वर्णों का उच्चारण स्थान : हिन्दी संस्कृत वर्णमाला उच्चारण स्थान

वर्णों के उच्चारण स्थान (Varno ka ucharan sthan) मूलरूप से कुल सात (7) होते हैं- कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ, नासिका, और जीव्हामूल। हिन्दी में जीव्हामूल को सम्मिलित नहीं किया जाता है, अतः हिन्दी वर्णमाला में वर्णों के मूल उच्चारण स्थान छः (6) ही होते हैं। कुछ वर्ण दो उच्चारण स्थानों से संयुक्त रूप में उच्चारित होते हैं। उच्चारण स्थान के आधार पर वर्ण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं:-

  1. कंठव्य वर्ण: कंठ से उच्चारित होने वाले वर्ण “कंठव्य वर्ण” कहलाते हैं। ये निम्न हैं- क, ख, ग, घ। इसका संस्कृत सूत्र “अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः” हैं।
  2. तालव्य वर्ण: तालु की मदत से होनेवाले उच्चार “तालव्य वर्ण” कहलाते हैं। ये निम्न हैं- च, छ, ज, झ। इसका संस्कृत सूत्र “इचुयशानां तालु” हैं।
  3. मूर्धन्य वर्ण: मूर्धा से (कंठ के थोडे उपर का स्थान) होने वाले उच्चारन् “मूर्धन्य वर्ण” हैं। ये निम्न हैं- ट, ठ, ड, ढ, ण। इसका संस्कृत सूत्र “ऋटुरषाणां मूर्धा” हैं।
  4. दंतव्य वर्ण: दांत की मदत से बोले जानेवाले वर्ण “दंतव्य वर्ण” हैं। ये निम्न हैं- त, थ, द, ध, न; औ। इसका संस्कृत सूत्र “लृतुलसानां दन्ताः” हैं।
  5. ओष्ठव्य वर्ण: होठों से बोले जाने वाले वर्ण “ओष्ठव्य वर्ण” कहे जाते हैं। ये निम्न हैं- प, फ, ब, भ, म। इसका संस्कृत सूत्र “उपूपध्मानीयानामोष्ठौ” हैं।
  6. नासिक्य वर्ण: नाक की मदद से बोले जाने वाले वर्ण “नासिक्य वर्ण” कहे जाते हैं- अं, ड्, ञ, ण, न्, म्। इसका संस्कृत सूत्र “ञमङणनानां नासिका च (नासिकानुस्वारस्य)” हैं।
  7. कण्ठतालव्य वर्ण: कंठ और तालु की सहायता से बोले जाने वाले वर्ण “कण्ठतालव्य वर्ण” होते हैं: ए, ऐ। इसका संस्कृत सूत्र “एदैतोः कण्ठतालु” हैं।
  8. कण्ठोष्ठ्य वर्ण: कंठ और ओष्ठ की सहायता से बोले जाने वाले वर्ण “कण्ठोष्ठ्य वर्ण” होते हैं: ओ, औ। इसका संस्कृत सूत्र “ओदौतोः कण्ठोष्ठम्” हैं।
  9. दन्तोष्ठ्य वर्ण: दंत और ओष्ठ की सहायता से बोले जाने वाले वर्ण “दन्तोष्ठ्य वर्ण” होते हैं: व। इसका संस्कृत सूत्र “वकारस्य दन्तोष्ठम्” हैं।
  10. जीव्हामूलीय वर्ण: जीव्हामूल की मदद से बोले जाने वाले वर्ण “जीव्हामूलीय वर्ण” कहे जाते हैं। इसका संस्कृत सूत्र “जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्” हैं।

उच्चारण स्थान तालिका (Uchcharan sthan ki list)

मुख के अंदर स्थान-स्थान पर हवा को दबाने से भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है। मुख के अंदर पाँच विभाग हैं, जिनको स्थान कहते हैं। इन पाँच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक-एक स्वर उत्पन्न होता है, ये ही पाँच शुद्ध स्वर (अ, इ, उ, ऋ, लृ) कहलाते हैं। इनके दीर्घ रूप (आ, ई, ऊ, ॠ) भी मिला लिए जाएँ तो ये 9 हो जाते हैं, जिन्हें संस्कृत के मूल स्वर कहते हैं। स्वर उसको कहते हैं, जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जा सके। (विस्तार से जानें: संस्कृत वर्णमाला और हिन्दी वर्णमाला)

