Shringar Ras : Sringar Ras Ki Paribhasha
श्रृंगार रस: श्रृंगार रस को रसराज या रसपति कहा गया है। मुख्यत श्रृंगार रस को संयोग तथा विप्रलंभ/वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।
नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित रति या प्रेम जब रस की अवस्था को पहुँचकर आस्वादन के योग्य हो जाता है तो वह 'शृंगार रस' कहलाता है।
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥
श्रंगार रस के अवयव (उपकरण)
- श्रृंगार रस का स्थाई भाव - रति।
- श्रृंगार रस काआलंबन (विभाव) - नायक और नायिका ।
- श्रृंगार रस का उद्दीपन (विभाव) - आलंबन का सौदर्य, प्रकृति, रमणीक उपवन, वसंत-ऋतु, चांदनी, भ्रमर-गुंजन, पक्षियों का कूजन आदि।
- श्रृंगार रस का अनुभाव - अवलोकन, स्पर्श, आलिंगन, कटाक्ष, अश्रु आदि ।
- श्रृंगार रस का संचारी भाव - हर्ष, जड़ता, निर्वेद, अभिलाषा, चपलता, आशा, स्मृति, रुदन, आवेग, उन्माद आदि।
Shringar Ras Ka Sthayi Bhav : स्थाई भाव
Sringar Ras का स्थाई भाव "रति" है।श्रृंगार रस के उदाहरण : Shringar ras ke udaharan
Example 1.
दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माही ।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही ।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। - तुलसीदास।
गावति गीत सबै मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही।।
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही ।
यातें सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं। - तुलसीदास।
Example 2.
रे मन आज परीक्षा तेरी !
सब अपना सौभाग्य मानावें।
दरस परस नि:श्रेयस पावें।
उध्दारक चाहें तो आवें।
यही रहें यह चेरी ! - मैथिलीशरण गुप्त
सब अपना सौभाग्य मानावें।
दरस परस नि:श्रेयस पावें।
उध्दारक चाहें तो आवें।
यही रहें यह चेरी ! - मैथिलीशरण गुप्त
Shringar Ras Ke Bhed/prakar
श्रंगार रस दो प्रकार के होते है-- संयोग श्रंगार
- वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार)
संयोग श्रृंगार रस : Sanyog Shringar Ras
संयोगकाल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग श्रृंगार रस कहा जाता है। इसमें संयोग का अर्थ है सुख की प्राप्ति करना।
संयोग श्रृंगार के उदाहरण
बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। -बिहारी लाल
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। -बिहारी लाल
वियोग श्रृंगार रस : Viyog Shringar Ras
एक दूसरे के प्रेम में अनुरक्त नायक एवं नायिका के मिलन का अभाव 'विप्रलम्भ श्रंगार' होता है ।
वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार) के उदाहरण
निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै
जब ते स्याम सिधारे। - सूरदास
सदा रहति पावस ऋतु हम पै
जब ते स्याम सिधारे। - सूरदास
देखें रस के अन्य भेद : हास्य रस, रौद्र रस, करुण रस, वीर रस, अद्भुत रस, वीभत्स रस, भयानक रस, शांत रस, वात्सल्य रस, भक्ति रस
वियोग श्रंगार की अन्य परिभाषाएँ एवं विचार
- भोजराज ने विप्रर्लभ-श्रृंगार की यह परिभाषा दी है-‘जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त करे, लेकिन अभीष्ट को न पा सके, वहाँ विप्रर्लभ-श्रृंगार कहा जाता है’।
- भानुदत्त का कथन है-‘युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है’।
- साहित्यदर्पण में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है-‘यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ।
- इन कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक या नायिका से है।
विभिन्न कवियों के विचार-
