करुण रस – Karun Ras, परिभाषा, भेद और उदाहरण – हिन्दी व्याकरण

Karun Ras

करुण रस: इसका स्थायी भाव शोक होता है इस रस में किसी अपने का विनाश या अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव विछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं।
यधपि वियोग श्रंगार रस में भी दुःख का अनुभव होता है लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन कि आशा बंधी रहती है।

Karun Ras
Karun Ras

करुण रस की परिभाषा (Definition of Karun Ras)

जहाँ पर पुनः मिलने कि आशा समाप्त हो जाती है करुण रस कहलाता है इसमें निःश्वास, छाती पीटना, रोना, भूमि पर गिरना आदि का भाव व्यक्त होता है।
or 
किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है।

धनंजय, विश्वनाथ आदि संस्कृत आचार्यों ने करुण रस के उत्पादक विविध कारणों को संक्षिप्त करके ‘दृष्ट-नाश’ और ‘अनिष्ट-आप्ति’ इन दो संज्ञाओं में निबद्ध कर दिया है, जिनका आधार उक्त ‘नाट्यशास्त्र’ में ही मिल जाता है।

  • धनंजय के अनुसार करुण रस:- ‘इष्टनाशादनिष्टाप्तौ शोकात्मा करुणोऽनुतम्’।
  • विश्वनाथ के अनुसार करुण रस:- ‘इष्टनाशादनिष्टाप्ते: करुणाख्यो रसो भवेत’।

हिन्दी के अधिकांश काव्याचार्यों ने इन्हीं को स्वीकार करते हुए करुण रस का लक्षण रूढ़िगत रूप में प्रस्तुत किया है।

  • चिन्तामणि के अनुसार –

‘इष्टनाश कि अनिष्ट की, आगम ते जो होइ।
दु:ख सोक थाई जहाँ, भाव करुन सोइ’ ।

  • देव के अनुसार –

‘विनठे ईठ अनीठ सुनि, मन में उपजत सोग।
आसा छूटे चार विधि, करुण बखानत लोग’।

  • कुलपति मिश्र ने ‘रसरहस्य’ में भरतमुनि के नाट्य के अनुरूप विभावों का उल्लेख किया है ।
  •  केशवदास ने ‘रसिकप्रिया’ में ‘प्रिय के बिप्रिय करन’ को ही करुण की उत्पत्ति का कारण माना है।
जहाँ तक करुण रस के देवता का प्रश्न है, हिन्दी के कवियों ने अधिकतर ‘यम’ के स्थान पर ‘वरुण’ को मान्यता प्रदान की है और इस प्रकार भरत से लेकर विश्वनाथ तक की परम्परा से भिन्न पथ का अनुसरण किया है।
करुण रस के उद्दीपन-विभाव का निरूपण प्राय: ‘साहित्यदर्पण’ के ‘दाहादिकावस्था भवेदुद्दीपनम्’ के प्रभावों से किया गया है।

करुण रस के अवयव/उपकरण

  • स्थाई भाव – शोक ।
  • आलंबन (विभाव) – विनष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु।
  • उद्दीपन (विभाव) – आलम्बन का दाहकर्म, इष्ट के गुण तथा उससे सम्बंधित वस्तुए एवं इष्ट के चित्र का वर्णन ।
  • अनुभाव – भूमि पर गिरना, नि:श्वास, छाती पीटना, रुदन, प्रलाप, मूर्च्छा, दैवनिंदा, कम्प आदि ।
  • संचारी भाव – निर्वेद, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, दैन्य, उन्माद आदि ।

करुण रस का स्थायी भाव – Karun Ras Ka Sthayi Bhav

  • करुण रस की परिव्याप्ति और परिसीमन का निर्धारण एक जटिल प्रश्न है। यद्यपि करुण का स्थायी भाव शोक माना गया है, पर शोक तभी सम्भव है, जब उसके मूल में ‘राग’ या ‘रति’ किसी न किसी रूप में निहित हो।
  • आदिकाव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ से सम्बद्ध क्रोंचवध की कथा में ही इसका सूत्र मिलता है। जिस क्रोंच – मिथुन में से एक के वध का परिणाम ‘शोक’ के ‘श्लोकत्व’ में घटित हुआ, वह ‘काममोहित’ था। इस आधार पर कुछ काव्य – चिन्तकों ने करुण का क्षेत्र अन्य रसों की अपेक्षा अत्यन्त व्यापक बताया है और श्रृंगारादि रसों को उसी की परिधि में समाविष्ट करने की चेष्टा की है।
  • इसका सबसे अधिक श्रेय ‘उत्तररामचरित’ के रचयिता भवभूति को है। इन्हीं ने काव्य में करुण रस की महत्ता और व्याप्ति का मुक्त उदघोष किया है –