Pronunciation table of Sanskrit and Hindi alphabet

उच्चारण स्थान स्वर व्यंजन अन्तस्थ उष्म
1. कण्ठ अ, आ क, ख, ग, घ, ङ ह, अ:
2. तालु इ, ई च, छ, ज, झ, ञ
3. मूर्द्धा ऋ, ॠ ट, ठ, ड, ढ, ण
4. दन्त लृ त, थ, द, ध, न
5. ओष्ठ उ, ऊ प, फ, ब, भ, म
6. नासिका अं, ङ, ञ, ण, न, म
7. कण्ठतालु ए, ऐ
8. कण्ठोष्टय ओ, औ
9. दन्तोष्ठ्य

हिंदी की ध्वनियाँ (Hindi ki Dhwaniya)

हिंदी की सबसे बड़ी और विशेषता यह है कि यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। एक तो ये जिस रूप में लिखी जाती है, बिल्कुल उसी तरह बोली जाती है, किन्तु अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है. उदाहरण के लिए, बी(B) यू(U) टी(T) का उच्चारण ‘बट’ है तो पी(P) यू(U) टी(T) का ‘पुट’ होता है। जबकि दूसरे शब्द का उच्चारण ‘पट’ होना चाहिए या फिर पहले का ‘बुट’। एक ही स्वर कहीं ‘यु’, ‘यू’ या ‘उ’ है तो कहीं ‘अ’ है। इसी तरह अरबी लिपि में तीन स्वरों से तेरह स्वरों का काम लिया जाता है।

हिंदी में ऐसा नहीं है, इसमें लेखन और उच्चारण में बहुत अधिक शुद्धता और समानता मौजूद है। अनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग चिह्नों के प्रयोग ने इसे और वैज्ञानिक बना दिया है। बीसवीं सदी में जब हिंदी ने यूरोपीय भाषाओं से तथा अरबी-फारसी से शब्द अपनाए तो इसके लिए नए चिह्न भी ग्रहण किए।

जैसे ‘डॉक्टर’ शब्द अंग्रेज़ी से आया है, इसका पहला स्वर है- ‘ऑ’, चूंकि हिंदी में यह स्वर उपलब्ध नहीं था, यहाँ ‘आ’ तो था; ‘ऑ’ नहीं था, इसलिए हिंदी में अंग्रेज़ी से आए ऐसे शब्दों के उच्चारण के लिए ‘ऑ’ चिह्न को अपना लिया गया।

इसी प्रकार अरबी-फारसी के कुछ शब्दों के सटीक उच्चारण के लिए हिंदी ने पाँच नई ध्वनियाँ अपनाई- क़, ख़, ग़, ज़ और फ़। जाहिर है, इससे हिंदी की शब्द-संपदा तो बढ़ी ही, साथ ही इसमें भावों को और अधिक सूक्ष्मता तथा स्पष्टता से अभिव्यक्त करने की शक्ति भी आई।

हिंदी भाषा में शब्दों के उच्चारण की सटीकता इसकी दूसरी विशेषता है। हिंदी भाषा की वर्णमाला में दो वर्ग हैं- स्वर और व्यंजन। इन दोनों वर्गों की ध्वनियों को इतने वैज्ञानिक तरीक़े से व्यवस्थित किया गया है कि इनके द्वारा किसी भी अभाषी व्यक्ति को हिंदी का पूरी सरलता के साथ शुद्ध उच्चारण करना सिखाया जा सकता है।

उदाहरण के लिए यदि हम ‘उच्चारण के स्थान’ के आधार पर हिंदी की स्वर और व्यंजन ध्वनियों का बंटवारा करना चाहें, तो आसानी से किया जा सकता है। स्वर ध्वनियों के उच्चारण में किसी अन्य ध्वनि की सहायता नहीं ली जाती। वायु मुखगुहा से बिना किसी अवरोध के बाहर निकलती है, किन्तु व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में स्वरों की सहायता ली जाती है।

व्यंजन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में भीतर से आने वाली वायु मुखगुहा में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में बाधित होती है। मुखगुहा के उन ‘लगभग अचल’ स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point) कहते हैं, जिनको ‘चल वस्तुएँ’ (Movable things) छूकर जब ध्वनि-मार्ग में बाधा डालती हैं तो ध्वनियों का उच्चारण होता है।