हिन्दी के आचार्यों में केशव तथा सोमनाथ ने ‘रसगंगाधर’ की परिभाषा अपनायी है तथा चिन्तामणि और भिखारीदास ‘साहित्यदर्पण’ से प्रभावित हैं।केशव ने श्रृंगार रस के बारे में कहा है:
बिछुरत प्रीतम की प्रीतिमा, होत जु रस तिहिं ठौर।
विप्रलम्भ तासों कहै, केसव कवि सिरमौर।
विप्रलम्भ तासों कहै, केसव कवि सिरमौर।
सोमनाथ के श्रृंगार रस के बारे विचार:
प्रीतम के बिछुरनि विषै जो रस उपजात आइ।
विप्रलम्भ सिंगार सो कहत सकल कविराइ।
विप्रलम्भ सिंगार सो कहत सकल कविराइ।
चिन्तामणि ने श्रृंगार रस के बारे में कहा है:
जहाँ मिलै नहिं नारि अरु पुरुष सु वरन् वियोग।
भिखारी के श्रृंगार रस के बारे विचार:-
जहँ दम्पत्ति के मिलन बिन, होत बिथा विस्तार।
उपजात अन्तर भाव बहु, सो वियोग श्रृंगार।
उपजात अन्तर भाव बहु, सो वियोग श्रृंगार।
विप्रलम्भ के प्रकार : Viyog Shringar Ras Ke Prakar/Bhed
धनंजय ने श्रृंगार के तीन भेद बताए हैं- आयोग, विप्रयोग, सम्भोग। इनमें आयोग और विप्रयोग विप्रलम्भ के अन्तर्गत आते हैं। आयोग का अर्थ है, नहीं मिल पाना और विप्रयोग का अर्थ है, मिलकर अलग हो जाना। लक्षण के अनुसार आयोग पूर्वानुग्रह के समकक्ष है। कभी-कभी विप्रयोग और विप्रलम्भ पर्याय जैसे भी समझे जाते हैं।- विप्रलम्भ के कई प्रकार से भेद किये गए हैं।
- भोज ने ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में पूर्वानुराग, मान, प्रवास एवं करुण, ये चार भेद कहे हैं।
- परवर्ती आचार्यों में विश्वनाथ ने इन्हीं भेदों का कथन किया है।
- लेकिन मम्मट ने विप्रलम्भ के पाँच प्रकार बताये हैं-अभिलाषहेतुक, विरसहेतुक, ईर्ष्याहेतुक, प्रवासहेतुक तथा शापहेतुक।
- भानुदत्त और पण्डितराज ने मम्मट के भेदों को ही स्वीकार किया है।
- हिन्दी के आचार्यों में केशव, देव, भिखारी इत्यादि ने ‘साहित्यदर्पण’ का ही अनुसरण किया है।
- नवीन विद्वानों में कन्हैयालाल पोद्दार ने ‘काव्यप्रकाश’ का तथा रामदहिन मिश्र ने ‘साहित्यदर्पण’ का वर्गीकरण स्वीकार किया है।
- ‘हरिऔध’ पूर्वानुराग, मान और प्रवास, तीन ही भेद स्वीकार करते हैं।
- मतिराम ने भी ‘रसराज’ में ये ही तीन भेद माने हैं।
पूर्वराग या पूर्व अनुराग
मिलन अथवा समागम से पूर्व हृदय में जो अनुराग का आविर्भाव होता है, उसे पूर्वराग या पूर्वानुराग कहा जाता है।पूर्वराग या पूर्वानुराग के चार मार्ग या विधियाँ हैं-
- प्रत्यक्ष दर्शन,
- चित्र दर्शन,
- श्रवण दर्शन
- स्वप्न दर्शन
- नीलीराग- जो बाहरी चमक-दमक तो अधिक न दिखाये, किन्तु हृदय से कभी दूर न हो।
- कुसुम्भराग- जो शोभित अधिक हो, किन्तु जाता रहे।
- मंजिष्ठाराग- जो शोभित भी हो और साथ ही कभी नष्ट भी न हो।
श्रृंगार रस में मान (प्रणयमान और ईर्ष्यामान):
प्रियापराधजनित कोप को मान कहते हैं। इसके भी दो भेद होते हैं-- प्रणयमान
- ईर्ष्यामान।
श्रृंगार रस में प्रणयमान:-
दोनों के हृदय में भरपूर प्रेम होने पर भी जब प्रिय-प्रिया एक-दूसरे से कुपित हों, तब प्रणयमान होता है। इसका समाधान यह कहकर किया गया है कि प्रेम की गति कुटिल होती है, यद्यपि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा मान नायक-नायिका पारस्परिक अनुराण की पुष्टि हेतु करते हैं। यदि यह मान अनुनय-विनय समय तक न ठहर सके, तो इसे विप्रलम्भ श्रृंगार न समझकर ‘सम्भोगसंचारी’ नामक भाव मानना चाहिए।श्रृंगार रस में ईर्ष्यामान:-
पति की अन्य नारी में आसक्ति देखने, अनुमान करने या किसी से सुन लेने पर स्त्रियों द्वारा किया गया मान ‘ईर्ष्यामान’ कहलाता है। निवृत्ति के अनुसार ईर्ष्यामान के भी तीन भेद कहे गये हैं-- लघु मान,
- मध्यम मान
- गुरु मान।
श्रृंगार रस में प्रवास:-