‘एको रस: करुण एवं निमित्तभेदाद्भिन्न: पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान्।
आवर्तबुदबुद-तरंगमयान्वकारानम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समग्रम्’।

मानव हृदय को सुख की अपेक्षा दु:ख अधिक तलस्पर्शी एवं द्रवणशील अनुभूति प्रदान करता है तथा वह अधिक गम्भीर एवं स्थायी आत्मिक एकता उत्पन्न करने की क्षमता रखता है, कदाचित् इसी आधार पर उक्त स्थापना की मनोवैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती है। एक ओर जहाँ करुण को इतनी व्यापक महत्ता प्रदान की जाती है, वहीं दूसरी ओर आचार्यों ने उसकी सीमाओं का भी निर्देश श्रृंगारादि अन्य रसों की तुलना में सूक्ष्म रीति से किया है।

करुण रस का अनुभाव और संचारी भाव

अनुभावों और संचारियों की दृष्टि से विप्रलम्भ श्रृंगार करुण के सबसे निकट पड़ता है, इसीलिए भरतमुनि से लेकर वर्तमान काल तक काव्य के तत्त्वज्ञों को दोनों का मौलिक अन्तर स्पष्ट करने की ओर विशेष ध्यान देना पड़ा है। ‘नाट्यशास्त्र’ में करुण को निरपेक्ष और विप्रलम्भ को सापेक्ष कहकर दोनों का पार्थक्य प्रदर्शित किया गया है –

‘करुणस्तु….निरपेक्षभाव औत्सुक्यचिन्तासमुत्य:।
सापेक्षभावों विप्रलम्भकृत:। एवमन्य: करुण: अन्यश्च विप्रलम्भ:’।

उक्त उद्धृत अंश के साथ भरतमुनि ने ‘एवमेष सर्वभावसंयुक्त: श्रृंगारो भवति’ अर्थात् ‘इस प्रकार यह श्रृंगार सब भावों से संयुक्त होता है’; यह टिप्पणी जोड़कर स्पष्ट निर्देश कर दिया कि वे करुण की तुलना में श्रृंगार को अधिक व्यापक भाव भूमि पर आधारित मानते थे। जो करुण इष्टनाश से उत्पन्न होता है, वह तो विप्रलम्भ से सरलता से पृथक् किया जा सकता है, क्योंकि नायक – नायिका, दोनों की सत्ता ‘रति’ की स्थिति के लिए अनिवार्य है। यदि दोनों में से किसी का अवसान हो जाता है तो ‘रति’ की स्थिति ही नहीं होती, अत: ऐसी दशा में केवल करुण ही सम्भव है। परन्तु अनिष्टप्राप्ति से उत्पन्न होने वाला करुण विप्रलम्भ से तब तक अलग नहीं जा सकता, जब तक ‘रति’ और ‘शोक’ की सम्मिलित स्थिति में किसी एक की प्रधानता व्यक्त नहीं हो जाती।
  • ‘रत्यनालिंगित शोक’ की विशेष स्थिति को मानते हुए मिश्र रस के रूप में ‘करुण श्रृंगार’ और ‘करुण वात्सल्य’ की भी कल्पना की गई है।
  • कृष्ण काव्य में ‘भ्रमरगीत’ के प्रसंग में गोपी – विरह, यशोदा – विलाप और ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम’ के चतुर्थ अंक में कण्व के आश्रम से शकुन्तला की विदाई तथा ऐसे ही अन्य स्थल शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार करुण रस के अन्तर्गत न आते हुए भी न्यूनाधिक करुण प्रभाव उत्पन्न करते हैं। उर्मिला – विरह तथा राम वन गमन की स्थिति भी समानान्तर ही है, कदाचित इसीलिए इनके वर्णन में कवियों ने ‘करुणा’ या ‘करुण रस’ का स्पष्ट प्रयोग किया है।