मुखगुहा में ‘अचल उच्चारक’ मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि ‘चल उच्चारक’ मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ, तथा श्वासद्वार (ग्लोटिस) होते हैं। यानी कुछ ध्वनियों का उच्चारण कंठ, तालु, मूर्द्धा, दंत तथा ओष्ठ से किया जाता है तो कुछ का मुख के अंगों जैसे कंठ+तालु, कंठ+ओष्ठ, दंत+ओष्ठ, और मुख+नाक से संयुक्त रूप से भी किया जाता है।

हिंदी की सभी ध्वनियों का उनके उच्चारण स्थान के आधार पर वर्गीकरण

कंठ्य ध्वनियाँ (Kanth se Bole jane bale Varn)

इस वर्ग की सभी ध्वनियों का उच्चारण कंठ से होता है। इस वर्ग की ध्वनियाँ हैं- अ, आ (स्वर); क, व, ग, घ, ङ (व्यंजन)।

तालव्य ध्वनियाँ (Talu se bole jane wale Varn)

जिस ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग तालु से स्पर्श करता है, उन्हें तालव्य कहते हैं। इ, ई (स्वर); च, छ, ज, झ, ञ, श, य (व्यंजन)।

मूर्द्धन्य ध्वनियाँ (Murdha se bole jane wale Varn)

इसके अंतर्गत वे ध्वनियाँ रखी गई हैं, जिनका उच्चारण मुर्द्धा से होता है, जैसे- ट, ठ, ड, ढ, ण, ष (सभी व्यंजन ध्वनियाँ)।

दन्त्य ध्वनियाँ (Dant se bole jane wale Varn)

जिन वर्णों का उच्चारण करने में दांतों का सहयोग होता है उन्हें दन्त्य ध्वनियाँ कहते हैं। ये निम्न हैं: त, थ, द, ध, न, र, ल, स, क्ष (सभी व्यंजन ध्वनियाँ)।

ओष्ठ्य ध्वनियाँ (Hothon se bole jane wale Varn)

जो ध्वनियाँ दोनों होंठों के स्पर्श से उत्पन्न होती है, उन्हें ओष्ठ्य कहते हैं। हिंदी में प, फ, ब, भ, म ध्वनियाँ ओष्ठ्य हैं।

अनुनासिक ध्वनियाँ (Anunasik Varn)

इन ध्वनियों का उच्चारण मुंह और नाक दोनों के सहयोग से होता है। इनके उच्चारण के दौरान कुछ वायु नाक से निकलते हुए एक अनुगूंज-सी पैदा करती है। हिंदी की व्यंजन ध्वनियों का प्रत्येक वर्ग पाँच वर्णों का है, जो एक ही स्थान से उच्चारित होते हैं, जैसे- क, ख, ग, घ, ; च, छ, ज, झ, ; ट, ठ, ड, ढ, ; त, थ, द, ध, और प, फ, ब, भ, । इन्हें वर्गीय वर्ण कहते हैं।

वर्गीय वर्णों के प्रत्येक वर्ग की अंतिम ध्वनि अर्थात “ङ, ञ, ण, न, म” अनुनासिक ध्वनि है। देवनागरी लिपि में अनुनासिकता को चन्द्रबिंदु (ँ) द्वारा व्यक्त किया जाता है। किंतु जब स्वर के ऊपर मात्रा हो तो चन्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल बिंदु (ं) लगाया जाता है, जैसे – अँ, ऊँ, ऐं, ओं आदि। अनुस्वार (ं) भी इसी के अंतर्गत आते हैं।

दन्त्योष्ठ्य ध्वनियाँ (Dantoshth se bole jane wale Varn)

जिन व्यंजनों का उच्चारण दन्त और ओष्ठ की सहायता से होता है, उन्हें दन्त्योष्ठ्य व्यंजन ध्वनियाँ कहते हैं। जैसे – फ, व

कंठ-तालव्य ध्वनियाँ (Kanth-talu se bole jane wale Varn)

इसमें वे दो स्वर ध्वनियाँ आती हैं, जिनका उच्चारण कंठ और तालु के सहयोग से होता है। जैसे- ए, ऐ

कंठोष्ठ्य ध्वनियाँ (Kanthoshthya Varn kaun hai)