नायक-नायिका में से एक का परदेश में होना प्रवास कहलाता है। यह प्रवास कार्यवश, शापवश अथवा भयवश, तीन कारणों से होता है। प्रवास-वियोग में नायिका के शरीर और वस्त्र में मलिनता, सिर में एक साधारण वेणी एवं नि:श्वास-उच्छवास, रोदन, भूमिपतन इत्यादि होते हैं। शापज (शापहेतुक) वियोग का प्रसिद्ध उदाहरण कालिदास का मेघदूत है, जिसमें कुबेर के शाप के कारण यक्ष अपनी पत्नी से वियुक्त हो गया है तथा मेघ को दूत बनाकर अपना मर्मद्रावक प्रणय सन्देश प्रिया के पास भेजता है।करुण विप्रलम्भ श्रृंगार रस - Karun Shringar Ras
- नायक-नायिका में से एक के मर जाने पर दूसरा जो दुखी होता है, उसे करुण-विप्रलम्भ कहते हैं।
लेकिन विप्रलम्भ तभी माना जायेगा, जब परलोकगत व्यक्ति के इसी जन्म में इसी देह से पुन: मिलने की आशा बनी रहे।
- यदि प्रियमिलन की आशा सर्वथा नष्ट हो जाए, तो वहाँ स्थायी भाव शोक होने से करुण रस होगा, करुण-विप्रलम्भ-श्रृंगार नहीं।
- ‘रघुवंश’ में इन्दुमती के मर जाने पर महाराज अज का प्रसिद्ध विलाप करुण रस ही है, करुण-विप्रलम्भ-श्रृंगार नहीं।
- कादम्बरी में पुरण्डरीक के मर जाने पर महाश्वेता को करुण रस की ही अनुभूति हुई, लेकिन आकाशवाणी सुनने पर प्रियमिलन की आशा अंकुरित होने के बाद से ‘करुण-विप्रलम्भ’ माना जाता है।
- वैसी दशा में भी, जहाँ प्रिय से मिलने की आशा नष्ट हो गई है, लेकिन प्रिय जीवित है तथा मिलन की भौतिक सम्भावना सर्वथा विलुप्त नहीं हुई है, करुण-विप्रलम्भ माना जायेगा।
- ‘सूरसागर’ में कृष्ण के ब्रज से चले जाने के उपरान्त गोपियों की वियोगानुभूति करुण-विप्रलम्भ ही है।
- मम्मट के पंचविध विप्रलम्भ और विश्वनाथ के चतुर्विध विप्रलम्भ में कोई मौलिक भेद नहीं है।
- मम्मट का अभिलाषहेतुक वियोग ‘साहित्यदर्पण’ का पूर्वानुराग ही है, यद्यपि सामान्य काव्यानुरागियों में ‘पूर्वराग’ या ‘पूर्वानुराग’ शब्द अधिक लोकप्रिय हैं।
- ‘ईर्ष्याहेतुक’ का सम्बन्ध मान से है। प्रवास एवं शाप, दोनों वर्गीकरणों में समान है। करुण-विप्रलम्भ प्रवासहेतुक वियोग के भीतर सन्निविष्ट किया जा सकता है।
- मम्मट का विरहहेतुक विप्रलम्भ अवश्य एक सुन्दर सूझ है। समीप रहने पर भी गुरुजनों की लज्जा आदि के कारण समागम न हो, तो वह विरहहेतुक वियोग माना जायेगा। इसके अत्यन्त मर्मस्पर्शी उदाहरण हैं-
देखै बनै न देखतै अनदेखै अकुलाहिं।
इन दुखिया अँखियानुकौ सुखु सिरज्यौई नाहिं।
इन दुखिया अँखियानुकौ सुखु सिरज्यौई नाहिं।
श्रृंगार रस (Shringar Ras) में काम दशाएँ
वियोग से सम्बन्धित दस काम-दशाएँ भी मानी गई हैं-- अभिलाष, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद व्याधि, जड़ता और मृति या मरण।
- प्रिय से तन से मिलन की इच्छा अभिलाषा है;
- प्राप्ति के उपायों की खोज चिन्ता है;
- सुखदायी वस्तुएँ जब दु:खदायी बन जाएँ, तो उद्वेग है;
- चित्त के व्याकुल होने से अटपटी बातें करना प्रलाप है;
- जड़े-चेतन का विचार न रहना उन्माद है;
- दीर्घ नि:श्वास, पाण्डुता, दुर्बलता इत्यादि व्याधि हैं;
- अंगों तथा मन का चेष्टाशून्य होना जड़ता है।
देव की सलाह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-
‘मरनौ या विधि बरनिये जाते रस न नसाइ’।
भारतेन्दु की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
"एहो प्रान प्यारे बिन दरस तिहारे भये,
मुये हूँ पै आँखें हैं खुली ही रह जाएँगी"
मुये हूँ पै आँखें हैं खुली ही रह जाएँगी"
रस के प्रकार, भेद
- श्रृंगार रस - Shringar Ras,
- हास्य रस - Hasya Ras,
- रौद्र रस - Raudra Ras,
- करुण रस - Karun Ras,
- वीर रस - Veer Ras,
- अद्भुत रस - Adbhut Ras,
- वीभत्स रस - Veebhats Ras,
- भयानक रस - Bhayanak Ras,
- शांत रस - Shant Ras,
- वात्सल्य रस - Vatsalya Ras,
- भक्ति रस - Bhakti Ras
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