मैथिलीशरण गुप्त का करुण रस

‘करुणे, क्यों रोती है? उत्तर में और अधिक तू रोई।
मेरी विभूति है जो, उसको भवभूति क्यों कहे कोई?’।

तुलसीदास का करुण रस

‘मुख मुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाइ।
मनहूँ करुन रस कटकई उत्तरी अवध बजाइ’।

रामचन्द्र शुक्ल का करुण रस

रामचन्द्र शुक्ल ने ऐसे ही स्थलों को ध्यान में रखकर करुण और विप्रलम्भ का अन्तर बताते हुए लिखा है कि वियोग में प्रिय के अपने से बिछुड़ने की विह्वलता प्रधान होती है, किन्तु शोक में अपने कष्ट की भावना उतना काम नहीं करती, जितना प्रिय के कष्ट की चेतना जी को जलाती है। इसमें भी भाव की प्रधानता और अप्रधानता के आधार पर ही करुण और श्रृंगार के बीच अन्तर करने की पुष्टि होती है।

केशवदास का करुण रस:

केशवदास ने वियोग श्रृंगार के चार भेदों में एक करुण भी रखा है, जो इस बात का प्रमाण है कि दोनों की सीमा एक बिन्दु पर मिल जाती है। करुण रस के साथ जो इससे भी महत्त्वपूर्ण समस्या सम्बद्ध रही है, वह है दु:ख के द्वारा आनन्द की उपलब्धि की।

करुण रस के उदाहरण – Karun Ras Ke Udaharan

1.

हाय राम कैसे झेलें हम अपनी लज्जा अपना शोक
गया हमारे ही हाथों से अपना राष्ट्र पिता परलोक

2.

हुआ न यह भी भाग्य अभागा
किस पर विकल गर्व यह जागा
रहे स्मरण ही आते
सखि वे मुझसे कहकर जाते

3.

अभी तो मुकुट बंधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ
खुले भी न थे लाज के बोल
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल

Easy Examples of Karun Ras

4.

धोखा न दो भैया मुझे, इस भांति आकर के यहाँ
मझधार में मुझको बहाकर तात जाते हो कहाँ

5.

सीता गई तुम भी चले मै भी न जिऊंगा यहाँ
सुग्रीव बोले साथ में सब (जायेंगे) जाएँगे वानर वहाँ

6.

दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ, आज जो नहीं कहीं

7.

रही खरकती हाय शूल-सी, पीड़ा उर में दशरथ के
ग्लानि, त्रास, वेदना – विमण्डित, शाप कथा वे कह न सके

करुण रस का उदाहरण स्पष्टीकरण सहित

8.

हाय रुक गया यहीं संसार
बना सिंदूर अनल अंगार
वातहत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार! — सुमित्रानंदन पंत

स्पष्टीकरण– इन पंक्तियों में ‘विनिष्ट पति’ आलम्बन तथा मुकुट का बंधना, हल्दी के हाथ होना, लाज के बोलों का ना खुलना’ आदि उद्दीपन है।  ‘वायु से आहत लतिका के समान नायिका का बेसहारे पडे होना’ अनुभाव है तथा उसमें विषाद, दैन्य, स्मृति, जड़ता आदि संचारियों की व्यंजना है। इस प्रकार करुणा के सम्पूर्ण उपकरण और शोक नामक स्थाई भाव इस पद्य को करुण रस दशा तक पंहुचा रहे है।

रस के भेद

  1. श्रृंगार रस – Shringar Ras,
  2. हास्य रस – Hasya Ras,
  3. रौद्र रस – Raudra Ras,
  4. करुण रस – Karun Ras,
  5. वीर रस – Veer Ras,
  6. अद्भुत रस – Adbhut Ras,
  7. वीभत्स रस – Veebhats Ras,
  8. भयानक रस – Bhayanak Ras,
  9. शांत रस – Shant Ras,
  10. वात्सल्य रस – Vatsalya Ras,
  11. भक्ति रस – Bhakti Ras