इन ध्वनियों का जन्म कंठ और ओष्ठों के सहयोग से होता है; जैसे- ओ, औ

जिह्वामूलक ध्वनियाँ (Jihvamuliya Varn kaun se hote hai)

अरबी-फारसी से हिंदी में अपनाई गई तीन ध्वनियों का उच्चारण जिह्वा के बिलकुल पीछे के भाग (मूल) से होता है। ये हैं- क़, ख़, ग़

वर्त्स्य ध्वनियाँ (Vartsya Varn kaun se hai)

वर्त्स्य ध्वनियों के अंतर्गत अरबी-फारसी की “ज़, ” की ध्वनि आती है।

काकल्य (Kakaly Varn kaun se hai)

जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में मुखगुहा खुली रहती है और वायु बन्द कंठ को खोलकर झटके से बाहर निकल पड़ती है उसे काकल्य व्यंजन ध्वनियाँ कहते है। जैसे हिंदी में ‘’। यह ध्वनि हिंदी में स्वरों की तरह ही बिना किसी अवरोध के उच्चरित होती है। हिंदी में ‘ह’ महाप्राण अघोष ध्वनि है।

हिंदी की ध्वनियों का उनके उच्चारण प्रयत्न के आधार पर वर्गीकरण

स्पर्श ध्वनि (Sparshi varn kaun se hote hai)

क से म‘ तक के वर्णों को स्पर्शी वर्ण कहते हैं। स्पर्श ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ है, जिसके उच्चारण में मुख-विवर में कहीं न कहीं हवा को रोका जाता है और हवा बिना किसी घर्षण के मुँह से निकलती है। ‘क  ख  ग  घ  ङ च  छ  ज  झ  ञ ट  ठ  ड  ढ  ण त  थ  द  ध  न प  फ  ब  भ  म’ आदि के उच्चारण में हवा रुकती है। अतः इन्हें स्पर्श ध्वनियाँ कहते है। अंग्रेज़ी में इन्हें स्टाप या एक्सप्लोसिव ध्वनियाँ तथा हिंदी में स्फोट ध्वनियाँ भी कहते हैं।

संघर्षी ध्वनि (Sangharshi dhwani si kaun see hai)

वह व्यंजन जिसके उच्चारण में वायु मार्ग संकुचित हो जाता है और वायु घर्षण करके निकलती है। जैसे- फ, ज, स

स्पर्श-संघर्षी ध्वनि (Sparsh Sangharshi varn kaun se hai)

जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा तालु के स्पर्श के साथ-साथ कुछ घर्षण भी करती हुई आए तो ऐसी ध्वनियाँ स्पर्श संघर्षी ध्वनियाँ होती है। जैसे- च, छ, ज, झ

लुंठित ध्वनि (Lunthit varn kaun se hai)

इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वानोक में लुण्ठन या आलोड़न क्रिया होती है। हिंदी की ‘’ ध्वनि प्रकम्पित या लुंठित वर्ग में आती है।

पार्श्विक ध्वनि (Parshwik dhwani varn)

हिंदी की ‘’ ध्वनि पार्श्विक ध्वनि है, किंतु जिह्वानोक के दोनों तरफ से हवा के बाहर निकलने का रास्ता है। दोनों तरफ (पार्श्वो) से हवा निकलने के कारण इन ध्वनियों को पार्श्विक ध्वनियाँ कहा जाता है।

उत्क्षिप्त ध्वनि (Utkshipt varn)

उत्क्षिप्त ध्वनियाँ वे ध्वनियाँ हैं जिनके उच्चारण में जिह्वानोक जिह्वाग्र को मोड़कर मूर्धा की ओर ले जाते है और फिर झटके के साथ जीभ को नीचे फेंका जाता है। हिंदी की “ड़, ढ़” आदि व्यंजन ध्वनियाँ उत्क्षिप्त हैं। इन्हें द्विगुण व्यंजन/ताड़नजात व्यंजन/फेका हुआ व्यंजन भी कहते हैं।

नासिक्य ध्वनि (Nasikya varn or dhwani)

इन व्यंजनों के उच्चारण में कोमलतालु नीचे झुक जाती है। इस कारण श्वासवायु मुख के साथ-साथ नासारन्ध्र से बाहर निकलती है। इसीलिए व्यंजनों में अनुनासिकता आ जाती है। हिंदी में नासिक्य व्यंजन इस प्रकार है- अं, ङ, ञ, ण, न, म, म्ह, न्ह

