विभक्ति और कर्म कारक का प्रयोग हुआ है।