पञ्चमाक्षर (ङ, ञ, ण, न, म) के संयुक्त रूप से उच्चारण स्थान नासिक्य होता है। परन्तु अलग अलग पञ्चमाक्षरों का उच्चारण स्थान ऊपर दी गई तालिका के अनुसार होता है।

वायु की शक्ति के आधार पर हिंदी की ध्वनियाँ का वर्गीकरण

प्राण वायु के आधार पर हिंदी की ध्वनियां

अल्पप्राण वर्ण (Alpaprana kise kahate hai)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से कम श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें अल्पप्राण कहते है। हिंदी की प, ब, त, द, च, ज, क, ल, र, व, य आदि ध्वनियाँ अल्पप्राण है।

महाप्राण वर्ण (Mahaprana kise kahate hai)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से अधिक श्वास वायु बाहर निकलती है, उन्हें महाप्राण कहते है। जैसे- ख, घ, फ, भ, थ, ध, छ, झ आदि महाप्राण है।

घोषत्व की दृष्टि से हिंदी की ध्वनियां

अघोष वर्ण (Aghosh varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में फेफड़ों से श्वास वायु स्वर-तंत्रियों से कंपन करती हुई नहीं निकलती अघोष कहलाती है। जैसे- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स

सघोष या घोष वर्ण (Saghosh/Ghosh varn)

जिन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास वायु स्वर-तंत्रियों में कंपन करती हुई निकलती है, उन्हें सघोष कहते है। जैसे- ग, घ, ङ, ञ, झ, म, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म तथा य, र, ल, व, ड, ढ ध्वनियाँ सघोष है।

अल्पप्राण-महाप्राण और घोष-अघोष तालिका (Alpaprana Mahaprana & Ghosh Aghosh  table):

स्थान अघोष घोष अघोष घोष
अल्पप्राण महाप्राण अल्पप्राण महाप्राण अल्पप्राण महाप्राण अल्पप्राण
कण्ठ
तालु
मूर्द्धा
दन्त
ओष्ठ

(अनुस्वार)
:
(विसर्ग)
जीव्हामूलीय,
उपध्मानीय
  • घोष या सघोष दोनों का एक ही अर्थ है।

हिंदी की ध्वनियों की कुछ अन्य विशेषताएँ

दीर्घता (Deerghata kya hai)

किसी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को दीर्घता कहा जाता है। किसी भाषा मे दीर्घता का कोई सामान्य रूप नहीं होता। दीर्घता का अर्थ है किसी ध्वनि का अविभाज्य रूप में लंबा होना। हिंदी व अंग्रेज़ी में जहाँ ह्रस्व व दीर्घ दो वर्ग मिलते है, वहीं संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ व प्लुत तीन मात्राओं की चर्चा की गई है।

बलाघात (Balaghat kya hota hai)

ध्वनि के उच्चारण में प्रयुक्त बल की मात्रा को बलाघात कहते है। बलाघात युक्त ध्वनि के उच्चारण के लिए अधिक प्राणशक्ति अर्थात् फेफड़ो से निकलने वाली वायु का उपयोग करना पड़ता है। बलाघात की एकाधिक सापेक्षिक मात्राएँ मिलती है-

  1. पूर्ण बलाघात
  2. दुर्बल बलाघात।

लगभग सभी भाषाओं में वाक्य बलाघात का प्रयोग होता है। साधारणतः संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण बलाघात युक्त होते है और अव्यय तथा परसर्ग बलाघात वहन नहीं करते है। अंग्रेज़ी में शब्द बलाघात और वाक्य बलाघात दोनों मिलते हैं। हिंदी में बलाघात का महत्व शब्द की दृष्टि से नहीं अपितु वाक्य की दृष्टि से होता है। यथा – यह मोहन नहीं राम है। यहाँ विरोध के लिए राम पर बल दिया जाता है। हिंदी में बल परिवर्तन से शब्द का अर्थ तो नहीं बदलता पर उच्चारण की स्वाभाविकता प्रभावित हो जाती है।

अनुतान (Anutaan): आरोह-अवरोह

स्वन-यंत्र में उत्पन्न घोष के आरोह-अवरोह के क्रम को अनुतान कहते है। अन्य शब्दों में स्वर-तंत्रियों के कंपन से उत्पन्न होने वाले सुर का उतार चढ़ाव ही अनुतान है। साधारणतः मानव की सुर-तन्त्रियाँ 42 आवृत्ति प्रति सेकेण्ड की न्यूनतम सीमा से लेकर 2400 की अधिकतम सीमा के मध्य कम्पित होती है। कंपन की मात्रा व्यक्ति की आयु व लिंग पर भी निर्भर करती है। सुर-तन्त्रियाँ जितनी पतली व लचीली होंगी कंपन उतना ही अधिक होगा तथा मोटी व लम्बी सुर तन्त्रियों के कंपन की मात्रा कम होंगी। यह कंपन यदि वाक्य के स्तर पर घटता-बढ़ता है तो उसे अनुतान कहा जाता है और जब शब्द के स्तर पर घटित होता है तब उसे तान कहते हैं। अनुतान की दृष्टि से सम्पूर्ण वाक्य को ही एक इकाई के रूप में लिया जाता है, पृथ्क्-पृथ्क् ध्वनियों को नहीं। सुर के अनेक स्तर हो सकते है, परन्तु अधिकांश भाषाओं में उसके तीन स्तर माने जाते हैं –

  1. उच्च,
  2. मध्य
  3. निम्न

उदाहरण के लिए हिंदी में निम्नलिखित वाक्य अलग-अलग सुर-स्तरों में बोलने पर अलग-अलग अर्थ देता है:-

  1. वह आ रहा है। (सामान्य कथन)
  2. वह आ रहा है? (प्रश्न)
  3. वह आ रहा है ! (आश्चर्य)

विवृत्ति (Vivrati): संक्रमण

ध्वनि क्रमों के मध्य उपस्थित व्यवधान को विवृत्ति कहा जाता है। वस्तुतः एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि पर जाने की (अर्थात् उच्चारण की) दो विधियाँ हैं। अन्य शब्दों में संक्रमण दो प्रकार का होता है-

  1. जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण अव्यवहृत रूप से किया जाता है, तो उसे सामान्य संक्रमण कहते हैं। इसी को आबद्ध संक्रमण कहा गया है।
  2. जब एक ध्वनि के बाद दूसरी ध्वनि का उच्चारण क्रमिक न होकर कुछ व्यवधान के साथ किया जाता है, तब उसे मुक्त संक्रमण कहते हैं। मुक्त संक्रमण ही विवृत्ति है।

हिंदी में विवृत्ति के उदाहरण हैं:-

  • तुम्हारे = तुम + हारे, हाथी = हाथ + ही।
varno ka ucharan sthan
उच्चारण स्थान

FAQ: अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न: हिंदी में उच्चारण स्थानों की संख्या कितनी है?

उत्तर: हिन्दी में जीव्हामूल को सम्मिलित नहीं किया जाता है, अतः हिन्दी वर्णमाला में वर्णों के मूल उच्चारण स्थान छः (6) “कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ, नासिका” होते हैं।

प्रश्न: वर्णों के कुल उच्चारण स्थान कितने होते हैं?

उत्तर: वर्णों के उच्चारण स्थान मूलरूप से कुल सात (7) होते हैं- कंठ, तालु, मूर्धा, दंत, ओष्ठ, नासिका, और जीव्हामूल।

प्रश्न: हिन्दी में उच्चारण स्थान के आधार पर वर्णों के कितने भेद होते हैं?

उत्तर: हिन्दी में उच्चारण स्थान के आधार पर वर्णों के कुल 9 भेद होते हैं- कंठव्य वर्ण, तालव्य वर्ण, मूर्धन्य वर्ण, दंतव्य वर्ण, नासिक्य वर्ण, कण्ठतालव्य वर्ण, कण्ठोष्ठ्य वर्ण, दन्तोष्ठ्य वर्ण।

प्रश्न: संस्कृत में उच्चारण स्थान के आधार पर वर्ण के कितने भेद होते हैं?

उत्तर: उच्चारण स्थान के आधार पर संस्कृत में वर्ण 10 प्रकार के होते हैं- कंठव्य वर्ण, तालव्य वर्ण, मूर्धन्य वर्ण, दंतव्य वर्ण, नासिक्य वर्ण, कण्ठतालव्य वर्ण, कण्ठोष्ठ्य वर्ण, दन्तोष्ठ्य वर्ण, और जीव्हामूलीय वर्ण।

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